30 अप्रैल 2012

मृत्यु के समय कष्ट





कबीर वो दिन याद कर, पग ऊपर तल सीस।
मृत्युमंडल में आय कर, भूल गयो जगदीश॥

जीव पिता के द्वारा माता के पेट में शुक्र-शोणित के साथ मिलकर प्रथम मास में तरल तथा पेशियों से युक्त होकर दूसरे महीने में पिण्डाकार, तीसरे में हाथ-पैर से युक्त तथा सिर निकल आता है। यद्यपि सामान्य जीव पिता के शुक्र में पहले से रहता है फिर भी चौथे महीने में विशेष चेतना का संचार होता है।

तब बच्चा माता के पेट में घूमता है, पुत्र माता के दाहिनी कोख में, कन्या बायें कुक्षि में तथा नपुंसक मध्य में घूमता है। उसी मास उसके दांत, दाढ़ी, मूछों को छोड़कर शेष सभी अङ्ग-प्रत्यंग बन जाते हैं। यदि पेट में पुत्र हो तो माता का स्थिर भाव, पुत्री हो तो चंचलता, नपुंसक हो तो मिश्रित भाव होता है।

उस समय पति को चाहिये कि पत्नी की इच्छा की पूर्ति करे। माता के हृदय में जैसा क्रोध, लोभ, प्रभृति दुर्भाव अथवा शांति, सन्तोष प्रभृति सदभाव होता है, वैसी ही सन्तान होती है।

जीव पांचवें मास में प्रबुद्ध होता है तथा गर्भ के दुःखों का अनुभव करता है। उस समय वह माता के पेट की अग्नि में भाड़ में डाले गए अन्न के समान सन्तप्त होता है। माता द्वारा खाये हुए तीक्ष्ण लवण आदि पदार्थ तथा पेट के कीड़ों से वह दुःखी होता है।

पांचवें मास में ही उसका मांस तथा रक्त पुष्ट हो जाता है। छठें मास में उसके हाथ-पैर की उंगलियों के नाखून, शरीर में रोम, सिर पर केश हो जाते हैं। सातवें मास में सभी अङ्ग पूर्ण हो जाते हैं।

आठवें में त्वचा, ओज से युक्त होकर माता द्वारा खाये हुए पदार्थों से जीवन-धारण करता है। पेट में तड़पता है, तेजी से घूमता है। उस दुःख से छूटने के लिए भगवान से प्रार्थना करता है। अन्त में नवां मास पूर्ण होने के बाद रोता हुआ बाहर आता है। बाहर आकर पिता को राक्षस के समान, माता को डाकिनी के समान समझ कर डर के मारे रोने लगता है।

मल-मूत्र में पड़ा रहता है। शरीर में काटने वाले जीव-जन्तुओं से अपनी रक्षा नहीं कर पाता। बड़ी कठिनाई से अपनी शैशव अवस्था को बिताता है। बाल्य अवस्था दोषों का भण्डार है। बड़े बालकों से पिटता है। गुरू माता-पिता से मार खाता है।

पुनः युवावस्था आरम्भ होती है। काम-ज्वर से सन्तप्त होकर माता-पिता से झगड़ता तथा हंसता, व्यर्थ बोलता, दूसरों को दुःख देता, सुन्दर युवती को देखकर उसके रूप-यौवन से मोहित हुआ, गन्दे पदार्थों से बने हुए उसके शरीर को देखकर आकर्षित होकर, प्राप्त करने की अनेकों चेष्टाएँ करता है।

अपनी सती-साध्वी पत्नी का परित्याग कर वेश्या में आसक्त होकर पेट के नीचे भाग में लगी बीच में चीरी हुई मेढकी के समान योनि को देखकर मूत्र की दुर्गन्ध से युक्त अन्त में काम से पीड़ित होकर कुचेष्टा करता है, जो साक्षात नर्क-कुण्ड है अर्थात काम-रूपी अग्नि उसे भस्म करती है।

जैसे गन्ने का रस निकालने वाली चर्खी में गन्ना पेरने से उसका रस निकल जाता है, गन्ना निःसार होकर बाहर गिर जाता है। ऐसे ही वह कामांध पुरूष गन्ने के समान निःसार करने वाली चर्खी के समान गुप्तांग में लिंग डालकर सारहीन हो जाता है। वेश्या के कटाक्ष से पीड़ित, माया से मोहित, जगत की परवाह नहीं करता किन्तु जिस रमणी के शरीर में दिन-रात चढ़ा रहना चाहता है। उसी रमणी के प्राण निकल जाते हैं तब वह अरमणीय तथा भयंकर प्रतीत होती है।

अन्त में महा पराजय देने वाला बुढ़ापा आता है। मुख तथा नासिका से लार टपकती है। अति सुन्दर जगत को मोहित करने वाला उसका रूप किष्किन्धा के बन्दर जैसा हो जाता है। बच्चे देखकर हंसते हैं। बात करते समय मुख से शब्द फटे नगारे के समान निकलता है। आंख-कान हाथ-पैर आदि इन्द्रियां जवाब दे देती हैं। टांगें तथा कमर झुक कर धनुष जैसी हो जाती है। अति स्वादिष्ट भोजन की इच्छा होती है किन्तु पचा नहीं सकता।

स्त्री-पुरूष नौकर, पौत्र आदि तिरस्कार करते हैं। टूटी खाट पर सोता है। अनेक चिंताओं के कारण निद्रा नहीं आती। युवावस्था के सुखों का स्मरण करके आंसू गिराता है। यदि भयंकर असाध्य रोग  अथवा गिर जाने से चोट लगती है तो अत्यन्त दुःखी होता है। पश्चाताप करते हुये कहता है -  जीवन-पर्यन्त जिनके लिए महाकष्ट उठाया, वे मुझे नहीं पूछते।

अन्त में महा पापी जीव पाप-रूपी बोझ से लदा हुआ बड़े कष्ट के साथ शरीर छोड़ता है। अन्तिम समय में लोग उसे पुकारते हैं। देखता-पहचानता है, पर बोल नहीं सकता। तब यम के दूत पाश में बांधकर ले जाते हैं। श्वास की गति तीव्र हो जाती है। मुख सूखता है। सोचने लगता है ‘कहां जाऊं, क्या करूं।’

हिमालय के जहरीले एक हजार बिच्छू द्वारा एक साथ एक ही स्थान में डंक मारने से जितनी वेदना होती है। उतनी वेदना शरीर छोड़ते समय होती है। किसी के भयावह फोड़े में दस हजार सुई चुभाने से जितनी पीड़ा होती है। उतना ही शरीर छोड़ते समय कष्ट होता है।

जिस शरीर को माता-पिता आदि मेरा कहते थे। माता से उत्पन्न हुए जगत में यह किसी का नहीं है। अकेला ही जीव आता है, और अकेला ही जाता है। कैसे जाता है? जैसे कोई पक्षी वृक्ष पर अपना घर बनाकर विश्राम करके छोड़कर चला जाता है। वैसे ही जीव-रूपी पक्षी भी शरीर-रूपी वृक्ष पर विश्राम करके अन्त में छोड़कर चला जाता है।

मृतिवीजं भवेज्जन्म जन्मवीजं भवेन्मृति:।
घटयन्त्र वदश्रान्तोऽयंभ्रमीत्यनिशंनर:॥
गर्भे पुंसः शुक्रपातात या युक्तं मरणावधि:।
तदेतस्य महाव्याधेर्मत्तो नान्योऽस्तिभेषजम॥

मृत्यु बीज से जन्म, जन्म बीज से मृत्यु, रहट (यन्त्र) में बंधे घड़ों के समान जीव जन्म-मृत्यु के चक्र में दिन-रात घूमता है। वीर्य सेचन से मृत्युपर्यन्त इस जन्म-मरण चक्र रूपी महारोग की औषधि आत्मज्ञान के अतिरिक्त और नहीं। अतः इससे छूटने के लिए एकमात्र परमात्मा की शरण ग्रहण करो। 

28 अप्रैल 2012

मनुष्य शरीर विराट की प्रतिकृति है

राजीव अंकल ! क्या ये कृष्ण जी उसी गोलोक में रहते हैं । जिसे किसी लेख में आपने इन्द्रियों " गोमास भक्षण वाले लेख में " की संज्ञा दी थी । या वो कोई और है ? अगर वो ही है । तो अब कैसे explain करोगे ? अगर नहीं । तो क्यों नहीं । आपके उत्तर की प्रतीक्षा में  । abra ka dabra
ANS - गोलोक विभिन्न लोकों की स्थिति अनुसार ( मगर ) बृह्माण्डी सत्ता का सबसे ऊँचा और आकार में सबसे बङा लोक है । यहाँ राधा कृष्ण अपने वास्तविक रूप में रहते हैं । वास्तव में यही त्रिलोकी सत्ता का मुख्यालय है । साधारण रूप से बृह्मा विष्णु शंकर देवियाँ आदि जैसे पदस्थ लोग यहाँ कभी नहीं जा सकते ।  विशेष कोशिशों और सिफ़ारिशों पर द्वैत के पहुँचे हुये सन्त इनकी एकाध बार मुलाकात कराते हैं । क्योंकि अपनी क्षमता से ये देवता यहाँ की ( ऊपर ) यात्रा नहीं कर सकते । गोलोक में घूमने वाले गोप गोपियों के अधिकार इन देवी देवताओं से बहुत अधिक होते हैं । ये वहाँ मुलाकात की प्रतीक्षा में उसी तरह गलियारे में खङे रहते हैं । जैसे किसी मिनिस्टर से मिलने आये छोटे मोटे लोग । इनसे बैठने को भी नहीं कहा जाता ।
2 - मनुष्य शरीर विराट की same प्रतिकृति है । गो - इन्द्रियों को कहा जाता है । और ये शरीर सभी अन्य चीजों ( तत्वों । प्रकृति । गुण आदि ) के साथ साथ ( जीव

स्थिति में ) गो यानी इन्द्रियों के समूह ( 5 ज्ञान इन्द्रियाँ 5 कर्म इन्द्रियाँ ) से खास संयुक्त है । मनुष्य के ज्ञान रहित अवस्था में ज्यादातर व्यवहार इन्द्रियों से ही जुङे हैं । अन्य चीजों को न जानता हुआ । वह ( इस शरीर को ही ) इनसे बने कृतिम शरीर को ही सब कुछ मानता है । अतः उस स्थिति अनुसार ( समझाने के लिये )  ये भी गो लोक ही है । जब अखिल सृष्टि का नक्शा जीवन्त रूप में इसमें है । तब फ़िर इसमें कृष्ण वाला गोलोक भी है । और भी गो लोक हैं । क्योंकि सनातन आत्मा इन सबसे परे है । उसमें गो वैल नाम की कोई चीज नहीं है । कुछ भी नहीं है । जो है ? वह वह वही शाश्वत सनातन है । और वह - है । जबकि बाकी सब बाद में निर्मित हैं ।
एक बात और । सतपुरुष और परमात्मा में भी भेद है ? भेजा फ्राई हो गया अंकल । आबरा का डाबरा ।

ANS - देखिये । यहाँ दोनों ही बातें हो जाती हैं । कुछ आत्म ज्ञानी सन्तों ने अपने भाव अनुसार परमात्मा को भी सत पुरुष कहा है । वास्तव में यहाँ इस भाव का अर्थ है । शाश्वत सत्य ( सत ) जो है । और 1 मात्र पुरुष ( चेतन । आत्मा ) जो है । इस तरह इस भाव अनुसार ये बिलकुल सही बात हुयी । लेकिन बारीक विश्लेषण कुछ अलग तरह का हो जाता है । यदि स्थूलता भाव में सिर्फ़ शब्द पर ध्यान दें । उसकी गहराई में न जायें । तो ये पूरी तरह गलत भी है । क्योंकि परमात्मा न सत है । न असत है । न स्त्री है । न पुरुष है । उसकी वास्तविकता वह है । जहाँ कोई स्थिति ही नहीं है । मतलब आदि सृष्टि से भी पहले की स्थिति । शाश्वत होना । है । है । है । सिर्फ़ - है ।
इस पूरे अखिल सृष्टि का सिर्फ़ 1 ही मुख्य सूत्र है । जो इसको समझ लेता है । वह बहुत जल्द परम ज्ञान को प्राप्त होने लगता है । सूत्र है - है । सो परमात्मा । ( यह सब हलचल ) हो रहा है - प्रकृति में । मान रहा है ( मैं मेरा । तू तेरा ) सो - जीव । बस कुल खेल इतने ही सूत्र में सिमटा हुआ है ।
सूत्र - है । सो परमात्मा । हो रहा है - प्रकृति में । मान रहा है सो - जीव ।
इसको समझकर ह्रदयंगम करने से बार बार दोहराने याद करने से बहुत ही लाभ होता है । जिसको बिना शक आशातीत कल्पनातीत लाभ कह सकते हैं ।
राजीव जी और अशोक जी ! शायद आप history नहीं पढते । गुरु तो रामदास जी शिवाजी के थे । पर शिवाजी ने राष्ट्र धर्म को जीवन्त जागृत किया । इतिहासकार तो वीर शिवा का गुणगान करते हैं । चाहे शिवाजी इसका श्रेय अपने गुरु को देते होंगे । अशोक जी ! आप मुझे गुरु गरिमा के बारे में बताते हो । मेरे गुरुदेव पं.श्रीराम शर्मा जी आगरा के आंवलखेङा के जाये जन्में  " Light of india " से नवाजे गये । और उनका अबसे पहले तीसरा - जन्म सन्त कबीर । दूसरे में सन्त रामदास जी । और बाद में रामकृष्ण परमहँस के रूप में आये थे । जिन्होंने  3200 पुस्तकें बिज्ञान और अध्यात्म पर लिखी । मेरा आशय  इतना ही है कि history को नजर अंदाज कर आपके विचार प्रमाणिकता विहीन व दुराग्रही हैं । चूणाराम विश्नोई ।
ANS - इसको पढकर मुझे इतनी हँसी आयी कि - शायद जीवन में नहीं आयी । इससे पहले भी पंजाब के हमारे एक पाठक ने बताया कि उनके घर में ईसाई धर्म में परिवर्तित हुआ कोई गुरु आया । जो कहता था - कबीर स्वर्ग में रहते हैं ? तब भी मुझे बहुत हँसी आयी थी । कहाँ श्री राम शर्मा ?? और कहाँ ये अति अति अति महान तीन हस्तियाँ । कबीर । रामदास । और रामकृष्ण परमहँस । और इनका चौथा जन्म ? जन्म ? वो भी श्री राम शर्मा का ? सिर्फ़ एक मुनि स्तर का ज्ञानी ।
कबीर । रामदास । और रामकृष्ण परमहँस - ये Light of india नहीं । बल्कि  Light of परमात्मा है ।
आप  history पढने पर जोर देते हो । कृपया अपने - गुरु के पूर्व 3 जन्मों ?? की वाणियों का अध्ययन करें । उन्होंने किसी गायत्री ? उपासना को कोई महत्व दिया । कोई भी महत्व ? उन्होंने घर घर बच्चों की तरह पढने के लिये किताबों कापियों के बस्ते बेचे । जिनमें राम राम वगैरह लिख कर आत्म ज्ञान ? बताया जाता हो ।
बड़के भैया " चूना राम बिश्नोई जी " हमारी नोलेज के हिसाब से तो तोतापुरी जी महाराज अभी कुछ समय पहले तक मुक्ति के लिए भटक ही रहे थे । अब शायद कहीं की सीट आरक्षित हो गयी हो । तो कह नहीं सकते  । आगे भैया छोटा मुँह बड़ी बात बोल दिए । अगर बुरा लगे हो । तो हमका माफ़ी दे दो । आबरा का डाबरा ।
ANS - अक्सर एक नाम के कई सन्त । कई प्रसिद्ध लोग हुये हैं । जैसे एक विश्व विजेता सिकन्दर लगभग 500 वर्ष पूर्व कबीर के समय में उनका शिष्य हुआ । और एक कई हजार वर्ष पहले हुआ है । वह भी राजा ही था । और बेहद प्रसिद्ध भी हुआ । इसी तरह तोतापुरी नाम से विभिन्न पंथों के द्वैत ज्ञान में कई प्रसिद्ध अप्रसिद्ध सन्त हुये हैं । लेकिन आत्म ज्ञान की सनातन परम्परा में ये तोतापुरी मेरी जानकारी में सिर्फ़ 1 ही हुये हैं । ये रामकृष्ण परमहँस की युवावस्था का समय था । तब ये तोतापुरी बिहार के आसपास जंगलों आदि में घूमते रहते थे । वहीं इन्होंने सार शब्द मिशन के प्रमुख सन्त अद्वैतानन्द को उनके बचपन में ही ज्ञान दिया था । जिनके मण्डल की शाखायें - दिल्ली । पंजाब । नंगली ( मेरठ के पास ) आनन्द पुर ( ग्वालियर ) आदि बहुत स्थानों पर हैं । यही तोतापुरी रामकृष्ण परमहँस के भी अद्वैत मार्गी ज्ञान के गुरु थे । इनके और प्रसिद्ध शिष्यों के बारे में मुझे जानकारी नहीं । लेकिन मेरे ख्याल से इनके और शिष्य प्रसिद्ध नहीं हुये । या इन्होंने ज्यादा शिष्यों को ज्ञान ही नहीं दिया । तोतापुरी ( के गुरु ) से ऊपर की परम्परा किसी को ज्ञात नहीं है । इन्हीं तोतापुरी के शिष्य - अद्वैतानान्द के शिष्य - स्वरूपानन्द टेरी कोहाट ( सिन्ध प्रांत । अब पाकिस्तान में ) के थे । जिन्होंने उस समय पूरे विश्व में सतनाम का डंका बजा दिया था । इन्हीं को नंगली सम्राट कहा जाता है । नंगली और आनन्दपुर दोनों ही आश्रम लगभग 16 km के दायरे में बसे हुये हैं ।
विशेष - चुणाराम जी के श्रीराम शर्मा से सम्बन्धित प्रश्न का उत्तर और भी  विस्तार से - राजीव जी इतना झूठ मत बोलो । में भी दिया जायेगा । क्योंकि उसका विषय पूर्णरूपेण ऐसा ही होगा ।

27 अप्रैल 2012

कुछ रास्ता बतायें ? मेरी बहन की सहायता करें

मृत्यु का बड़ा भय है । क्या इससे छूटने का कोई उपाय है ?
- मृत्यु तो उसी दिन हो गई । जिस दिन तुम जन्मे । अब छूटने का कोई उपाय नहीं । जिस दिन पैदा हुए । उसी दिन मरना शुरू हो गए । अब 1 कदम उठा लिया । अब दूसरा तो उठाना ही पड़ेगा । जैसे कि प्रत्यंचा से तीर निकल गया । तो अब लौटाने का क्या उपाय है ? जन्म हो गया । तो अब मौत से बचने का कोई उपाय नहीं । जिस दिन तुम्हारी यह बात समझ में आ जाएगी कि - मौत तो होनी ही है । सुनिश्चित होनी है । और सब अनिश्चित है । मौत ही निश्चित है । उसी दिन भय समाप्त हो जाएगा । जो होना ही है । उसका क्या भय ? जो होकर ही रहनी है । उसका क्या भय ? जिसको टाला ही नहीं जा सकता । उसका क्या भय ? जिसको अन्यथा किया ही नहीं जा सकता । उसका क्या भय ?
आशंका है तुम्हें । जिस दुर्घटना की ।
घट चुकी है वह । पहले ही भीतर ।
केवल आएगा तैरकर । गत आगत की सतह पर ।
हो चुका है पहले ही काम । मर गए तुम उसी दिन । जिस दिन तुम जन्मे । जिस दिन तुमने सांस ली । उसी दिन सांस छूटने का उपाय हो गया । अब सांस किसी भी दिन छूटेगी । तुम सदा न रह सकोगे । इसलिए इस भय को समझने की कोशिश करो । बचने की आशा मत करो । बचने को तो कोई नहीं बच पाया । कितने लोगों ने कितने उपाय किए बचने के । तुम पूछते हो - मृत्यु का बड़ा भय है । क्या इससे छूटने का कोई उपाय है ? छूटने का उपाय करते रहोगे । भय बढ़ता जाएगा । तुम छूटने का उपाय करोगे । मौत रोज करीब आ रही है । क्योंकि बुढ़ापा रोज करीब आ रहा है । तुम जितने ही उपाय करोगे । उतने ही घबड़ाते जाओगे । मुझसे तुमने पूछा है । अगर मेरी बात समझ सको । तो मैं तुमसे कहूंगा - मौत को स्वीकार कर लो । छूटने की बात ही छोड़ो । जो होना है । होना है । उसे तुम स्वीकार कर लो । उसे तुम इतने अंतरतम से स्वीकार लो कि उसके प्रति विरोध न रह जाए । वहीं भय समाप्त हो जाएगा । मृत्यु से तो नहीं छूटा जा सकता । लेकिन मृत्यु के भय से छुटकारा हो सकता है । मृत्यु तो होगी । लेकिन भय आवश्यक नहीं है । भय तुमने पैदा किया है । वृक्ष तो भयभीत नहीं हैं । मौत उनकी भी होगी । क्योंकि उनके पास सोच  विचार की बुद्धि नहीं है । पशु तो चिंता में नहीं बैठे हैं । उदास नहीं बैठे हैं कि - मौत हो जाएगी । मौत उनकी भी होगी । मौत तो स्वाभाविक है । वृक्ष, पशु, पक्षी, आदमी । सभी मरेंगे । लेकिन सिर्फ आदमी भयभीत है । क्योंकि आदमी सोचता कि किसी तरह बचने का उपाय हो जाए । कोई रास्ता निकल आए । तुम जब तक बचना चाहोगे । तब तक भयभीत रहोगे । तुम्हारे बचने की आकांक्षा से ही भय पैदा हो रहा है । स्वीकार कर लो । मौत है । होनी है । तो जब होनी है । हो जाएगी । और हर्जा क्या है ? जन्म के पहले तुम नहीं थे । कोई तकलीफ थी ? कभी इस तरह सोचो । जन्म के पहले तो तुम नहीं थे । कोई तकलीफ थी ? मौत के बाद तुम फिर नहीं हो जाओगे । जो जन्म के पहले हालत थी । वही मौत के बाद हालत हो जाएगी । जब तक तुमने पहली सांस न ली थी । तब तक का तुम्हें कुछ याद है ? कोई परेशानी है ? कोई झंझट ? ऐसे ही जब आखिरी सांस छूट जाएगी । उसके बाद भी क्या झंझट ? क्या परेशानी ? सुकरात मरता था । किसी ने पूछा कि - घबड़ा नहीं रहे आप ? सुकरात ने कहा - घबड़ाना क्या है ? या तो जैसा आस्तिक कहते हैं । आत्मा अमर है । तो घबड़ाने की कोई जरूरत ही नहीं । आत्मा अमर है । तो क्या घबड़ाना । या जैसा कि नास्तिक कहते हैं कि - आत्मा मर जाती है । तो भी बात खतम हो गई । जब खतम ही हो गए । तो घबड़ाना किसका ? घबड़ाएगा कौन ? बचे ही नहीं । तो न रहा बांस । न बजेगी बांसुरी । तो सुकरात ने कहा - दोनों हालत में । दोनों में से कोई ठीक होगा । और तो कोई उपाय नहीं है । या तो आस्तिक ठीक । या नास्तिक ठीक । आस्तिक ठीक । तो अमर हैं । बात खतम हुई । चिंता क्या करनी ? नास्तिक ठीक । तो बात खतम ही हो जानी है । चिंता किसको करनी है । किसकी करनी है ? सुकरात ने कहा - इसलिए हम निश्चिंत हैं । जो भी होगा । ठीक है । तुम बचने की कोशिश न करो । मौत तो होगी । लेकिन तुमसे मैं कहना चाहता हूं । मौत तुम्हारी नहीं होगी । तुम्हारा जन्म ही नहीं हुआ । तो तुम्हारी मौत कैसे होगी ? शरीर का जन्म हुआ है । शरीर की मौत होगी । तुम्हारा चैतन्य अजन्मा है । और अमृतधर्मा है । शरीर तो रोज मर रहा है । शरीर की तो प्रक्रिया मृत्यु है । इस शरीर के पार 1 चैतन्य की दशा है । मगर उसका तुम्हें कुछ पता नहीं । तुम वही हो । और तुम्हें उसका पता नहीं । तुम्हें आत्म स्मरण नहीं । यह मत पूछो कि - मौत के लिए हम क्या करें ? इतना ही पूछो कि हमारे भीतर शरीर के पार जो है । उसे जानने के लिए क्या करें ? मृत्यु से बचने की मत पूछो । ध्यान में जागने की पूछो । अगर तुम्हें इतना पता चल जाए कि - मैं भीतर चैतन्य हूं । तो फिर शरीर ठीक है । तुम्हारा आवास है । घर को अपना होना मत समझ लो । और जैसे ही तुम्हें यह बात समझ में आनी शुरू हो जाएगी । तुम्हारे भीतर अपूर्व क्रांति घटित होगी ।
नर ! बन नारायण । स्वर ! बन रामायण ।

और तब तुम अचानक पाओगे । तुम्हारे भीतर जो तुमने नर की तरह जाना था । वह नारायण है । और जो तुमने स्वर की तरह जाना था । वह रामायण है । ओशो
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नमस्ते ! राजीव जी ! आज से 7 वर्ष पूर्व मेरे .........? का .....? राजस्थान हाईवे पर एक्सीडेंट हो गया था । वो मोटर साइकिल से थे । उनके सर में गहरी चोट लगी थी । इसके अलावा हाथों में सारा माँस निकल गया । एक हाथ में तो दो मुख्य नसों के अलावा सभी नसें ख़तम हो गयी थी । ...... हॉस्पिटल जयपुर में 6 माह admit  रहे । उनके सर के 2 ऑपरेशन । जबड़े के  2 -3 आपरेशन । हाथो के ऑपरेशन । व प्लास्टिक सर्जरी । 1 - 2 दूसरे ऑपरेशन भी हुए । आज भी उनकी दवाईयाँ चल रही हैं । जिस जिसने जो जो बताया । वो सब किया । काफी डॉक्टरों को दिखाया । राजस्थान में काफी देवताओं के । माताजियों के । तंत्र मंत्र करने वालो के गये । वो बोलते हैं कि - ये करवाया गया था ( तंत्र मंत्र से )  । इतना सब होने के बाद भी । आज जीजाजी ना तो खड़े हो पाते हैं । ना उठ पाते हैं । बोलने की कोशिश करते हैं । लेकिन समझ में नहीं आता । याददाश्त पूरी है । लेट्रिन पेशाब के लिए भी नहीं बोलते । बिस्तर ख़राब कर देते हैं । सभी काम दीदी ही करती हैं । जैसे कि - खाना खिलाना । गन्दगी साफ़ करना । उनको नहलाना । थोडा घुमाना आदि । आर्थिक रूप से बर्बाद हो चुके हैं । घर में और कोई आदमी नहीं है l  घर में दुकान है । वो दीदी की सास व दीदी मिल कर संभालती है । वो भी अब काफी कम चलती है । कोर्ट केस ( दुर्घटना बीमा वाला ) उसका कुछ पैसा मिला था । उसका आधा अभी ब्लाक है । कोर्ट में उस पर भी रोक लगी हुई है । उसे जीने की चाह नहीं है । लेकिन बालकों के लिए जी रही है ।   वो बहुत दुखी रहती है । बालकों के भविष्य का पता नहीं ।  अब दीदी  भी बीमार रहने लगी है । मानसिक टेंशन रहती है ।  कुछ रास्ता बतायें ? मेरी बहन की सहायता करें । एक पाठक  ।
विशेष - हमारे पाठक के अनुरोध पर परिचय  नहीं दिया गया है । ये कोई सज्जन इंसान हैं । जिन्होंने एक दुखी महिला को बहन मानते हुये दीदी सम्बोधन से पत्र लिखा है । वास्तव में ये इनकी सगी बहन नहीं हैं ।  एक परिचित भर हैं ।
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उत्तर यहीं प्रकाशित होगा ।

25 अप्रैल 2012

आत्म ज्ञानी सन्त ज्ञानेश्वर की गीता व्याख्या के लिंक

आदरणीय राजीव जी  ! जय गुरुदेव की । गीता प्रेस गोरखपुर की सन्त ज्ञानेश्वर का " श्री ज्ञानेश्वर " के नाम से हिन्दी में पुस्तक निकाली है । जो कि 832 page की है । यदि आप कहें । तो मैं उसे लेकर रोज 2-4 page टायप करा के आपको मेल कर दिया करूँ । दूसरा जो internet पर है । वह जल्दी खुल नहीं रहा है । उसका adress लिंक है -
http://www.scribd.com/collections/2817781/Jnaneshwar
और जब तक कुछ नहीं मिल पा रहा । तब तक ये ब्लाग के पाठकों को Dr Kumar Vishvas डा. कुमार विश्वास का कवि सम्मेलन का आनन्द देने की कृपा करें । यदि आप चाहें तो । इसमें कुछ अच्छी बाते भी हैं ।
Thanks
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गाजियाबाद के बहुचर्चित कवि कुमार विश्वास की MP3 फ़ाइल को या ऐसी ही अन्य फ़ाइल को अपलोड करने के लिये मेरे पास opendrive.com/ ( क्लिक करें ) जैसी किसी साइट पर खाता नहीं हैं । इस साइट पर मेरा जो खाता था । वह अष्टावक्र गीता में 1GB स्पेस पूरा होते ही फ़्री स्पेस खत्म हो गया । अब कोई भी MP3 फ़ाइल लिंक पाठको को उपलब्ध कराने हेतु मुझे नया खाता नये नाम से खोलना होगा । और फ़ाइल अपलोड कर उसका कोड पोस्ट में लगाना होगा । तब वह MP3 फ़ाइल पाठकों को सुनने या  डाउनलोड करने को उपलब्ध हो जायेगी । पर ये सब करने के लिये मेरे पास समय नहीं है । यदि आप चाहते हैं । तो इसी साइट पर अपना खाता खोलकर 1GB तक फ़्री डाटा कई फ़ाइलों में डाउनलोड कर उसका embed Code मुझे मेल से भेज सकते हैं । तब मैं उसको पोस्ट में लगा दूँगा ।
बाकी आपने वाकई बेहद महत्वपूर्ण ज्ञानेश्वर गीता की हिन्दी व्याख्या के लिंक की खोज की है । मैंने इस साइट पर सीधे सीधे उन्ही पेजों के लिंक कापी किये । जहाँ ये गीता आदि व्याख्या हिन्दी PDF फ़ाइल में उपलब्ध है । और आप उनको सीधा डाउनलोड भी कर सकते हैं । फ़िर इसके 1 से 18 अध्याय डाउनलोड करना या टायप करना कोई बङी बात नहीं है ।
लेकिन गीता प्रेस की किताब का कोई फ़ायदा नहीं । वह लोग ( वहाँ के टीकाकार आदि ) आत्म ज्ञान के विषय में नहीं जानते । उनकी अधिकांश पुस्तकें द्वैत ज्ञान पर आधारित हैं । वो भी भक्ति भाव में । न कि किसी शोध के अन्दाज में । अतः उसका कोई फ़ायदा भी नहीं । और वैसे भी किसी प्रकाशन की पुस्तक को इस तरह नहीं छापा जा सकता । कुछेक अंशों की बात अलग है । लेकिन ज्ञानेश्वर गीता की व्याख्या छापी जा सकती है । फ़िर वह चाहें । किसी प्रकाशक ने छापी हो । क्योंकि 50 साल से अधिक पुरानी पुस्तकों पर कापीराइट खत्म हो जाता है ।
नीचे 13 वीं सदी के महान आत्म ज्ञानी सन्त ज्ञानेश्वर जी सम्बन्धित लिंक हैं । इन्हें क्लिक करने पर सीधा वही पेज खुलता है । और आराम से खुलता है । मैं आपको बता दूँ । सन्त ज्ञानेश्वर जी आत्मज्ञान के सच्चे और बहुत उच्च स्तर के सन्त हुये हैं । इनके समान भगवत गीता की टीका व्याख्या आज तक कोई नहीं कर पाया । ये बहुत छोटी उमर में शरीर त्याग कर चले गये थे । और सिर्फ़ गीता की व्याख्या करने हेतु ही इस प्रथ्वी पर प्रकट हुये थे । इनका जन्म नहीं हुआ था ।
सन्त ज्ञानेश्वर से सम्बन्धित विभिन्न पेजों की संयुक्त जानकारी देता पेज । इसी लाइन या नीचे वाली पर क्लिक करें ।
http://www.scribd.com/collections/2817781/Jnaneshwar
सन्त ज्ञानेश्वरी गीता हिन्दी अध्याय 1-to-6 इसी लाइन पर या नीचे क्लिक करें ।
http://www.scribd.com/Soham%20Hamsah/d/13571198-Jnaneshwari-Gyaneshwari-Hindi-Chapters-1-to-6
सन्त ज्ञानेश्वरी गीता हिन्दी अध्याय 7-to-12 इसी लाइन पर या नीचे क्लिक करें ।
http://www.scribd.com/Soham%20Hamsah/d/13572021-Jnaneshwari-Gyaneshwari-Hindi-Chapters-7-to-12
सन्त ज्ञानेश्वरी गीता हिन्दी अध्याय 13-to-16 इसी लाइन पर या नीचे क्लिक करें । http://www.scribd.com/Soham%20Hamsah/d/13572653-Jnaneshwari-Gyaneshwari-Hindi-Chapters-13-to-16
सन्त ज्ञानेश्वरी गीता हिन्दी अध्याय 17-18 इसी लाइन पर या नीचे क्लिक करें ।
http://www.scribd.com/Soham%20Hamsah/d/13573452-Jnaneshwari-Gyaneshwari-Hindi-Chapters-17-18
ये  भी सन्त ज्ञानेश्वर जी से सम्बन्धित बहुमूल्य ज्ञान है । इसी लाइन पर या नीचे क्लिक करें ।
http://www.scribd.com/Soham%20Hamsah/d/47168103-%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE
सन्त ज्ञानेश्वर अभंग गाथा इसी लाइन पर या नीचे क्लिक करें ।
http://www.scribd.com/Soham%20Hamsah/d/18944126-Jnaneshwar-Abhang-Gatha-Marathi-
यहाँ पता नहीं क्या है ? ये इसी साइट से खुल गया था । क्लिक करके देखें ।
http://www.here-now4u.de/

24 अप्रैल 2012

मैं बीसवीं सदी का व्यक्ति हूँ

सवाल - आपकी नजर में विज्ञान का भविष्य क्या होगा ?
मैं बीसवीं सदी का व्यक्ति हूँ । और पूरी तरह से जीवंत हूँ । और मैं भविष्य की जरा भी चिंता नहीं करता । न ही मैं अतीत की कोई परवाह करता । मेरा सारा जोर वर्तमान पर है । क्योंकि सिर्फ वर्तमान ही का अस्तित्व है । अतीत अब रहा नहीं । भविष्य आया नहीं । दोनों ही का अस्तित्व नहीं है । वे पैगंबर पागल रहे होंगे । जो भविष्य की चिंता करते थे । वे हमेशा भविष्य की बात करते थे ।
दुनिया में दो ही तरह के पागल लोग हैं । वे जो हमेशा अतीत की बात करते हैं । और थोड़े जो भविष्य की बात करते हैं । अतीत की बात करने वाले लोग इतिहासविद, पुरातत्वविद इत्यादि होते हैं । और जो लोग भविष्य की बात करते हैं । वे पैगंबर, कल्पनाशील, कवि होते हैं । मैं दोनों ही नहीं हूँ । मेरा सारा संबंध इस क्षण से है..अभी. यहाँ ।
मैं पैगंबर नहीं हूँ । लेकिन एक बात मैं कह सकता हूँ । और इसका असल में भविष्य से कुछ लेना देना नहीं है । यह अभी यहीं घट रहा है । लोग अंधे हैं । इसलिए वे देख नहीं सकते । मैं देख सकता हूँ । यह पहले ही हकीकत बन चुका है । बड़ी से बड़ी बात जो हो रही हैं । जो बाद में समझ में आएगी । वह है - धर्म और विज्ञान का मिलन । पूर्व और पश्चिम का मिलन । भौतिकता और आध्यात्मिकता का मिलन । बाह्य और अंतस का मिलन । अंतर्मुखी और बाह्यमुखी का मिलन । लेकिन यह अभी ही हो रहा है । यह भविष्य में विकसित होगा । लेकिन मेरा संबंध वर्तमान से है । और मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि कुछ बहुत ही महान बात होने को है । बीज अंकुरित हो चुका है । तुम इतने अतीत और भविष्य से बँधे हो कि वर्तमान में छोटे से अंकुरण को देख नहीं सकते । यहाँ, तुम्हारी आँख के नीचे । दो विपरीत ध्रुवों का मिलन हो रहा है । विज्ञान अकेला आधा है । और मानव को तृप्ति नहीं दे सकता । यह तुम्हें अधिक बेहतर शरीर दे सकता है । यह तुम्हें अच्छा स्वास्थ्य दे सकता है । लंबा जीवन दे सकता है । यह तुम्हें अधिक भौतिक सुविधाएँ दे सकता है । अधिक विलासिता । मैं इनमें से किसी के खिलाफ नहीं हूँ । मैं दुखवादी नहीं हूँ । मैं किसी भी तरह से उस तरह का मूर्ख नहीं हूँ । लेकिन यह सिर्फ बाहरी दुनिया की चीजें ही दे सकता है । जो कि अपने में सुंदर है । मैं चाहता हूँ कि सभी लोग सुंदर जीवन, आरामदायक जीवन जीएँ । अधिक विलासिता में, अधिक स्वस्थ, अधिक पोषित, अधिक शिक्षित, लेकिन सिर्फ यही सब कुछ नहीं है । यह सिर्फ जीवन की सतह भर है - केंद्र नहीं ।
धर्म केंद्र उपलब्ध करवाता है । यह तुम्हें आत्मा देता है । इसके बिना विज्ञान लाश भर है । एक सुंदर लाश । तुम लाश को रंग रोगन कर सकते हो । तुम लाश को धो सकते हो । और सुंदर कपड़े पहना सकते हो । लेकिन लाश तो लाश ही है । और याद रखो । यही बात धर्म के साथ भी लागू होती है । धर्म अकेला भी पर्याप्त नहीं है । अकेला धर्म तुम्हें भूत बना देता है । पवित्र भूत ! लेकिन यह तुम्हें भूत बना देता है । यदि धर्म भौतिक नहीं बनता है । तो आत्मा परमात्मा की बातें महज एक पलायन है । पूरब में यही हुआ है । हम आत्मा की बहुत ज्यादा बात करते हैं । और हमें जो यथार्थ चारों तरफ से घेरे है । उसे भूल ही गए हैं । हम अंतर्मुखी हो गए हैं । स्व से अत्यधिक बँधे हुए । हम वृक्षों की, पहाड़ों की, और चंद्रमा और तारों की खूबसूरती के बारे में पूरी तरह से भूल गए । पूरब में मानवता कुरूप हो गई । इसके पास केंद्र है । लेकिन परिधि नहीं । सब कुछ केंद्र पर सिकु्ड़ गया । पश्चिम के पास परिधि है । पर केंद्र नहीं । लोगों के पास सब कुछ है । लेकिन कुछ महत्वपूर्ण से चूक रहे हैं । विज्ञान और धर्म एक हो रहे हैं । ये एक हो चुके हैं । मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि वे एक होने वाले हैं । वे एक हो रहे हैं । सभी महान वैज्ञानिक - एडिंग्टन, प्लैंक, आइंस्टिन । विज्ञान जगत के उच्च क्षमता के लोग । इस बात के लिए सचेत हुए हैं कि अकेला विज्ञान काफी नहीं है । यहाँ कुछ और भी अधिक रहस्यपूर्ण है । जो वैज्ञानिक कार्य प्रणाली व संसाधनों से पकड़ नहीं सकते । कुछ भिन्न प्रयास की जरूरत होती है । ध्यान पूर्ण होश की जरूरत होती है ।
एडिंग्टन अपनी आत्मकथा में कहता है - जब मैंने अपने जीवन की शुरुआत एक वैज्ञानिक की तरह की । तो मैं सोचता था कि दुनिया चीजों से चलती है । लेकिन जैसे मैं विकसित हुआ । वैसे वैसे मैं अधिक से अधिक सचेत हुआ कि दुनिया में सिर्फ चीजें ही नहीं होती । बल्कि विचार भी होते हैं ।
यथार्थ विचार के अधिक करीब है । यथार्थ की थाह नहीं पाई जा सकती । उसे नापा नहीं जा सकता । वह कहीं अधिक अधिक रहस्यपूर्ण है । यथार्थ मात्र वस्तु नहीं । बल्कि चेतना भी है । मेरी अपनी दृष्टि यह है कि हमें जोरबा दि बुद्धा का निर्माण करना होगा । जो नया बुद्ध होगा । वह जोरबा दि ग्रीक और गौतम बुद्ध का मिलन होगा । वह सिर्फ जोरबा नहीं हो सकता । और वह सिर्फ बुद्ध भी नहीं हो सकता ।
और इसीलिए मेरा सारा प्रयास है - जोरबा और बुद्ध के बीच सेतु निर्माण किया जाए । स्वर्ग सेतु, या इंद्रधनुषी सेतु, धरती और अनंत के बीच, इस किनारे और उस किनारे के बीच । यह मेरे आसपास घट रहा है । इसे घटते हुए कहीं और तुम देख नहीं सकते ।
यहाँ सभी तरह के वैज्ञानिक हैं । यहाँ कई तरह के वैज्ञानिक हैं । यहाँ पर कवि और संगीतकार, चित्रकार हैं- सभी तरह के लोग, और ये सभी एक साथ एक महान प्रयास के लिए जुटे हैं - ध्यान के लिए । यहाँ सिर्फ एक मिलन का बिंदु है । और वह है - ध्यान । सिर्फ एक बिंदु पर वे मिलते हैं । अन्यथा सभी की अपनी वैयक्तिक यात्रा है । इस मिलन द्वारा अदभुत विस्फोट संभव है । यह यहाँ घट रहा है । जिनके पास आँखें हैं । वे यह घटते यहाँ देख सकते हैं ।
पृथ्वी पर यही एक जगह है । जहाँ दुनियां के सारे देशों के प्रतिनिधि मिलेंगे । हम यहाँ पर रूस के लोगों को चूक रहे थे । और अब मैं यह बताते प्रसन्न हूँ कि रूस से भी लोग यहाँ आ गए हैं । सभी वर्ग यहाँ मिल रहे हैं । सभी धर्म यहाँ मिल रहे हैं । यहाँ पर छोटा सा संसार है । छोटी सी दुनिया । और हम सभी यहाँ पर मानव की तरह मिल रहे हैं । कोई ईसाई नहीं है । हिंदू नहीं है । या मुसलमान नहीं है । कोई नहीं जानता कि कौन वैज्ञानिक है । कौन संगीतकार है । कौन चित्रकार है । कौन प्रसिद्ध अभिनेता है । कोई कहता भी नहीं । एक पूरे तरह का नया विज्ञान निश्चित ही आने वाला है । यह दोनों एक साथ होगा - धर्म और विज्ञान । और तब ही यह पूर्ण हो सकता है । यह अंतस और बाह्य दोनों का विज्ञान होगा । सच तो यह है कि धर्म के दिन पूरे हुए । सिर्फ विज्ञान काफी है । एक ही शब्द से काम चल जाएगा । 'विज्ञान - सुंदर शब्द है । इसका मतलब है - जानना, विवेक ।
विज्ञान को दो श्रेणियों में बाँटना है - विषयगत विज्ञान - रसायन शास्त्र, भौतिकशास्त्र, गणित, इत्यादि इत्यादि । और आत्मपरक विज्ञान । और तब धर्म और विज्ञान को बाँटने की जरूरत नहीं है । और धर्म और विज्ञान का मिलन पहली बार पूर्ण मानव का निर्माण करेगा । अन्यथा मानवता आज तक खंडित रही है । बँटी हुई । विक्षिप्त । विभाजित रही है । मैं संपूर्ण मानव के लिए हूँ । क्योंकि मेरे अनुसार संपूर्ण मानव ही पवित्र मानव हैं । ओशो

22 अप्रैल 2012

सदा संत मतवाला

नई सुबह । नया सूरज । नयी धूप । नये फूल । सोकर उठा हूं । सब नया नया है । जगत में कुछ भी पुराना नहीं है ।
कई सौ वर्ष पहले यूनान में हेराक्लतु ने कहा था - एक ही नदी में दो बार उतरना असंभव है । सब नया है । पर मनुष्य पुराना पड़ जाता है । मनुष्य नये में जीता ही नहीं । इसलिए पुराना पड़ जाता है । मनुष्य जीता है - स्मृति में । अतीत में । मृत में । यह जीना ही है । जीवन नहीं है । यह अर्ध मृत्यु है । और इस अर्ध मृत्यु को ही हम जीवन मानकर समाप्त हो जाते हैं । जीवन न अतीत में है । न भविष्य में है । जीवन तो नित्य वर्तमान में है । वह जीवन योग से मिलता है । क्योंकि योग चिर नवीन में जगा देता है । योग चिर वर्तमान में जगा देता है । उसमें जागना है - जो है । जो था - वह भी नहीं है । जो होगा - वह भी नहीं है । और जो है - वह प्रकट तब होता है । जब मानव चित्त स्मृति और कल्पना के भार से मुक्त होता है । स्मृति मृत का संकलन है । उसमें जीवन को नहीं पाया जा सकता है । और कल्पना भी स्मृति की ही पुत्री है । वह उसकी ही प्रतिध्वनि और प्रक्षेप है । वह सब ज्ञात में भटकना है । उससे जो अज्ञात है । उसके द्वार नहीं खुलते हैं ।
ज्ञात को जाने दो । ताकि अज्ञात प्रकट हो सके । मृत को जाने दो । ताकि जीवित प्रकट हो सके । योग का सार सूत्र यही है - संसार दर्पण है ।
आणा नाचे ताणा नाचे । नाचे सुत पुराणा ।
बाहर खडी तेरी नाचे जुलाही । अन्दर कोई ना आणा ।
हस्ती चढ़ कर ताणा तणीया । ऊंट चडया निर्वाणा ।
घुडले चढ़ कर बणबा लाग्या । वीर छावनी छावा ।
उरद मूंग मत खाए जुलाही । तेरा लड़का होगा काला ।
एक दमड़ी का चावल मंगा ले । सदा संत मतवाला ।
माता अपनी पुत्री ने खा गई । बेटा ने खा गयो बाप ।
कहत कबीर सुणो भाई साधो । रतियन लाग्यो पाप ।

20 अप्रैल 2012

क्षण ! शाश्वत क्षण में छिपा है । और अणु में विराट । अणु को जो अणु मानकर छोड़ दे । वह विराट को ही खो देते हैं । क्षुद्र में ही खोदने से परम की उपलब्धि होती है । जीवन का प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण है । और किसी भी क्षण का मूल्य किसी दूसरे क्षण न ज्यादा है । न कम है । आनंद को पाने के लिए किसी अवसर की प्रतीक्षा करना व्यर्थ है । जो जानते हैं । वे प्रत्येक क्षण को ही आनंद बना लेते हैं । और जो अवसर की प्रतीक्षा करते हैं । वे जीवन के अवसर को खो देते हैं । जीवन की कृतार्थता इकट्ठी और राशिभूत नहीं मिलती है । एक साधु के निर्वाण पर उसके शिष्यों से पूछा गया था कि दिवंगत सदगुरु अपने जीवन में सबसे बड़ी महत्वपूर्ण बात कौन सी मानते थे ? उन्होंने उत्तर में कहा - वही जिसमें किसी क्षण वे संलग्न होते थे ।
बूंद बूंद से सागर बनता है । और क्षण क्षण से जीवन । बूंद को जो पहचान ले । वह सागर को जान लेता है । और क्षण को जो पा ले । वह जीवन पा लेता है - ओशो ।
लेकिन कल तो कभी आता नहीं । जब भी आता है । आज ही आता है । कल भी आज ही आएगा - ओशो ।
तेरे इश्क की खुशबू में खोया खोया सा रहता हूँ ।
मुझे सब लोग छेड़ते रहते हैं कि मे सोया सोया सा रहता हूँ ।

ज्ञानी हमेशा चुप और शांत होता है । वह पूछने पर या जरुररत पर ही बोलता है । वह ज्ञानी के साथ ज्ञानी होता । और मूर्ख के साथ मूर्ख हो जाता है । बच्चों के साथ बच्चा हो जाता है । जवान के साथ जवान होता है । वह किसी भी रंग में अपने को रंग देता है । वही ज्ञानी और योगी है ।
जब वो शरीर में थे । तब भी लोग चूक गए थे । और अब भी चूक रहे हैं । आगे भी बुद्ध होंगे । और चूकेंगे । ये संसार का शाश्वत नियम है ।
हाजिर की हुज्जत गये की तलाशी - इसी को कहा है ।
जो होश पूर्वक जीता है । उसे किसी गुरु की जरुरत नहीं पड़ती है । 
ख़याल रहे । इस पूरी प्रथ्वी के इतिहास में जितने गुरु अपनी जिन्दगी 
में बुद्ध ने बनाये । और किसी ने नहीं बनाये । कोई गुरु पार नहीं लगा पाया । अंत में खुद का ही होश काम आया । इसीलिए तो बुद्ध ने खुद जानकर कहा - कोई तुम्हे कुछ नहीं दे सकता । मैं भी नहीं - अप्पो दिप्पो भव । एस धमो सनन्तनो । सत्य ही सनातन है । सत्य ही शाश्वत है ।

19 अप्रैल 2012

सुमरन कर ले मेरे मना तेरी बीते उमर हरि नाम बिना

अब आगे - मैंने अक्सर ही ये बात कही है । योग और परमात्मा को आपने हौवा बना दिया है । बहुत दूर की बात बना दिया है । जबकि यही आपकी असली बात है । अपनी चीज भी है । वास्तविक स्वस्थ = स्व + स्थ । इसी को कहा जाता है । योग के पारिभाषिक शब्द में खास इसको स्वरूप दर्शन कहा जाता है । स्वरूप = स्व + रूप । आपके अपने ही रूप ( या  रूपों ) का दर्शन होना । तब योग स्थिति में जो कुछ भी आप देखते हैं । वह आपका अतीत भविष्य और वर्तमान ही होता है ।
जी हाँ ! SCIENCE के तरीके से आप MATTER की आंतरिक क्रियाओं को समझने लगते हैं । फ़िर योग बहुत सरल हो जाता है । और साधारण मनुष्य से लेकर बहुत छोटे बच्चे और पशु पक्षी भी किसी न किसी स्तर किसी % पर योग करते हैं । कैसे ? मैं आपको समझाता हूँ ।
चलिये । आँखें बन्द कर लीजिये । अब बाहर का दिखाई देना बन्द हो गया । लेकिन आँखों के ठीक सामने एक परदा अब भी है । और वो आपको स्पष्ट 


दिख रहा है । लेकिन इससे बात कुछ ज्यादा समझ में नहीं आयेगी । तब आप यूँ समझें । बहुत गहरी नींद और सामान्य - आधी नींद और आधा जागरण । इनमें क्या अन्तर है ?
बहुत गहरी नींद । जिसमें आपको कोई होश हवास नहीं रहता । आपकी स्वतः होने वाली मगर अपरिचित योग की श्रेष्ठ तुरियातीत अवस्था है । जबकि स्वपन वत स्थिति आपकी विकल्प योग अवस्था है । वास्तव में इस शरीर में किसी भी अवस्था में आप योग मय ही हैं । योग से वियोग होते ही उसी क्षण शरीर की मृत्यु हो जायेगी । लेकिन बात इतनी ही है । वह आपकी जानकारी में नहीं है । इसलिये आप उसके अधिकारी नियंत्रण कर्ता आदि नहीं हैं । एक उदाहरण देता हूँ । एक डाक्टर वकील पुलिस वाले को उनसे सम्बन्धित कोई समस्या आ जाती है । तो वो समस्या का कारण निदान सब जानते हैं । इसलिये समस्या उनके लिये कोई परेशानी पैदा नहीं करती । पर आम आदमी की रातों की नींद दिन का चैन उङा सकती है । क्योंकि वह उसका अधिकारी नहीं है ।  जबकि उपरोक्त पदासीन लोगों के रोज के खेल । दिनचर्या । इंगलिश में - routine .
तब एक बात सोचिये । स्वपन में भी सब कुछ इसी संसार जैसा ही है । तुम भी । और संसार भी । बस वो आपके लिये स्पष्ट नहीं है कि - ये सब क्यों हैं । क्या है ?
कल के लेख - राजीव की रहस्यमय दुनियाँ ..में मैंने जो भी वर्णन किये । वह सभी नीचे लोकों के ही हैं । मैं बता चुका हूँ । प्रथ्वी गुदा से थोङा ऊपर और लिंग योनि से थोङा नीचे यानी गुदा और लिंग योनि के बीच स्थित है । अतः कल वर्णित लोक यहीं मुश्किल से एकाध इंच के पास ही हैं ।
अगर आपने शास्त्रों को कभी गौर से पढा हो । तो उसमें आता है । विराट पुरुष के रोम रोम में अनेकों खण्ड बृह्माण्ड स्थित हैं । रोम रोम समझते हैं आप ? शरीर के अनगिनत छिद्र । जिनमें रोम यानी बाल निकलते हैं । और मनुष्य शरीर और विराट पुरुष की रचना same हैं । तब आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं । इसलिये समझिये । अभी आप नाभि तक भी  नहीं आये । लिंग या योनि स्थान तक भी नहीं आये । क्योंकि यहाँ बृह्मा का लोक है । लेकिन ऊपर चलने से पहले आपको एक बार नीचे के लोकों के बारे में और बता दूँ । जहाँ आप बेल्ट बाँधते हैं । उससे नीचे दोनों ही पैरों में अँधेरे लोक । नीचे लोक । और सजायाफ़्ता जीवात्माओं के लिये लोक है । लगभग घुटने तक । इनमें (  सजा पाये ) निवासियों की संख्या बहुत कम होती हैं । और ये आकार में भी तुलनात्मक बहुत छोटे होते हैं । इनमें SEX आदि भी नहीं है । वनस्पतियाँ भी नहीं हैं । जैसे कोढी आदि होने की सजा पाये लोक में कोढी जीव निश्चित समय तक नियम अनुसार  फ़्री स्टायल घूमते

रहते हैं । ऐसी ही अन्य सजायें । घुटने से नीचे जल सृष्टि या जलीय लोक आरम्भ होने लगते हैं । और पैर के पंजे और उँगलियों पर तो अथाह जलराशि है ही । ध्यान रहे । ये अखिल सृष्टि जल में निर्मित स्थापित है । और तमाम बृह्माण्ड और उनके ग्रह लोक आदि इसमें गेंदों की तरह तैर रहे हैं । हालांकि आपको सूर्य जैसे तारे के बारे में सोचकर ये बात हजम नहीं होगी । अटपटी भी लगेगी । पर उस बिज्ञान को समझना आसान नहीं है । और समझा देने से आप इसके बैज्ञानिक बनने वाले भी नहीं । लेकिन एक उदाहरण देना ठीक है । हिरण्याक्ष ने प्रथ्वी को पाताल में छुपा दिया था । और बराह अवतार इसको अपनी थूथनी पर रख कर वापस जल के ऊपर लाया था । जाहिर है । इससे प्रथ्वी के तुलनात्मक अथाह जलराशि की सहज कल्पना की जा सकती है । जिसमें एक छोटी गेंद के समान प्रथ्वी कहीं खो सी गयी थी ।
योग में विभिन्नता क्रिया के अन्तर से लगती है । पर वास्तव में जब योग होना आरम्भ होता है । तब वो  क्रिया

एक ही हो जाती है । फ़िर चाहे योग - भाव पूजा । तंत्र से । या मंत्र से । या कुण्डलिनी । या हंस ज्ञान । या आत्म भाव में किया जाये । मूल क्रिया 1 ही होगी । क्योंकि दूसरी है ही नहीं ।
चलिये । सबसे पहले घरेलू पूजा की बात करें । आपने पूजा आरती वगैरह की । सुगन्धित धूप बत्ती आदि से आपका मन शान्त हो गया । मानसिक उपद्रव कुछ देर को शान्त हो गये । आप भी शान्ति महसूस करने लगे । अब आप मौन ही तो हैं । सिर्फ़ भाव में । कोई मंत्र नहीं । कोई आरती नहीं । कोई कुछ भी नहीं । बस एक शान्ति सी । स्वस्थ = स्व + स्थ । तंत्र मंत्र भाव पूजा के तुलनात्मक थोङा बैज्ञानिक हो जाता है । लेकिन उसकी भी स्थूल बाह्य क्रियायें पूर्ण होते ही बाद की स्थिति वही होगी । मौन अज्ञात में घटित होता इच्छित पदार्थ । अब 


क्योंकि यह तरीके और तकनीक से किया गया है । इसलिये प्राप्ति और अनुभव का % भाव पूजा के तुलनात्मक काफ़ी अधिक हो जाता है । कुण्डलिनी जैसा महायोग साधारण लोगों के नसीब में नहीं होता । दरअसल नीचे की पढाई किसी भी रूप में आपको पूरी करनी ही होगी । तभी आप यहाँ तक आ पायेंगे । इसलिये कुण्डलिनी के आवेश विलक्षण होते हैं । कुण्डलिनी साधना की A B C D ही दिव्यता से शुरू होती है । यदि किसी के अन्दर ये योग सक्रिय है । तो फ़िर वो सामान्य पुरुष स्त्री नहीं । बल्कि देवत्व श्रेणी का छात्र है । बस उसको इसको पढना और उत्तीर्ण करना है । लेकिन कुण्डलिनी के आवेश में भी किसी सिद्ध मंत्र या बीज मंत्र या तत्व मंत्र के स्थूल जप के बाद सूक्ष्म जप स्वतः होने लगता है । और फ़िर साधक उसी धारा में स्थित हुआ सिर्फ़ जानता है । देखता है । उसे करना कुछ नहीं होता । बस अनुभव इसके अलग स्तर के  होंगे । और आपके वांछित क्षेत्र के होंगे । इसलिये महत्वपूर्ण शब्द MATTER का बिज्ञान ठीक से समझें । फ़िर समझना आसान होगा । कुण्डलिनी के बेहद शान्त और अति हाहाकारी भी अनुभवों

के इतने प्रकार होते हैं कि - उन सभी का वर्णन असंभव सा ही है । आप योग के स्तर के अनुसार शरीर से भी निकल सकते हैं । स्वयं के ही दो या चार शरीरों में भी हो सकते हैं । किसी भी स्थान पर पल भर में पहुँच सकते हैं । किसी को बुला सकते हैं । अतीत में जा सकते हैं । भविष्य का निर्मित हो चुका चित्र अपनी क्षमता अनुसार देख सकते हैं । उचित होने पर किसी क्रिया को बदल सकते हैं । रोक भी सकते हैं । नयी क्रिया भी कर सकते हैं । यहाँ तक कि अनुचित कार्य भी कर सकते हैं । ये आपको मुक्त प्रयोग की छूट देता है ।
लेकिन ध्यान रहे । अगर आप मुक्त रूप से प्रयोग करते हैं । तो उस परिणाम का पूरा उत्तरदायित्व आपका ही  होगा । उस प्रयोग के सभी MATTER का निचोङ निकाल कर आपको सजा या पुरस्कार प्राप्त होगा । आप कार्य कर सकते हैं । पर उसका परिणाम हमेशा सत्ता और उसके कानून के अनुसार ही होगा । ये एक बङी वजह है । जिससे देवता बनने गये लोग राक्षस बन जाते हैं । और राक्षसी प्रवृति की चाह रख कर जुङे देवत्व को प्राप्त हो जाते हैं । जबकि अधीन भाव से कार्य करने वाले गलती हो जाने पर परिणाम के जिम्मेदार नहीं होते । उनसे गलती हो जाने पर प्रकृति देवी का बिज्ञान विभाग उस गलत हो गये MATTER को सही कर देता है । क्योंकि आप जानते ही हो । पढाई और प्रयोग में गलतियाँ सफ़लतायें असफ़लतायें निश्चित ही होती हैं ।
कुण्डलिनी का जागरण या ध्यान अवस्था । आपको सीधा ऊँचे आकाश में उठाता है । आसमानी नीला तारों से झिलमिलाता शान्त स्वच्छ मनमोहक खुला अंतरिक्ष । आपको 


महसूस होगा । एक पूर्ण शुद्धता purity. जैसे आपने पहली बार महसूस की हो । स्वच्छ वातावरण में ली गयी सांस कैसी होती है ? इससे पहले आप कभी नहीं जान पायेंगे । आपके फ़ेफ़ङे सीना दिलोदिमाग एक अनोखी ताजगी और स्फ़ूर्ति का अनुभव करते हुये भर उठेंगे । ध्यान टूटने के बाद भी ये प्रभाव बहुत समय तक रहेगा । आपका दिल यही करेगा । किसी चिङिया की तरह पंख फ़ैलाकर आकाश में उङ जाऊँ ।
जी हाँ ! आपको अन्दर से ये भाव स्थिर स्थित हो चुका होगा । आप आराम से ऐसा कर सकते हैं । हो सकता है । एक बार की यात्रा में ही आपको दुनियाँ फ़ीकी रसहीन घिनौनी और बेरंग लगने लगे । तीनों बन्द लगाय के अनहद सुनो टंकोर । सहजो सुन्न समधि में नहिं सांझ नहिं भोर । नाम खुमारी नानका चढी रहे दिन रात । फ़िर ये नशा उतरने वाला नहीं ।
परमहँस ज्ञान की बात गोपनीय और बेहद उच्च स्थिति वालों के लिये होती है । अतः उसका जिक्र नहीं करूँगा । 


जब हँसा परमहँस हो जाये । पारबृह्म परमात्मा साफ़ साफ़ दिखलाये । समझ गये ।
कुण्डलिनी के बाद हँस ज्ञान ध्यान की बात करते हैं । जहाँ परमहँस ध्यान साधना बेहद कठिन है । ऐसी तैसी मार देता है । वहीं हँस सबसे सरल योग ध्यान है । घरेलू भाव पूजा से भी सरल । तंत्र मंत्र कुण्डलिनी तो इसके देखे बहुत कठिन हैं । लेकिन हँस ज्ञान जो घरेलू स्तर का गृहस्थ टायप इंसान नामदान लेकर करता है । वो वास्तव में उनका नाम जप कमाई या असली पूजा है । जो उनके खाते में जमा होती रहती है । अभी ये ध्यान या साधना नहीं है । सच्ची हँस दीक्षा का सबसे बङा लाभ 84 लाख योनियों की जेल से मुक्ति । अगला मनुष्य जन्म निश्चित । और समृद्ध और भक्ति ज्ञान युक्त अगले जन्म की गारंटी । आपको इसी

जन्म में हो जाती है । लेकिन कुछ गलतियाँ होने पर इसके side effect काफ़ी भयंकर हैं । क्योंकि हँस ज्ञान सीधा सीधा बिजली है । कायदे से उपयोग किया । तो सुख ही सुख । वरना मौत । और फ़िर अनन्त कल्पों का रौरव नरक । और महा रौरव नरक । क्यों ? मूढता । मनमुखता । गुरुद्रोह । जलन । ईर्ष्या । छल । कपट आदि भावों से ये ध्यान करने पर वैसा ही  MATTER तैयार हो जाता है । कबिरा हरि के रूठते गुरु के शरने जायें । कह कबीर गुरु रूठते हरि नहीं होत सहाय । किसी भी शक्ति की । किसी लोकपाल की ताकत नहीं । इस जीव को पनाह दे । तब इसे महा रौरव नरक में फ़ेंक दिया जाता है । वहाँ से अनन्त समय के बाद ये पहले जङ जीव वृक्ष पहाङ । फ़िर नीच योनियाँ । फ़िर नीच मनुष्य । फ़िर उच्च मनुष्य । फ़िर राक्षस । फ़िर यक्ष गंधर्व देव आदि योनियों को पार करके । फ़िर 84 । फ़िर मनुष्य । तब इसका शुद्धिकरण होकर  यदि भक्ति में प्रवृत हुआ । तब मोक्ष का अवसर बनता है ।
आपको परमात्मा की भक्ति के इस परिणाम पर आश्चर्य हो रहा होगा । तब कबीर आदि आत्म ज्ञानी सन्तों को पढें । शास्त्रों को पढें । कोई पुलिस कमाण्डों का अध्ययन प्रशिक्षण ले चुका इंसान यदि अपनी भावना से आतंकवादी बने । या मानवता के विरुद्ध कार्य करें । तो उसकी उपलब्धियाँ भी उसे दण्डनीय बना देती हैं । अतः मैंने कहा । कुल MATTER से क्या बन रहा है ? इसे ठीक से समझें ।
हँस योग में कुछ नहीं करना । गुरु आपकी स्वांसों में गूँजते नाम को जागृत करके बृ्ह्माण्डी लाक नामदान के समय ही खोल देते हैं । आपको सांसो के आवागमन को पूर्ण एकाग्रता से आँखें बन्द कर देखते रहना । सुनते रहना है । यदि सही क्रिया सीख गये । तो दस मिनट में आप इस दुनियाँ से उस दुनियाँ में पहुँच जाते हैं । यह दीक्षा अखिल सृष्टि का परमिट लायसेंस होता है । आप कहीं भी जाईये । आपको पूरा सम्मान और मान्यता दी जाती है । आज इतना ही । फ़िर मिलते हैं । TA,TA

18 अप्रैल 2012

राजीव की रहस्यमय दुनियाँ

इससे पहले की कथा सुननी है । तो इससे पहले का लेख - इस दुनियाँ में इससे आनन्दित कुछ नहीं । पढें ।
...यहाँ भी बात वही है । आपकी पात्रता । और आपके गुरु की स्थिति । पर ज्यादातर साधक यहाँ डर ही जाते हैं । क्योंकि तांत्रिक बङे खतरनाक होते हैं । यहाँ आपको गन्दे स्थान और अजीव से सामान सजाबट अधिक देखने को मिलेगी । यहाँ भी अमीरी गरीबी देखने को मिलेगी । विभिन्न जगह तंत्र क्रियाओं का अनुष्ठान भी होता मिलेगा । तांत्रिक आपको कैद करने के लिये कई प्रयास भी करेंगे । बात वहीं बार बार आयेगी । गुरु की पोजीशन क्या है ?
मैंने खास तांत्रिक लोकों को बहुत घूमा है । क्योंकि मैं स्पष्ट कर दूँ । इससे पूर्व ( जन्म ) की मेरी योग यात्रा में तांत्रिक रुझान खासा था । यहाँ जाने का सीधा मतलब है - पंगा । अपने आपको सिद्ध करो । जैसा कि किसी कट्टर तालिबानी इलाके में अकेले फ़ँस गये हों । ये लोग आक्रमण के लिये तलवारें कुल्हाङी आदि भी रखते हैं । पर साधक घबरायें न । वे आपका कुछ नहीं बिगाङ सकते । दरअसल योग की ये खासियत है कि साधारण साधक जिस भी लोक में जायेगा । उसी लोक अनुसार उसका सूक्ष्म शरीर हो जायेगा । और तब वे आपको अपरिचित समझते हैं । और आपको उस सब घनचक्कर के बारे में 


कुछ पता नहीं होता । इसलिये साधक अक्सर घबरा जाते हैं । अगर वे आप पर किसी प्रकार का घात करेंगे भी । ठीक उसी समय ध्यान भंग हो जायेगा । लेकिन हठ योग वाले बिना गुरु वाले उनकी पकङ में आ जाते हैं । और कैद हो जाते हैं । इन्हीं लोगों की उसी समय या कुछ बाद में मृत्यु हो जाती है ।
अलबत्ता तांत्रिक स्त्रियाँ अलग प्रकार की होती हैं । अगर आप भाग्यवश ऐसे किसी स्थान पर पहुँच गये कि सीधे ही कोई तांत्रिक स्त्री आपको मिल गयी । तो वो सिर्फ़ एक ही काम में अधिक इंट्रेस्टिंड होगी । आपसे SEX करने को । अक्सर उनके कमरों में रहस्यमय लाल मद्धिम प्रकाश और किसी जङी के धुँयें की लगभग बदबू सी खुशबू अवश्य ही मिलती है । ऐसे अंतर्लोकों में औपचारिकता का कोई झंझट नहीं होता । कोई दुआ सलाम नहीं । कोई बहन जी भाभी जी नहीं । बस गिराओ । और शुरू हो जाओ । इसका एक और भी रहस्य होता है । एक समर्थ गुरु दो कारणों से यहाँ अंधेरा करके इस स्थिति को बिना दिखाये ही जल्दी से 

क्योंकि ये क्रिया स्त्री पुरुष दोनों साधकों के साथ ही लगभग निश्चित होती है । हरेक जीव का किसी न किसी स्तर पर पूर्व ( या जन्म ) में तंत्र से जुङाव रहता ही है । तो वो उनके जमा कारण संस्कार भी कटते हैं ।


निकाल देता है । 1 साधक को SEX में रुचि होने जाने के कारण उसका ध्यान वहाँ अटक सकता है । और योग रुक जायेगा । क्योंकि वो सोचेगा । फ़िर वो ही करूँ । पर वो कारण खत्म हो चुका होगा । 2 कोई अच्छे संस्कार का योग बिज्ञान से अपरिचित साधक सोच सकता है - ये कैसी भक्ति है ? कोई भृष्ट गुरु लगता है । क्योंकि इस स्थिति में लगभग 1 महीने तक निरन्तर कहीं न कहीं सम्भोग स्थिति बनती हैं । और प्रतिदिन ही वीर्य स्खलित होता है । आप समझ सकते हैं । तब अलग अलग दिमाग के इंसान पर विपरीत असर भी पङ सकता है । इसलिये हम ऐसे स्थानों पर अंधेरा कर देते हैं । और साधक को सिर्फ़ किसी कामुक सपने की अनुभूति होती है । योग में उसकी रुचि बनी रहे । एकाध बार झलक भी दिखा देते हैं । संस्कार बहुत मामूली होने पर फ़ास्ट फ़ारवर्ड की तरह उसे आगे बढा भी देते हैं । ये सब कुछ गुरु पर निर्भर करता है । पर इतना तय है । तांत्रिक लोकों में घूमना किसी रोमांचक भूतिया थ्रिलर एक्शन मूवी का अहसास कराता है । अच्छी तांत्रिक स्त्रियाँ मिल जायें । फ़िर तो कहने ही क्या हैं ? इसीलिये तमाम अज्ञानी साधक यहीं फ़ँस जाते हैं ।
यह अनुभव किसी जङ समाधि और कच्चे योग के समान होता है । इसमें शरीर पर नियंत्रण नहीं होता । और क्रिया पूरी हो जाने पर ही साधक आवेश से बाहर आता है । तब तक वह घबराये । या कुछ भी करे । एक तरह की तरंगों में कैद सा रहता है । आप समझ सकते हैं । अगर डूबने का डर लगा रहे । तो आदमी कभी तैरना नहीं सीख सकता । बच्चा भी चलना सीखने से पहले दस बार गिरता है । अतः किसी खतरनाक तिलिस्म की
कल्पना न कर लें । ये योग की साधारण और अनिवार्य घटनायें हैं ।
मैंने एक चीज और देखी है । योग में आंतरिक सेक्स के अनुभव होते ही स्त्री पुरुष बङी रुचि से योग अभ्यास करते हैं । और फ़िर बङे झिझकते हुये बताते हैं - ऐसा अनुभव होना कुछ गलत तो नहीं ?
- कुछ गलत नहीं । मैं जबाब देता हूँ - दरअसल अन्दर जो भी प्रत्यक्ष होगा । वो तुम्ही हो । तुम्हारी खुद की ही पूर्व वासनायें हैं । क्योंकि सब कुछ तुम्हारे अन्दर ही तो घट रहा है ।
वास्तव में यही वो मुख्य कारण हैं । जिससे प्रत्येक साधक के योग अनुभवों में अंतर होता है । क्योंकि सभी की वासनायें अलग अलग ही होती हैं ।
चाहे तांत्रिक लोक हों । अन्य कोई भी लोक । या अदृश्य सत्ता के लिये कार्य करने वाले विभिन्न प्रशासनिक लोक । मैंने एक चीज वहाँ खास देखी । इस प्रथ्वी की तरह बेडौल शरीर के स्त्री पुरुष कहीं नहीं होते । और प्रायः मोटे या बहुत दुबले सूखे तो हरगिज नहीं होते । और ऐसा भी नहीं । सभी बहुत सुन्दर पुष्ट ही होते हों । अक्सर सामान्य शरीर सामान्य अंगों वाले स्त्री पुरुष होते हैं । हाँ काले  गोरे अवश्य होते हैं ।
इसका कारण यही है । यहाँ पहले के कर्म फ़ल के अनुसार आपको यह शरीर मिलता है । और मनुष्य शरीर कर्म प्रधान होने के कारण आप फ़िर से पतले को मोटा । मोटे को पतला । कुरूप को सुन्दर । और सुन्दर को कुरूप भी कर सकते हैं । सब कुछ आपके हाथ में हैं । जबकि वह सभी शरीर आपके संचित पुण्य पाप के आधार पर मिलते हैं । इसलिये स्थिर होते हैं । उसमें कोई बदलाव नहीं हो्ते ।
जिस प्रकार संसार के बाजार में । भीङ में कोई स्त्री पुरुष आपको बहुत आकर्षित करता है । कोई कम । और कोई सामान्य । और किसी की तरफ़ निगाह भी नहीं जाती । और किसी को देखने से ही घिन आती है । आपने कभी सोचा । ऐसा क्यों ? ANS - MATTER . जी हाँ ! आपके अन्दर के गुण । चरित्र । तेज । रूप । व्यक्तित्व । आभा आदि MATTER से आपका एक आकार बनता है । वह आकार कितना प्रभावशाली है ? बस वही आकर्षण के % का कारण होगा ।
ठीक यही बात आंतरिक लोकों में भी है । इसलिये - अंधेर नगरी चौपट राजा । टके सेर भाजी टके सेर खाजा ..वाला हिसाब मत सोच लेना कि जो भी जाता है । उसकी बल्ले बल्ले ही हो जाती है । यही अमीरी गरीबी । सुन्दर असुन्दर आदि सभी भेद भाव वहाँ भी है । आप सोच रहे होंगे । अन्दर पैसा शरीर तो जाता ही नहीं । फ़िर ?
जी नहीं ! आपका संचित पुण्य । तेज । चरित्र । भक्ति भाव । दृणता आदि सभी MATTER की आभा वहाँ आपको

अमीर या गरीब सुन्दर असुन्दर बनाती है । आपकी योग स्थिति वहाँ आपको पावर फ़ुल या कमजोर या सामान्य बनाती हैं । ये भी एक कारण हैं । जिससे साधकों के अनुभव में भारी भिन्नता होती है ।
नहीं फ़िर आप मुझसे शिकायत करो - राजीव जी ! तो कह रहे थे । अप्सरा - हाय हेंडसम बोलेगी । ये तो शटअप ब्लडी फ़ूल बोल रही है । और ये भी मत सोच लेना । आप वहाँ अन्दर चले गये । तो आपने कोई बहुत बङा तीर मार लिया । वहाँ आप जैसे पर्यटक लाखों की संख्या में 24 घण्टे अंतरिक्ष के विभिन्न स्थानों से आते रहते हैं । हालांकि इस सबको सही स्थिति में जानने समझने के लिये बहुत गहन अभ्यास की आवश्यकता है । ये सब विलक्षण अनुभव सिर्फ़ उन्हीं के हिस्से में आते हैं । योग ही जिनका  full time job है । मेरे जैसे । बीबी न बच्चे । बस पहनने को दो ही कच्छे ।


- इंटरवल ।

17 अप्रैल 2012

इस दुनियाँ में इससे ज्यादा आनन्दित कुछ नहीं

नमस्कार राजीव जी ! कैसे हैं आप ? मैं आपको बहुत ही दिनों बाद यह मेल कर रहा हूँ । कुछ दिनों से थोडा व्यस्त चल रहा था । इन्टरनेट पर काम नहीं कर पा रहा था । परन्तु मैं आपका ब्लॉग नियमित रूप से देखता रहता हूँ ।
मैंने एक वीडियो देखी । youtube पर देखी । आप भी ये  वीडियो देखना चाहें । तो कृपया इसी लाइन पर क्लिक करें
http://www.youtube.com/watch?v=L4thsq2m0ic
इस वीडियो को देखकर मैं बहुत ही आकर्षित हुआ । और मुझे लगा कि - अगर इस वीडियो को देखकर  इतना अच्छा फील कर रहा हूँ ।  तो अगर यह रियल में अनुभव करूँ । तो शायद इस दुनियाँ में इससे ज्यादा आनन्दित कुछ नहीं होगा ।
मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि जो इस वीडियो में दिखाया गया हैं । वो क्या सच में होता है ? अगर यह सच में होता है । तो कृपया करके आप विस्तार से समझायें । मेरा कहने का मतलब हैं कि - अंतर की यात्रा के बारे में थोडा डिटेल में समझायें । यानि जब हम ध्यान में बैठते हैं । तो शुरू से अंत तक क्या क्या होता है ?

अगर आपने अपने  ब्लॉग में पहले से बताया हुआ है । तो मुझे कृपया उसका लिंक दे दीजिये । मुझे आपके उत्तर का इंतज़ार रहेगा ! कृपया उतर ब्लॉग में प्रकाशित करें । धन्यवाद ।  राज गुजरात से ।
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प्रिय राजीव जी ! नमस्कार ।
ये मौत की हंडिया दरअसल मैंने भी देखी है । अपने बचपन में । मैं 2 महीने की छुट्टियों में नानी के घर विष्णु गार्डन । दिल्ली में रहने गया था । वही एक दिन छत पर । मैंने शाम को सूरज ढलने के बाद । लेकिन कुछ प्रकाश अवश्य था । तब छत पर देखा था । इस हंडिया में छेद थे । जिससे आग नजर आ रही थी । और वो 


घूमती हुई एक दिशा की तरफ जा रही थी । तब मेरी उमृ शायद 7-8 साल की ही होगी । इस बारे में जब मैंने अपनी नानी को बताया । तो उन्होंने मुझे डाँटा । और कहा कि - मुझे उस तरफ नहीं देखना चाहिये । मैं इस बात को मानता हूँ । क्योंकि मैंने उसे देखा है । अशोक दिल्ली से ।
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- किसी भी ध्यान अवस्था या इस तरह के अलौकिक अनुभव मुख्यतः 3 प्रकार से होते हैं । ये तीनों वास्तव में हैं तो उसी supreme power से ही । पर कृमशः नीचे की स्थितियों में इनका तरीका बदल जाता है । जैसा कि आपने कहा - विस्तार से उत्तर दूँ । सच तो ये है कि अलौकिकता के किसी भी विषय पर मेरे जैसा इंसान यदि लिखेगा । तो पूरा एक मोटा ग्रन्थ ही लिख जायेगा । रामायण बाइबिल गुरु ग्रन्थ साहब और कुरआन आदि से भी बङा । इसलिये संक्षेप में सार सार और सूत्र कहकर उसकी थोङी सी व्याख्या ही हो पाती है ।
तो अगर यह रियल में अनुभव करूँ । तो शायद इस दुनियाँ में इससे ज्यादा आनन्दित कुछ नहीं होगा - अब मुझे वह बात तो याद नहीं आ रही । पर ऐसी ही - अगर या यदि ? आपने पहले भी लगा कर मुझे बर्रैया लगा दीं थी ।


तुलसी रामायण में ही लिखा है - नाम रूप दोऊ अकथ कहानी । समझत सुखद न जात बखानी ।
इसका मतलब समझाऊँ आपको - परमात्मा का वह आकाश महा आकाश में स्वतः और निरन्तर झंकृत होता नाम । जिसे कृमशः नीचे मनुष्य से 1 सोहं ( स्वांस या चेतन धारा । अन्दर देखना । दुनियाँ के परदे से अतिरिक्त भी अदृश्य को देखना  ) 2 निरंकार ( आकाशीय स्थिति का आनन्द । पक्षी की तरह उङना ) 3 रंरकार ( चेतन शक्ति और माया । यानी प्रकृति के विभिन्न खेल देखना । साक्षी होना ) 4 बृह्माण्ड की चोटी ( सुन्न घाटी । महासुन्न मैदान आदि के रोमांचक अनुभव ) 5 सचखण्ड ( अनुपम दिव्य सुगन्ध । और विभिन्न आत्मिक अनुभव । आत्मिक शब्द पर गौर करें । 


इससे नीचे के अनुभव जीव आत्मिक थे ) 6 फ़िर इससे ऊपर बहुत सी आनन्ददायी स्थितियाँ हैं । इनके बीच में भी बहुत सी स्थितियाँ हैं । जो छोटे लेख में बताना संभव नहीं ।
तो ये था । निर्वाणी अजपा आकाशीय नाम का कमाल । जो दोहे में कहा गया है । अब जैसा कि नानक कबीर आदि ने कहा है - शब्द ई धरती शब्द अकाशा । शब्द इ शब्द हुआ प्रकाशा । यानी इसी शब्द की सत्ता से इस सारी रचना का निर्माण हुआ है । नानक ने कहा है - बोदा नशा शराब का उतर जाये परभात । नाम खुमारी नानका चढी रहे दिन रात । मतलब ये सहज योग है । सहज समाधि । एक बार मिल जाने पर ये खुद ब खुद अक्सर होती ही रहती है । पहले तो आवै नहीं । और आवै तो जावै नहीं । बस ये सहज समाधि आती जरा देर से । और प्रयास से

है ।
अब नाम की बात मैंने स्पष्ट कर दी । अब रूप ? की बात समझें । नाम की जिस स्थिति में साधक की पहुँच हो गयी । वहाँ का रूप ( स्थिति ) उसे दर्शनीय होगा । लेकिन तुलसी कहते हैं - ये अकथ ( यानी कही न जा सके ) स्थिति है । इसलिये समझने में सुखद है । बखान करना बङा मुश्किल है । इस स्थिति को राजीव बाबा ने ऐसे कहा है - रूप तेरा मस्ताना । प्यार मेरा दीवाना । भूल कोई हमसे ना हो जाये ।
दरअसल प्रत्येक साधक की इस अगम अपार में इतनी स्थितियाँ बनती हैं कि - वर्णन करना मुश्किल है । दूसरे एक महत्वपूर्ण बात और भी है । सन्तों ने जान बूझ कर भी अधिक वर्णन नहीं किया है । क्योंकि तब साधक के मन में धारणा बन जायेगी । अब ऐसा ही मेरे साथ भी होगा । इससे उसके योग में प्रगति के बजाय बाधा अधिक आयेगी । क्योंकि हो सकता है । उसके संस्कार अधिक निर्मल और भक्तिमय हों । तब वह किसी स्थिति को राकेट की भांति सूँऽऽऽऽ करता हुआ पार हो सकता है । इसलिये सन्त धारणा बनाने से बचे हैं ।
अब आईये । फ़िर ऊपर की बात पर आते हैं । 1 विभिन्न मंत्र साधक मंत्र जप आदि में आवेश के बाद ऐसी किसी भी स्थिति का अनुभव करते हैं । वह अधिक स्थूल और कच्ची स्थिति कच्चा ज्ञान माना जाता है । इसमें शरीर में कंपन । शरीर में वेग से धारायें सी दौङना । कोई गोली कंचा टायप का बाडी में घूमते हुये अनुभव होना । भौंहों में अंटा लगा सा महसूस होना । भूत प्रेत जिन्न चुङैल डाकिनी शाकिनी कर्ण 


पिशाचिनी वेताल या तांत्रिक मांत्रिक लोगों का दिखाई देना आदि आदि कुछ भी हो सकता है । इसके पीछे बिज्ञान यह होगा । उस अनुष्ठान के दौरान साधक का क्या matter बना । तब पर्यावरण क्या था ? यानी आपने जगह बाँधी । कोई सेफ़्टी की या नहीं ? क्रिया विधिवत वेद या शास्त्रोक्त ढंग से की । या मनमाने तरीके से । या फ़िर उल्लू के ठप्पे स्टायल में मूढता से । मंत्र और मिलती जुलती अन्य साधनायें लगभग ऐसे ही अनुभव देती हैं ।
2 कुण्डलिनी यानी मायावती भाभी के जलवे । वही मेरी अष्टांगी डार्लिंग का खेल । जादू । इसको दूसरे शब्दों में द्वैत योग ज्ञान भी कहते हैं । इसमें तो इतने लफ़ङे हैं । घनचक्कर हैं कि आदमी पागल ही हो जाता है । संसार में जितने भी बाबा दिखते हैं । इसी का झाङन पोंछन करके हुआ फ़ेंकन समेटते रहते हैं ।

और वो भी आम लोगों के लिये बङा दैवीय बङा चमत्कारी होता है ।
लेकिन इसके बङे स्तर के योगी गम्भीर होते हैं । आम पब्लिक के सम्पर्क में नहीं आते । गिने चुने शिष्य होते हैं । जिनसे कङा बरताव और कङे अनुशासन का व्यवहार किया जाता है । इसके सबसे टाप मास्टर श्रीकृष्ण बाबा । और फ़िर नीचे बहुत से गोरख । मंछदर । सौभरि । तैलंग आदि आदि कोई गिनती ही नहीं है ।
3 सबसे टाप यानी supreme power यानी अद्वैत । इससे  तो मेरा पूरे ब्लाग ही भरे पङे है । इसलिये आईये । आपके मूल प्रश्न पर बात करते हैं ।
अगर आप ओशो बाबा के सतसंग के शौकीन हैं । तो कृपया इस लाइन पर क्लिक करें ।
http://oshosatsang.org/
अब अगर मैं अपने स्तर से बात करूँ । तो यही कहूँगा - OH GOD ! ऐसा किसी के साथ न हो । क्योंकि द्वैत और अद्वैत का संगम बहुत ही विलक्षण केसों में हो पाता है । और इसमें बहुत डरावनी स्थितियाँ बन जाती हैं । लेकिन यदि साधक इनको झेलता हुआ जीवित बच गया । तो फ़िर वह बहुत मजबूत भी हो जाता है । इसलिये प्रायः मेरी जैसी स्थितियाँ बहुत कम नगण्य देखने में आती हैं । अधिकांश लोगों की मौत हो जाती है ।
प्रायः सभी का ध्यान किसी एक तरीके से शुरू नहीं होता । शुरूआत बङी कठिन और उबाऊ होती है । कभी बहुत 


देर बैठने पर कुछ सेकेण्ड के लिये दूधिया प्रकाश दीख गया । कभी कभी निचले आसमान दिख गये । और इनके साथ ही सबसे प्रारम्भ की गन्दी सी लोकेशन वाली पहाङी । उस पर मंडराते चील कौवे जैसे पक्षी अक्सर दिखते हैं । ये ठीक वैसा ही दृश्य होता है । जैसे शहर से बाहर कोई गन्दे नाले के पास पहाङी वगैरह देख रहे हों । इसी स्थिति में कभी कभी गुरु का प्रकार दूसरा होने पर ये न दिख कर एक प्रकाश shade fade जैसी स्थिति में उसी प्रकाश के मध्य विभिन्न फ़ूल पत्ती दिखते हैं । ध्यान रहे । ऐसे अनुभव होने पर समझ लें । आपका गुरु अधिकतम त्राटक स्तर का है । और ज्ञान बिलकुल  A B C D स्तर का है । अगर इतना भी नहीं होता । तो वो गुरु है । या कचरे का डिब्बा ? आप खुद ही समझ लेना ।
इससे कुछ बङे स्तर के गुरु होने पर ये सब झंझट नहीं होगा । आप लगभग सीधे ही पहले आसमान में होंगे । सच्चे गुरु का प्रमाण पत्र रूपी दीक्षा ( जो अदृश्य मोहर के रूप में लगी होती हैं ) आपके पास होगी । और आपको सुन्दर भूमियाँ अपने संयम ( यानी ध्यान में न चौंकना । और निष्क्रिय से शान्त रहना ) अनुसार समय तक देखने को मिलेंगी । यहीं से अन्दर की रामलीला शुरू हो जाती है । यानी ज्यादातर बहुत छोटे स्तर के दिव्य लोग मिलना शुरू हो जाते हैं । रामलीला मैंने इसलिये कहा । क्योंकि उनके सिल्की टायप आरेंज कलर के वस्त्र लगभग उसी तरह के होते हैं । जैसे धार्मिक सीरियलों में वस्त्र

होते हैं । बहुत से पागल इन्हीं को - प्रभु प्रभु ! कह कर हाथ पांव जोङने लगते हैं । जबकि ये अंतर लोकों की पब्लिक जैसे होते हैं । यहाँ बेहद निम्न स्तर की दिव्य युवतियाँ भी मिलती हैं । जो साधारण स्तर के साधकों में कोई रुचि नहीं लेती ।
लेकिन आपका स्टेयरिंग भावना भाव अनुसार थोङा दाँये बाँये घूम गया । तो आपकी गाङी तांत्रिक लोकों प्रेत लोकों अंधेरे लोकों में भी जा सकती हैं । इनमें तांत्रिक लोक अपने नाम के अनुसार ही रहस्यमय विचित्र बनाबट के और खतरनाक लोगों से भरे होते हैं ।
- क्योंकि पेज बङा हो रहा है । आगे का विवरण इसी लेख के दूसरे भाग में । 

16 अप्रैल 2012

hallo scientist

कभी कभी जब भारतीय लोग मुझसे पूछते हैं - भूत प्रेत होते हैं ? तब मैं बङा आश्चर्य में पङ जाता हूँ । लेकिन उससे भी ज्यादा आश्चर्य  तब होता है । जब बहुत लोग पूरे confidence से कहते हैं - अरे ! भूत प्रेत जैसा कुछ नहीं होता । सब बकबास । लगभग बहुत सी बातों में भारतीयों का ये confidence मुझे हैरान करता है । चाहे उस विषय की A B C D न मालूम हो । पर किसी भी विषय पर पूरे confidence से ही बात करते हैं । मानों Ph.D कर रखी हो ।
खैर..छोङिये । मैं एक बात सोच रहा था । इस तरह की उत्सुकता के मामले में अमेरिका यूरोप आदि देशों का नजरिया हमसे आगे हैं । लेकिन बस उनको एक बात की सनक ज्यादा सवार है । जो भी चीज देखेंगे । science के दृष्टिकोण से ही  देखेंगे । वही भौतिक बिज्ञान ।.. आध्यात्म बिज्ञान या योग बिज्ञान जैसी कोई चीज होती भी है । शायद वे सोच नहीं पाते । शायद जान नहीं पाते । लेकिन मैं उनकी गलती भी नहीं मानता । जब भी वेद उपनिषद आदि भारतीय धर्म ग्रन्थों में वर्णित perfect yoga science के प्रति आकर्षित होकर वे इसकी खोज में भारत आये । हरिद्वार बनारस आदि जैसे किसी स्थान पर लंगोटा बाबाओं से टकरा गये । और लगभग खाली हाथ लौटे । कुछ भटकते  भटकते मथुरा वृंदावन जैसे स्थानों पर पहुँच गये । और हरे रामा हरे कृष्णा की बीन बजाने लगे । असली बात ही भूल गये ? हम क्यों आये थे । फ़िर भी yes i repeat फ़िर भी अलौकिकता को जानने के मामले में उनकी उत्सुकता लगन और परिश्रम सराहनीय है । मंगल चाँद पर जाने की कल्पना ।

वहाँ पर बसने की कल्पना । और उसके प्रयास लगभग सभी जानते हैं ।
लेकिन अफ़सोस इस बात का भी है कि - उनके ये सपने कभी सच नहीं होंगे । दरअसल उनकी theory वास्तविकता से एकदम भिन्न है । अब चाँद को लीजिये । वे वहाँ पानी जीवन रहने आदि के अवसर तलाशते हुये खोज रहे हैं । जबकि सब कुछ खोजा हुआ तैयार रखा है । भारतीय धर्म ग्रन्थों में । चाँद । एक पुरुष । उसकी पत्नियाँ । उसका परिवार । उसके अन्य सम्बन्ध । सभी कुछ फ़ुल डिटेल में । पूरा विवरण विस्तार से मौजूद है । कुछ भी नहीं खोजना । हाँ चाँद पर जीवन भी है । पानी भी है । सब कुछ है । पर वह सूक्ष्म जीवन है । micro life । अदृश्य । यही बात सूर्य पर । मंगल पर । अन्य पर । और सबसे बङी बात - प्रथ्वी पर भी लागू होती है । जी हाँ । इसे सिर्फ़ मिट्टी जल गैसों आदि का एक बङा गोला पिण्ड न समझें । ये बाकायदा स्त्री रूप देवी भी है ।
फ़िर पहले वाली बात करते हैं । दरअसल MODERN SCIENCE में जो भी प्रयोग और विकास आप देखते हो । मेरा मतलब । अंतरिक्ष और अलौकिकता को जानने के सम्बन्ध में । यह सब भी ईश्वरीय सत्ता की मर्जी से ही होता है । अब पूछिये । इसके फ़ायदे क्या हैं ? जब वो सफ़ल ही नहीं होगा ।

इससे आप प्रथ्वी और प्रकृति के बहुत से रहस्य कृमशः जानने लगते हो । उदाहरण देखें । भले ही NASA की  दूरबीन अंतरिक्ष में राजीब बाबा को नहीं देख पायी । पर उसी technique से कृतिम उपग्रहों पर लगे कैमरों आदि से प्रथ्वी पर क्या क्या  सुविधायें उपलब्ध हुयीं । भले ही कोई राकेट किसी एलियन को बैठाकर आज तक नहीं लौटा । पर राकेट की तकनीक ने वैमानिकी आदि की प्रगति में क्या क्या योगदान दिया । दूसरे परमाणु आदि अन्य कार्यकृमों से कम खर्च में जीवन की अन्य दूसरी सुविधाओं में भारी बढोत्तरी हुयी । यूँ कह सकते हैं । किसी दूसरे उद्देश्य को लेकर किया गया कार्य दूसरी जगह के लिये सफ़ल हो गया ।
यूँ तो दुनियाँ में गजल गो बहुत हैं । पर गालिब का अंदाज ए बयां कुछ और ही है की तर्ज पर मैं अक्सर एक बात

सोचता हूँ । जो कि सुरति शब्द बिज्ञान के अनुसार मुझे असमंजस में डालती है । क्योंकि फ़िर जो बात होनी चाहिये । वो क्यों नहीं होती ? इन लोगों के साथ । दरअसल जब भी कोई इंसान बहुत गहरायी से किसी चीज पर सोचता है । तो उसकी सुरति उधर ही जाने लगती है । और तब उसके रहस्य प्रकट होने लगते हैं । उधर की यात्रा अनजाने में ही आरम्भ हो जाती है । इस बात का कोई मतलब निकालने से पहले बैज्ञानिकों की गहन सोच । या अंग्रेजों आदि की तीवृ उत्सुकता को ध्यान में रखना । मेरा मतलब उतना ‍% होने पर ।
और मैंने इसका उत्तर भी तलाश कर लिया । ऐसा क्यों नहीं होता ? सर्वप्रथम - माँसाहारी होना । जीव हत्या में प्रवृति । क्योंकि इससे तमोगुण की वृद्धि होती है । 


जो आत्म उत्थान की बजाय । आत्म पतन करता है । दूसरे भौतिकवाद पर अधिक विश्वास होना । जो हो । सो प्रत्यक्ष ही होना चाहिये । तीसरे सब कुछ बाहर ही खोजने की सनक । अन्दर की सोचते तक नहीं । खोज के ही मानेंगे । आदि आदि ऐसे कारण हैं । जो खुद उनके लिये रुकावट बन जाते हैं । वरना निश्चय ही वे अन्दर की तरफ़ जाने लगें ।
अब थोङा भारतीय लोगों की इस मामले में पात्रता पर बात करें । इनकी समृद्ध परम्परा इनका समृद्ध आध्यात्म बिज्ञान इनके पूर्वज आदि सभी कुछ इस बात को निश्चित कर देते हैं । मृत्यु क्के बाद फ़िर जीवन । आत्मा । ईश्वर । स्वर्ग । नरक । कर्म योग । भक्ति योग आदि सब कुछ  सिद्ध है । बल्कि वो कैसे है ? इसकी स्पष्ट theory भी लिखी मौजूद है । फ़िर भी इनके कान पर जूँ तक नहीं रेंगती । श्रीमान ! मैं उसी उत्सुकता के बिन्दु पर बात कर रहा हूँ । पश्चिमी देशों के पास ऐसा सोचने ऐसी भावना का कोई ठोस आधार नहीं हैं ।  ये उनकी परम्परा भी नहीं है । ये उनकी संस्कृति भी नहीं 


है । पर हम तो जीवन की पहली सांस भी भक्ति के पर्यावरण में लेते हैं । आप समझ रहे हैं ना । फ़िर तुलनात्मक हममें वह उत्सुकता क्यों नहीं ? जबकि मजे की बात है । परलोक के लिये हमारी सारी ही कोशिशें स्वर्ग प्राप्त करने की होती हैं । और हम इसके प्रति इतने आश्वस्त भी हैं कि - अपने किसी के भी मर जाने पर उसे सीधा स्वर्ग ही भेज देते हैं । शोक सन्देश में - स्वर्गवासी हुये । अखबार उठावनी में - स्वर्गवासी हुये । पहले तो यही समझ में नहीं आता । जब दुनियाँ की कांय कलेश से निकल कर आदमी स्वर्गवासी  हो गया । तो ये शोक सन्देश हुआ । या हर्ष सन्देश हुआ । बहुत खुशी की बात हुयी ना ? ना ?? हाँ ! शोक सन्देश ये यूँ हो सकता है । हम जाने कब मरेंगे ? जब हम भी स्वर्गवासी होंगे ? सोचिये क्या होना चाहते हैं आप - स्वर्गवासी ? या वाकई confidence है - ताऊ स्वर्ग ही गयो ।

खैर..छोङिये । भारत महान की महानता कम शब्दों में बताना संभव नहीं है । इसलिये फ़िर बात अंग्रेजों की ही करते हैं । इसलिये देखिये । कुछ अंग्रेज विद्वानों की मान्यतायें ।


- हम अपने दिमाग का 1% से भी बहुत कम उपयोग कर पाते हैं । इसको सरलता से समझने में यूँ भी कह सकते हैं । हमारी पहुँच दिमाग के बहुत ( बहुत ही कम ) कम भाग में है । यदि हम पूरे दिमाग का उपयोग कर पायें । तो बहुत से रहस्य जान सकते हैं ।
- हम दिमाग के सिर्फ़ बायें हिस्से का ही उपयोग करते हैं । जबकि दाँयें हिस्से में अपार संभावनायें छुपी हुयी  हैं । विलक्षण प्रतिभाशाली लोगों के दिमाग का दाँया भाग सक्रिय पाया गया ।
- बैज्ञानिकों ने डिजटिल (  ध्वनि रूप । लय में । निरन्तर बजने वाली काफ़ी समय की आडियो फ़ाइल ) ॐ..ऽऽ ॐ..ऽऽ को अपनी क्षमता अनुसार अंतरिक्ष में विभिन्न तरीकों से प्रक्षेपित किया है । स्थापित किया है । ( अज्ञात अनजान सभ्यताओं के लिये ) सन्देश रूप में भेजा है । ताकि कभी किसी को प्राप्त हो । तो वो हमसे सम्पर्क करें । क्या आपको पता है ? वर्षों से ऐसे कई अंतरिक्ष केन्द्र प्रतीक्षारत है कि प्रथ्वी से इतर किसी सभ्यता किसी जीवन से कोई सम्पर्क हो । सन्देश मिले ।
- संक्षेप में और भी तरह के अंतरिक्ष यान इस प्रकार के विभिन्न खोजी अभियानों पर लगे हुये हैं । अक्सर जाते ही रहते हैं ।
अब देखिये । मैं बताता हूँ कि - ये समस्त अभियान अपने असल उद्देश्यों में क्यों नहीं सफ़ल होंगे ।


दिमाग - सरलता से समझें । हमें ये लगता ही है कि दिमाग हम नियंत्रित कर रहे हैं । वास्तव में जीव ( सामान्य मनुष्य ) अवस्था में दिमाग ही हमें नियंत्रित कर रहा है । इसलिये ये बात ही लगभग उलटी हो जाती है कि हम दिमाग के बहुत कम हिस्से में जा पाते हैं । वास्तव में हमें वहाँ से command मिलती है । और हम विभिन्न कार्य करते हैं । मनुष्य की गति अधोगति ( नीचे की ओर ) है । और दिमाग में जाने के लिये ऊर्ध्वगति ( ऊपर की ओर ) होना आवश्यक है । ये सिर्फ़ योग और ध्यान की क्रिया से संभव है । जबकि आप उसमें पारंगत भी हों ।
- एक और भी दिक्कत है । जीव ( मनुष्य ) के विचरण के लिये इस बाडी में बहुत थोङा परिपथ circuit ही खोला गया है । बाकी सभी लाक्ड है । इसलिये आप आँखों से ( भौंहों से नीचे ) से लेकर नाभि तक के गिने चुने स्थानों पर ही आते जाते हो । कहाँ - गले में । ह्रदय में । और नाभि में । इसी भाग को पिण्ड कहते हैं । लिंग योनि क्षेत्र । और कमर से पैरों के प्रारम्भ होने से लेकर नीचे पैर की उँगलियों तक भी आपकी पहुँच नहीं । आँखों से ऊपर भी आपकी कोई पहुँच नहीं । मेरा मतलब आप वहाँ सिर्फ़ देख सकते हैं । जा नहीं सकते ।  समझें । हम आसमान को देख तो सकते हैं । पर बिना साधन उपाय जा नहीं सकते । जबकि प्रथ्वी पर हम कहीं भी बिना अतिरिक्त उपाय जा सकते हैं । क्योंकि वो हमारी पहुँच में है । उतना मनुष्य के लिये तय भी है इसलिये । तो जब आँखों से ऊपर का हिस्सा लाक्ड ( भौंहों के मध्य । बृह्माण्डी द्वार ) ही है । तो जाने का कोई सवाल ही नहीं । और यही पर 3rd EYE भी है । क्योंकि ऊपर  3rd EYE और 3rd ear ही काम आता है ।


ॐ ध्वनि भेजने की बात - इस पर तो मुझे बहुत ही हँसी आती है । दरअसल इलावृत ( प्रथ्वी ) के बैज्ञानिक नहीं जानते । अंतरिक्ष में कई स्थानों पर ऐसे zone हैं । जहाँ ॐ सोहं जैसे बीज मंत्र स्वयं ही गूंज रहे हैं । बहुत सी ध्वनियाँ । कल्पनातीत । अब यहाँ एक मजे की बात । point की बात देखें । आपने कभी सोचा है कि हम जो बातचीत करते हैं । विभिन्न अन्य loud ध्वनियाँ तरह तरह से करते हैं । ये आखिर कहाँ जाती हैं । कहाँ विलीन होती हैं । नष्ट कैसे होती हैं ? अगर ये सब वातावरण में ही फ़ैली रहती । तो जीवन एक दिन चलना मुश्किल हो जाता ना ? इनकी दो गतियाँ हैं । विभिन्न इच्छित मनुष्य अंतकरणों में record हो जाना । और बाह्य रूप से ये सब आकाश ( फ़िर आगे महा आकाश आदि ) में जाती हैं । वहाँ जिस शब्द की गूँज ( vibration ) से ये सब उत्पन्न हो रही हैं । उसी में नष्ट हो जाती हैं । तो ऐसे ॐ ..गणपत बाप्पा मोरया । झूलेलाल का वहाँ क्या मतलब हुआ ?
अब चलिये मान लेते हैं । आपके द्वारा भेजी वह ध्वनि क्योंकि निरन्तर हो रही है । इसलिये बीच में कोई catch कर ले । पर वो कोई कौन ? मैंने पहले ही बताया । आपकी जितनी फ़्लायटें उङती हैं । उससे हजारों गुना लाखों गुना विकसित बिज्ञान के विमान अंतरिक्ष में निरन्तर उङते ही रहते हैं । वे आपके ॐ को  सुनकर क्या करेंगे ? भेजते तो शकीरा बेबी का न्यू सोंग भेजते । दूसरे वे आपसे क्या सम्पर्क करेंगे । जबकि हमेशा से उनकी पचासों फ़्लायट रोज ही earth पर लैंडिंग करती हैं । अपने विभिन्न कार्यों से । आपसे भी सम्पर्क करते हैं । ऐसी बात नहीं । पर तब । जब उसके बाद आप किसी को बता ही नहीं पाते - चल भाई ! बहुत हुआ । बहुत मस्ती कर ली । अब तेरा खेल खत्म । लो जी हो गया सम्पर्क । अब अनुमान लगाना

। कितने लोगों का रोज ही सम्पर्क होता होगा ? है कोई आयडिया ?
हाँ ! बैज्ञानिकों की एक बात तथ्य पर आधारित है । किसी दूसरी प्रथ्वी के लोग ? पर भईया ! ये दूसरी प्रथ्वी ( या प्रथ्वियाँ ) आपकी पहुँच से इतनी दूर हैं कि - न तो कभी आपका ॐ वहाँ जा पायेगा । और न ही कोई अंतरिक्ष यान । क्योंकि अंतरिक्ष के रास्तों के बीच बीच में black hole जैसे तमाम दुष्ट और तमाम अन्य स्थान ऐसे हैं । जो यान की ऊर्जा सोख लेंगे । खत्म कर देंगे । यान को ही नष्ट कर देंगे । क्योंकि यान धातुओं से ही तो बना है । और वे धातुओं को ही गलाने पर उतारू हैं । अब बोलो क्या करोगे ? बोलो बोलो ?
चलिये आपका यान किसी तरह इन सब बातों को चकमा देकर किसी  दूसरी प्रथ्वी तक पहुँच भी गया । तो क्या पता । वे भले आदमी अभी नंगे ही घूम रहे हों । मतलब वहाँ आदि मानव युग चल रहा हो । अब मैं आज एक बहुत महत्वपूर्ण बात बैज्ञानिकों को बताता हूँ । यदि वे समझ पायें तो ? इस अखिल सृष्टि का नक्शा । map । आपने डाक्टर की दुकान पर टंगा वो कलेंडर कभी  देखा है । जिसमें अन्दर से भी नंगे आदमी के उर्जे पुर्जे खास कर नसें नाङियाँ लाल और नीले कलर में दिखाई गई होती हैं । यहीं है - अखिल सृष्टि का नक्शा । जो नीली लाल नाङियाँ हैं । ठीक यही तो बृह्माण्डी रास्ते हैं । लेकिन उस पुराने कलेण्डर के जमाने गये । आजकल किसी जीवित आदमी को Magnetic resonance imaging ( M R I ) गुफ़ा में डाल दो । उससे भी अधिक स्पष्ट नक्शा विभिन्न एंगल से घुमा फ़िराकर 3D देखो ना ।


चलिये नक्शा जान गये । अब मैं आपको ये भी बता देता हूँ । आपका हवाई जहाज इस नक्शे में किस हवाई अड्डे से उङेगा ? आप मल और मूत्र ( नक्शे में देखें । या फ़िर अपनी बाडी में ही देख लें ) जहाँ से करते हैं । इन दोनों के बीच एक स्थान है । मल स्थान । विभिन्न नर्कों में जाने का द्वार है । बस इससे ठीक ऊपर लिंग योनि की ओर ( बीच में ) आपकी प्रथ्वी है । यहीं से आपका अंतरिक्ष यान उङता है । अब ले जाइय़े । किस ओर ले जाना है ?
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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326