श्री राजीव जी ! मैंने आपका ब्लाग पढा । मुझे बहुत पसन्द आया । मैं आपको अपने बारे में बताना चाहता हूँ । मैं अलमोङा से हूँ । जो कि उत्तराखण्ड में है । इस वक्त मैं मुम्बई में काम करता हूँ । मेरा law of karma में बहुत विश्वास है । मैं जितना कोशिश हो सके । अपने कर्म को सही रखना चाहता हूँ । पर मेरी life style और मेरा कर्म मुझे selfish होने में मजबूर करता है । एक को पकङो । तो दूसरा हाथ से निकल जाये । अब मुझे life बहुत बेईमानी सी लगती है । मुझे कुछ भी गलत करके पैसा नहीं कमाना है । पर इस शहर में पैसा ही सब कुछ है । मैं किसी को hurt नहीं करना चाहता हूँ । पर मैं आजकल बहुत परेशान हूँ ।
मैं बचपन से enlightened को सत्य और अपनी जिन्दगी का लक्ष्य बना कर चला हूँ । पर अब ये सब मुझे बहुत परेशान करता है । ना मैं अपना काम ठीक से कर पाता हूँ । ना ही साधना । मैं क्या करूँ ? मेरी सहायता कीजिये ।
*********************
निरंजन धन तुम्हरो दरबार । जहाँ न तनिक न्याय विचार ।
रंगमहल में बसें मसखरे । पास तेरे सरदार । धूर धूप में साधो विराजे । होये भवनिधि पार ।
वेश्या ओढे़ खासा मखमल । गल मोतिन का हार । पतिवृता को मिले न खादी । सूखा ग्रास अहार ।
पाखंडी को जग में आदर । सन्त को कहें लबार । अज्ञानी को परम बृह्म । ज्ञानी को मूढ़ गंवार ।
सांच कहे जग मारन धावे । झूठन को इतबार । कहत कबीर फकीर पुकारी । जग उल्टा व्यवहार ।
निरंजन धन तुम्हरो दरबार । जहाँ न तनिक न्याय विचार ।
झूठा खेल खिलाङी सच्चा - एक ही प्रश्न का उत्तर कई भावों कई पहलूओं से दिया जा सकता है । पर कोई न कोई स्थान ऐसा अवश्य है । जहाँ इसका ( या हरेक का ) पूर्ण नियन्त्रण मौजूद है । इसी प्रथ्वी का उदाहरण लीजिये । प्रथ्वी पर कितने ही भयानक बम विस्फ़ोट क्यों न करते रहिये । इसका सन्तुलन बिगङने वाला नहीं है । क्योंकि आपके विस्फ़ोट की तुलना में यह बहुत मजबूत है । इसलिये अधिक से अधिक हल्का सा डगमगा कर रह जायेगी । लेकिन ..लेकिन यदि आप इसके धुर ( केन्द्र ) को जानते हैं । और वहाँ तुलनात्मक बहुत कम ठोस चोट मारते हैं । तो इसका पूरा खेल ही उलट पलट हो जायेगा । इसका पूरा नक्शा ही बदल जायेगा । समस्त ऋतुयें समस्त व्यवहार ही परिवर्तित हो जायेगा । ध्यान रहे । बैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं ।
प्रथ्वी के उदाहरण से आपको समझने में दिक्कत महसूस हो सकती है । इसलिये साइकिल कार ट्रक जैसी चीजों के उदाहरण से आसानी से समझिये । साइकिल कार आदि में आपके बहुत से हिस्से क्षतिगृस्त हो गये हों । या हो ही न । जैसे सीट । पैडल आदि बहुत से पुर्जे । वाहन चलता रहेगा । लेकिन इसका धुर यानी केन्द्र । पहिये का एक्सल यदि गङबङ है । तो वाहन बेकार हो जायेगा ।
आगे बात और भी स्पष्ट करने से पहले कबीर साहब द्वारा आपका उत्तर देते हैं - निरंजन धन तुम्हरो दरबार । जहाँ न तनिक न्याय विचार ।
यह त्रिलोकी सत्ता के राष्ट्रपति भाई कल्लूराम जी उर्फ़ कालपुरुष उर्फ़ निरंजन महोदय का खेल प्रपंच है । जो सिर्फ़ आपको ही नहीं । सभी को व्यथित करता है । देखा आपने । कबीर साहब स्पष्ट कह रहे हैं । तेरे दरबार ( राज्य ) में न्याय नीति नहीं है । यहाँ मसखरे ( चाटुकारिता टायप स्वभाव के पुजारी । जो आपने देखे होंगे । मोटी तोंद वाले । महन्त । मण्डलाधीश । बिना जाने समझे । भांङ स्टायल में जय जय हो करने वाले ) यह राजमहल जैसे सुख को प्राप्त है । अर्थात इस कल्लू को ऐसे ही चाटुकार पसन्द हैं ।
लेकिन धूल और धूप का कष्ट सच्चे साधुओं भक्तों को सहन करना होता है । ( जबकि सच्चे लोगों का आदर सम्मान सुविधायें आदि देनी चाहिये कि नहीं ? ) ऐसे कष्टों में वे भक्ति करते हुये इस संसार सागर से पार हो जाते हैं ।
वैश्यायें ( या उस जैसे स्वभाव की स्त्रियाँ ) मोतियों के हार और बहुमूल्य वस्त्र धारण करती हैं । जबकि पतिवृता को फ़टी खादी और सूखी रोटी नसीब होती है । पाखण्डी टायप के साधुओं बाबाओं का संसार में आदर है । और सच्चे संतों को लवार ( झूठा बकबादी आदि ) समझा जाता है । अज्ञानी को परम बृह्म माना जाता है । और वास्तविक ज्ञानी को मूर्ख गंवार । यही सच्ची बात कह दो । तो ये दुनियाँ के लोगों को इतनी बुरी लगती है कि वे मारने को दौङ पङते हैं । उदाहरण बहुत से हैं - कबीर । नानक । रामकृष्ण । ईसा । मुहम्मद । तबरेज । मंसूर आदि नामों से भरे पङे हैं ।
लेकिन जो वास्तव में झूठे ही हैं । उन्होंने सदा आदर ही पाया । ये तो कभी भी किसी भी समय आराम से देखा जा सकता है । इसलिये कबीर साहब ने लाख की एक बात कह दी - जगत का व्यवहार ही ठीक उलटा है ।
- छोङो कबीर को । कुछ भी कहते रहते थे । A B C D तक पढे नहीं थे । और खुद को ज्ञानी समझते थे । लगता है मेरी दुकान बन्द करवा कर ही मानेंगे । अब आप 21century के famous कम्प्यूटर बाबा राजीव की बात सुनो ।
selfish यानी स्वार्थी । यदि आपने यही बात ओशो से कही होती । तो वो निश्चित ही आपको शाबासी देते । मजबूर नहीं । बनो selfish । फ़ुल selfish हो जाओ । स्वार्थी = स्व - अर्थी । बङा कमाल का है ये स्वार्थी होना । स्वयं के लिये अर्थ युक्त होना । इसलिये पूरे पूरे स्वार्थी बनो । मैं आपको यही सलाह दूँगा ।
श्रीकृष्ण कहते हैं - अर्जुन यदि तू सोचता है कि तू इन्हें मारेगा । तब तू पूरी तरह गलत है । ये तो मेरे ( उनके कर्मों से ) द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं । इसलिये तू सोच ही मत कि ये अच्छा बुरा तेरे द्वारा होगा । तू सिर्फ़ इसका निमित्त मात्र है । और भी देखिये ।
कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपन कीन्ह । जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह ।
कैकय राज की लड़की नीच बुद्धि कैकेयी ने बड़ी ही कुटिलता की । जिसने रघुनंदन राम और सीता को सुख के समय दुख दिया ।
भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी । कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी ।
भयउ बिषादु निषादहि भारी । राम सीय महि सयन निहारी ।
वह सूर्य कुल रूपी वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी हो गई । उस कुबुद्धि ने सम्पूर्ण विश्व को दुखी कर दिया । राम सीता को जमीन पर सोते हुए देखकर निषाद को बड़ा दुख हुआ ।
बोले लखन मधुर मृदु बानी । ग्यान बिराग भगति रस सानी ।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।
तब लक्ष्मण ज्ञान । वैराग्य । और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले - हे भाई ! कोई किसी को सुख दुख का देने वाला नहीं है । सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं ।
जोग बियोग भोग भल मंदा । हित अनहित मध्यम भृम फंदा ।
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू । संपति बिपति करमु अरु कालू ।
संयोग ( मिलना ) वियोग ( बिछुड़ना ) भले बुरे भोग । शत्रु । मित्र । और उदासीन । ये सभी भृम के फंदे हैं ।
जन्म । मृत्यु । सम्पत्ति । विपत्ति । कर्म । और काल । जहाँ तक जगत के जंजाल हैं ।
धरनि धामु धनु पुर परिवारू । सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू ।
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं । मोह मूल परमारथु नाहीं ।
धरती । घर । धन । नगर । परिवार । स्वर्ग । और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं । जो देखने । सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं । इन सबका मूल मोह ( अज्ञान ) ही है । परमार्थतः ये नहीं हैं ।
सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ । जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जिय जोइ ??
जैसे स्वपन में राजा भिखारी हो जाए । या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए । तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है । वैसे ही इस दृश्य प्रपंच को हृदय से ऐसा ही जानना चाहिए ।
अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू । काहुहि बादि न देइअ दोसू ।
मोह निसा सबु सोवन हारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा ??
ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए । और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए । सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोते हुए अनेकों प्रकार के स्वपन देख रहे हैं ।
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच बियोगी ।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा । जब सब बिषय बिलास बिरागा ??
इस जगत रूपी रात्रि में योगी जागते हैं । जो परमार्थी हैं । और प्रपंच ( मायिक जगत ) से छूटे हुए हैं । इस जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए । जब सम्पूर्ण भोग विलासों से वैराग हो जाए ।
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मैं बचपन से enlightened को सत्य और अपनी जिन्दगी का लक्ष्य बना कर चला हूँ । पर अब ये सब मुझे बहुत परेशान करता है । ना मैं अपना काम ठीक से कर पाता हूँ । ना ही साधना । मैं क्या करूँ ? मेरी सहायता कीजिये ।
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निरंजन धन तुम्हरो दरबार । जहाँ न तनिक न्याय विचार ।
रंगमहल में बसें मसखरे । पास तेरे सरदार । धूर धूप में साधो विराजे । होये भवनिधि पार ।
वेश्या ओढे़ खासा मखमल । गल मोतिन का हार । पतिवृता को मिले न खादी । सूखा ग्रास अहार ।
पाखंडी को जग में आदर । सन्त को कहें लबार । अज्ञानी को परम बृह्म । ज्ञानी को मूढ़ गंवार ।
सांच कहे जग मारन धावे । झूठन को इतबार । कहत कबीर फकीर पुकारी । जग उल्टा व्यवहार ।
निरंजन धन तुम्हरो दरबार । जहाँ न तनिक न्याय विचार ।
झूठा खेल खिलाङी सच्चा - एक ही प्रश्न का उत्तर कई भावों कई पहलूओं से दिया जा सकता है । पर कोई न कोई स्थान ऐसा अवश्य है । जहाँ इसका ( या हरेक का ) पूर्ण नियन्त्रण मौजूद है । इसी प्रथ्वी का उदाहरण लीजिये । प्रथ्वी पर कितने ही भयानक बम विस्फ़ोट क्यों न करते रहिये । इसका सन्तुलन बिगङने वाला नहीं है । क्योंकि आपके विस्फ़ोट की तुलना में यह बहुत मजबूत है । इसलिये अधिक से अधिक हल्का सा डगमगा कर रह जायेगी । लेकिन ..लेकिन यदि आप इसके धुर ( केन्द्र ) को जानते हैं । और वहाँ तुलनात्मक बहुत कम ठोस चोट मारते हैं । तो इसका पूरा खेल ही उलट पलट हो जायेगा । इसका पूरा नक्शा ही बदल जायेगा । समस्त ऋतुयें समस्त व्यवहार ही परिवर्तित हो जायेगा । ध्यान रहे । बैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं ।
प्रथ्वी के उदाहरण से आपको समझने में दिक्कत महसूस हो सकती है । इसलिये साइकिल कार ट्रक जैसी चीजों के उदाहरण से आसानी से समझिये । साइकिल कार आदि में आपके बहुत से हिस्से क्षतिगृस्त हो गये हों । या हो ही न । जैसे सीट । पैडल आदि बहुत से पुर्जे । वाहन चलता रहेगा । लेकिन इसका धुर यानी केन्द्र । पहिये का एक्सल यदि गङबङ है । तो वाहन बेकार हो जायेगा ।
आगे बात और भी स्पष्ट करने से पहले कबीर साहब द्वारा आपका उत्तर देते हैं - निरंजन धन तुम्हरो दरबार । जहाँ न तनिक न्याय विचार ।
यह त्रिलोकी सत्ता के राष्ट्रपति भाई कल्लूराम जी उर्फ़ कालपुरुष उर्फ़ निरंजन महोदय का खेल प्रपंच है । जो सिर्फ़ आपको ही नहीं । सभी को व्यथित करता है । देखा आपने । कबीर साहब स्पष्ट कह रहे हैं । तेरे दरबार ( राज्य ) में न्याय नीति नहीं है । यहाँ मसखरे ( चाटुकारिता टायप स्वभाव के पुजारी । जो आपने देखे होंगे । मोटी तोंद वाले । महन्त । मण्डलाधीश । बिना जाने समझे । भांङ स्टायल में जय जय हो करने वाले ) यह राजमहल जैसे सुख को प्राप्त है । अर्थात इस कल्लू को ऐसे ही चाटुकार पसन्द हैं ।
लेकिन धूल और धूप का कष्ट सच्चे साधुओं भक्तों को सहन करना होता है । ( जबकि सच्चे लोगों का आदर सम्मान सुविधायें आदि देनी चाहिये कि नहीं ? ) ऐसे कष्टों में वे भक्ति करते हुये इस संसार सागर से पार हो जाते हैं ।
वैश्यायें ( या उस जैसे स्वभाव की स्त्रियाँ ) मोतियों के हार और बहुमूल्य वस्त्र धारण करती हैं । जबकि पतिवृता को फ़टी खादी और सूखी रोटी नसीब होती है । पाखण्डी टायप के साधुओं बाबाओं का संसार में आदर है । और सच्चे संतों को लवार ( झूठा बकबादी आदि ) समझा जाता है । अज्ञानी को परम बृह्म माना जाता है । और वास्तविक ज्ञानी को मूर्ख गंवार । यही सच्ची बात कह दो । तो ये दुनियाँ के लोगों को इतनी बुरी लगती है कि वे मारने को दौङ पङते हैं । उदाहरण बहुत से हैं - कबीर । नानक । रामकृष्ण । ईसा । मुहम्मद । तबरेज । मंसूर आदि नामों से भरे पङे हैं ।
लेकिन जो वास्तव में झूठे ही हैं । उन्होंने सदा आदर ही पाया । ये तो कभी भी किसी भी समय आराम से देखा जा सकता है । इसलिये कबीर साहब ने लाख की एक बात कह दी - जगत का व्यवहार ही ठीक उलटा है ।
- छोङो कबीर को । कुछ भी कहते रहते थे । A B C D तक पढे नहीं थे । और खुद को ज्ञानी समझते थे । लगता है मेरी दुकान बन्द करवा कर ही मानेंगे । अब आप 21century के famous कम्प्यूटर बाबा राजीव की बात सुनो ।
selfish यानी स्वार्थी । यदि आपने यही बात ओशो से कही होती । तो वो निश्चित ही आपको शाबासी देते । मजबूर नहीं । बनो selfish । फ़ुल selfish हो जाओ । स्वार्थी = स्व - अर्थी । बङा कमाल का है ये स्वार्थी होना । स्वयं के लिये अर्थ युक्त होना । इसलिये पूरे पूरे स्वार्थी बनो । मैं आपको यही सलाह दूँगा ।
श्रीकृष्ण कहते हैं - अर्जुन यदि तू सोचता है कि तू इन्हें मारेगा । तब तू पूरी तरह गलत है । ये तो मेरे ( उनके कर्मों से ) द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं । इसलिये तू सोच ही मत कि ये अच्छा बुरा तेरे द्वारा होगा । तू सिर्फ़ इसका निमित्त मात्र है । और भी देखिये ।
कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपन कीन्ह । जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह ।
कैकय राज की लड़की नीच बुद्धि कैकेयी ने बड़ी ही कुटिलता की । जिसने रघुनंदन राम और सीता को सुख के समय दुख दिया ।
भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी । कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी ।
भयउ बिषादु निषादहि भारी । राम सीय महि सयन निहारी ।
वह सूर्य कुल रूपी वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी हो गई । उस कुबुद्धि ने सम्पूर्ण विश्व को दुखी कर दिया । राम सीता को जमीन पर सोते हुए देखकर निषाद को बड़ा दुख हुआ ।
बोले लखन मधुर मृदु बानी । ग्यान बिराग भगति रस सानी ।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।
तब लक्ष्मण ज्ञान । वैराग्य । और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले - हे भाई ! कोई किसी को सुख दुख का देने वाला नहीं है । सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं ।
जोग बियोग भोग भल मंदा । हित अनहित मध्यम भृम फंदा ।
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू । संपति बिपति करमु अरु कालू ।
संयोग ( मिलना ) वियोग ( बिछुड़ना ) भले बुरे भोग । शत्रु । मित्र । और उदासीन । ये सभी भृम के फंदे हैं ।
जन्म । मृत्यु । सम्पत्ति । विपत्ति । कर्म । और काल । जहाँ तक जगत के जंजाल हैं ।
धरनि धामु धनु पुर परिवारू । सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू ।
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं । मोह मूल परमारथु नाहीं ।
धरती । घर । धन । नगर । परिवार । स्वर्ग । और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं । जो देखने । सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं । इन सबका मूल मोह ( अज्ञान ) ही है । परमार्थतः ये नहीं हैं ।
सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ । जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जिय जोइ ??
जैसे स्वपन में राजा भिखारी हो जाए । या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए । तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है । वैसे ही इस दृश्य प्रपंच को हृदय से ऐसा ही जानना चाहिए ।
अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू । काहुहि बादि न देइअ दोसू ।
मोह निसा सबु सोवन हारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा ??
ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए । और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए । सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोते हुए अनेकों प्रकार के स्वपन देख रहे हैं ।
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच बियोगी ।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा । जब सब बिषय बिलास बिरागा ??
इस जगत रूपी रात्रि में योगी जागते हैं । जो परमार्थी हैं । और प्रपंच ( मायिक जगत ) से छूटे हुए हैं । इस जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए । जब सम्पूर्ण भोग विलासों से वैराग हो जाए ।
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आईये आगे बात करते हैं । सन्त मत में एक मजेदार और प्रेरक दृष्टांत है । पुराने समय में जब खेतों की सिंचाई के
लिये रहट ( कुँये में पङी डिब्बों की माला । जो वैलों द्वारा घुमाकर पानी को ऊपर लाती थी ) का उपयोग होता था । इसमें डिब्बों का पानी पनाले में गिरकर नाली द्वारा खेत में जाता था । इसमें कुछ देर पर खट ..खट आवाज होती है ।
किसी घुङसवार को अपने घोङे को पानी पिलाना था । घोङे ने पनाले से मुँह किया । और तभी हुयी - खट । दोबारा । फ़िर - खट । वह बोला - भाई इस खट ..खट को बन्द कर । घोङा पानी नहीं पी पा रहा । उसने रहट रोक दिया । खट..खट बन्द हो गयी । मगर साथ के साथ पानी भी बन्द हो गया । तब वह बोला - अगर पानी पीना है । तो इसी खट..खट में पीना होगा ।
इसलिये ये दुनियाँ की खट..खट कभी बन्द होने वाली नहीं है । आपको इसी दुनियावी व्यवहार के बीच स्वस्थ रहना होगा । स्वस्थ = स्व - स्थ ( स्वयं में स्थिति )
मेरा law of karma में बहुत विश्वास है - मैंने ऊपर कहा - स्वस्थ । और आप सिर्फ़ यही कर सकते हैं । सिर्फ़ यही आपके वश की बात भी है । कर्म सिद्धांत । कर्म संविधान को बङे से बङे ज्ञानी भी नहीं समझ सकते । और जब समझ ही नहीं सकते । फ़िर तय कैसे करेंगे - सही या गलत ? श्रीकृष्ण ने बहुत कम शब्दों में इसको कहा - हे अर्जुन ! तू युद्ध कर । और निरन्तर भजन कर । मैं आपसे कहता हूँ - हे अर्जुन ! तू ये जिन्दगी का युद्ध कर । और निरन्तर भजन ( अपने में स्थित रहना ) कर । अच्छा बुरा । सही गलत । सुफ़ल कुफ़ल की चिन्ता छोङ दे । निष्काम भजन । और जैसा कि मैंने कहा - आप सिर्फ़ यही तो कर सकते हैं । मनुष्य का ही संविधान । खुद उसका रचियता । सुप्रीम कोर्ट की हस्तियाँ । धुरंधर वकील तक स्मृति आधार पर नहीं बता सकते । जब जैसी जरूरत हुयी । वो अध्याय खोल लिया ।
फ़िर आप law of karma कैसे तय करोगे । कहाँ से लाओगे ? यह संविधान । कुछ भी गलत नहीं है । यदि कुछ गलत होता । तो वो इस सर्व शक्तिमान सत्ता में होता ही नहीं । लेकिन ठहरिये..कब ? कब कुछ भी गलत नहीं होता । जब आप स्वस्थ होते हो तब । समरथ को नहीं दोष गुसाईं । जब आप रोगी होते हो । तब गलत हो सकता है । बल्कि कहिये । तब गलत लगता है । होता तब भी नहीं । इसलिये आप केन्द्र से ( धुर से - शरीर के केन्द्र या आधार का ध्यान करना ) जुङे रहिये । तब सब जिम्मेवारी उसकी हो जाती है । वो फ़िर कुछ गलत होने ही नहीं देता ।
पर मेरी life style और मेरा कर्म मुझे selfish होने में मजबूर करता है - बात बङी हो रही है । अतः संक्षेप में । इसलिये मैं नहीं जानता आपकी - life style । पर मैं नहीं मानता आपकी - life style । life style जीने का तरीका - यानी हमारी मर्जी । ये शब्द ही ये कहता है - मेरी मर्जी । मैं चाहे ये करूँ । मैं चाहे वो करूँ । कौन रोकता है ? तब मैं किस प्रकार का स्वार्थी होऊँ ? ये भी मेरी मर्जी । मैं मानता हूँ । बल्कि जानता भी हूँ । एक
तुलनात्मक दृष्टिकोण से मेरे जितना hi-fi इंसान अभी तक नहीं हुआ । भले ही लोग खुद को ultra modern समझने का गरूर पाले बैठे हों । पर मुझे उनका सही level अच्छी तरह पता है ? तब मेरी life style ने मुझे ऐसा ?
घोर selfish बनाया । ऐसा selfish । जिसका होना खुद मुझे ही गर्वित करता है । और मैं चाहता हूँ । मेरे जैसे ही स्वार्थी सभी हो जायें । आप भी ।
पर इस शहर में पैसा ही सब कुछ है - आपची मुम्बई ( मेरी दृष्टि में ) मूर्खों का शहर है । ऊपर रामायण के उदाहरण से मैंने - मोह निसा सबु सोवन हारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा ?? बताया । लेकिन ये शहर तो उससे भी बढकर स्वपन के अन्दर भी स्वपन देख रहा है । समझें । स्वपन देखने की अवस्था में । स्वपन में स्वपन देखना । कहाँ है पैसा सब
कुछ ? मीना कुमारी । परबीन बाबी । भगवान दादा जैसे बहुत से लोगों का अन्त क्या हुआ ? क्या नहीं था इनके पास ? सुनील दत्त के पास पैसा नहीं था क्या ? फ़िर भी जीवन भर उन्होंने दुख कष्ट झेले । रोगी पत्नी की वेदना । नशेङी पुत्र की वेदना । ( झूठे सच्चे कुछ भी सही ) अपराधी पुत्र की वेदना । क्या काम आया पैसा ? पैसे ने उस स्थिति में कोई अपना चमत्कार दिखाया ? नहीं ना । फ़िर क्यों नहीं सबक लेते ये लोग । स्वस्थ रहने का । स्वस्थ होने का ।
और अन्त में - पूरी बात का निचोङ सिर्फ़ इतना । जब आप नाभि से सहस्रार तक के केन्द्र । धुर । या आधार रेखा में वैधानिक तरीके से किसी भी स्थान पर स्थित हैं । तब आप स्वस्थ ही हैं । और आपको बस इतना ही करना है । आप इतना ही कर भी सकते हैं । इससे ज्यादा आज तक कोई कर भी नहीं पाया ।
झूठा खेल खिलाङी सच्चा - साहेब । साहेब ।
लिये रहट ( कुँये में पङी डिब्बों की माला । जो वैलों द्वारा घुमाकर पानी को ऊपर लाती थी ) का उपयोग होता था । इसमें डिब्बों का पानी पनाले में गिरकर नाली द्वारा खेत में जाता था । इसमें कुछ देर पर खट ..खट आवाज होती है ।
किसी घुङसवार को अपने घोङे को पानी पिलाना था । घोङे ने पनाले से मुँह किया । और तभी हुयी - खट । दोबारा । फ़िर - खट । वह बोला - भाई इस खट ..खट को बन्द कर । घोङा पानी नहीं पी पा रहा । उसने रहट रोक दिया । खट..खट बन्द हो गयी । मगर साथ के साथ पानी भी बन्द हो गया । तब वह बोला - अगर पानी पीना है । तो इसी खट..खट में पीना होगा ।
इसलिये ये दुनियाँ की खट..खट कभी बन्द होने वाली नहीं है । आपको इसी दुनियावी व्यवहार के बीच स्वस्थ रहना होगा । स्वस्थ = स्व - स्थ ( स्वयं में स्थिति )
मेरा law of karma में बहुत विश्वास है - मैंने ऊपर कहा - स्वस्थ । और आप सिर्फ़ यही कर सकते हैं । सिर्फ़ यही आपके वश की बात भी है । कर्म सिद्धांत । कर्म संविधान को बङे से बङे ज्ञानी भी नहीं समझ सकते । और जब समझ ही नहीं सकते । फ़िर तय कैसे करेंगे - सही या गलत ? श्रीकृष्ण ने बहुत कम शब्दों में इसको कहा - हे अर्जुन ! तू युद्ध कर । और निरन्तर भजन कर । मैं आपसे कहता हूँ - हे अर्जुन ! तू ये जिन्दगी का युद्ध कर । और निरन्तर भजन ( अपने में स्थित रहना ) कर । अच्छा बुरा । सही गलत । सुफ़ल कुफ़ल की चिन्ता छोङ दे । निष्काम भजन । और जैसा कि मैंने कहा - आप सिर्फ़ यही तो कर सकते हैं । मनुष्य का ही संविधान । खुद उसका रचियता । सुप्रीम कोर्ट की हस्तियाँ । धुरंधर वकील तक स्मृति आधार पर नहीं बता सकते । जब जैसी जरूरत हुयी । वो अध्याय खोल लिया ।
फ़िर आप law of karma कैसे तय करोगे । कहाँ से लाओगे ? यह संविधान । कुछ भी गलत नहीं है । यदि कुछ गलत होता । तो वो इस सर्व शक्तिमान सत्ता में होता ही नहीं । लेकिन ठहरिये..कब ? कब कुछ भी गलत नहीं होता । जब आप स्वस्थ होते हो तब । समरथ को नहीं दोष गुसाईं । जब आप रोगी होते हो । तब गलत हो सकता है । बल्कि कहिये । तब गलत लगता है । होता तब भी नहीं । इसलिये आप केन्द्र से ( धुर से - शरीर के केन्द्र या आधार का ध्यान करना ) जुङे रहिये । तब सब जिम्मेवारी उसकी हो जाती है । वो फ़िर कुछ गलत होने ही नहीं देता ।
पर मेरी life style और मेरा कर्म मुझे selfish होने में मजबूर करता है - बात बङी हो रही है । अतः संक्षेप में । इसलिये मैं नहीं जानता आपकी - life style । पर मैं नहीं मानता आपकी - life style । life style जीने का तरीका - यानी हमारी मर्जी । ये शब्द ही ये कहता है - मेरी मर्जी । मैं चाहे ये करूँ । मैं चाहे वो करूँ । कौन रोकता है ? तब मैं किस प्रकार का स्वार्थी होऊँ ? ये भी मेरी मर्जी । मैं मानता हूँ । बल्कि जानता भी हूँ । एक
तुलनात्मक दृष्टिकोण से मेरे जितना hi-fi इंसान अभी तक नहीं हुआ । भले ही लोग खुद को ultra modern समझने का गरूर पाले बैठे हों । पर मुझे उनका सही level अच्छी तरह पता है ? तब मेरी life style ने मुझे ऐसा ?
घोर selfish बनाया । ऐसा selfish । जिसका होना खुद मुझे ही गर्वित करता है । और मैं चाहता हूँ । मेरे जैसे ही स्वार्थी सभी हो जायें । आप भी ।
पर इस शहर में पैसा ही सब कुछ है - आपची मुम्बई ( मेरी दृष्टि में ) मूर्खों का शहर है । ऊपर रामायण के उदाहरण से मैंने - मोह निसा सबु सोवन हारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा ?? बताया । लेकिन ये शहर तो उससे भी बढकर स्वपन के अन्दर भी स्वपन देख रहा है । समझें । स्वपन देखने की अवस्था में । स्वपन में स्वपन देखना । कहाँ है पैसा सब
कुछ ? मीना कुमारी । परबीन बाबी । भगवान दादा जैसे बहुत से लोगों का अन्त क्या हुआ ? क्या नहीं था इनके पास ? सुनील दत्त के पास पैसा नहीं था क्या ? फ़िर भी जीवन भर उन्होंने दुख कष्ट झेले । रोगी पत्नी की वेदना । नशेङी पुत्र की वेदना । ( झूठे सच्चे कुछ भी सही ) अपराधी पुत्र की वेदना । क्या काम आया पैसा ? पैसे ने उस स्थिति में कोई अपना चमत्कार दिखाया ? नहीं ना । फ़िर क्यों नहीं सबक लेते ये लोग । स्वस्थ रहने का । स्वस्थ होने का ।
और अन्त में - पूरी बात का निचोङ सिर्फ़ इतना । जब आप नाभि से सहस्रार तक के केन्द्र । धुर । या आधार रेखा में वैधानिक तरीके से किसी भी स्थान पर स्थित हैं । तब आप स्वस्थ ही हैं । और आपको बस इतना ही करना है । आप इतना ही कर भी सकते हैं । इससे ज्यादा आज तक कोई कर भी नहीं पाया ।
झूठा खेल खिलाङी सच्चा - साहेब । साहेब ।
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