उस दिन दोपहर को ही गाँव के बाहर बने मन्दिर पर बैठा था । कई लोग मौजूद थे । कहीं कोई बङा यग्य और भंडारा होने की बात चल रही थी । जिसके लिये भारी मात्रा में चन्दा भी इकठ्ठा हुआ था । मेरी इन बातों में कोई भी कैसी भी दिलचस्पी नहीं थी ।
पर जैसे तभी किसी ने बर्र के छ्त्ते में कंकङ मारा हो । वह बोला - इस यग्य में जाने कितने कितने देवताओं को इतनी इतनी आहुतियाँ दी जायेगी । और इस यग्य का बहुत पुण्य फ़ल आदि होता है ।
मैंने कहा - ईंट पत्थर के बने हवन कुण्ड की अग्नि में तमाम धन को घी सामग्री मिष्ठान आदि के रूप में फ़ूँकोगे । और तुम्हें इसका परिणाम भी नहीं मालूम कि देवता इसको स्वीकार कर रहा है । या नहीं । इसका कोई पुण्य बन भी रहा है । या नहीं ।
जाहिर है । उसे बुरा लगा । पर मुझसे सहज में कोई पंगा भी नहीं लेता । फ़िर भी वह बोला - महाराज ! एक बात बताओ । ये जो ऋषि मुनि साधु साधक आदि पुरातन काल से यग्य करते रहे । वो क्या पागल थे ?
मैंने कहा - वे पागल नहीं थे । लेकिन आप लोग अवश्य पागल हो । वे इसके अधिकारी थे । उनका यह ग्यान जागृत ग्यान था । आपका रटन्तू है । उनके यग्य का परिणाम यग्य समाप्ति पर तुरन्त प्रकट होता था । वे जिस देवता को बुलाते । उसे मन्त्र शक्ति के अधीन होकर आना पङता था । आपका विद्वान यग्य कर्ता ऐसा कर सकता है ? और ये बात भी मैं नहीं कह रहा । शास्त्र इसके गवाह हैं । फ़िर
आपके इस थोथे यग्य से क्या लाभ ?
सभा में सन्नाटा छा गया । किसी को कोई बात नहीं सूझी ।
तब मैंने फ़िर कहा - मैं तो दिन में दो बार शाश्वत यग्य करता हूँ । और मेरे साथ साथ ये गाय भी करती है । इसके अतिरिक्त मैं एक सूक्ष्म दिव्य यग्य भी निरन्तर करता हूँ । और मेरे इन दोनों यग्यों में 33 करोङ देवता अपने अपने भाग को पाकर तृप्त भी होते हैं । और ये यग्य और इसका फ़ल प्रमाणित भी है ।
- वास्तव में हमारा उदर ( पेट ) ही सबसे बङिया हवन कुण्ड है । इसमें पंचाग्नि - जठराग्नि मंदाग्नि आदि तेज भूख के समय खुद ब खुद प्रज्वलित ( जलने लगना ) हो जाती हैं । भोजन रूपी सामग्री से बारबार लिया गया कौर ( निवाला या ग्रास ) ही आहुति है ।
ये हम यग्य की आवश्यकता ( पेट भरने तक ) अनुसार आहुति देते हैं । हवन कुण्ड की अग्नि इस भोजन को सार रस में बदलकर संबन्धित इन्द्रियों को पहुँचाकर उनके देवताओं को तृप्त करती हैं ।
इस तरह एक आत्मदेव के आश्रित ये 33 करोङ देव तृप्त हो जाते हैं । शरीर के आँख नाक कान हाथ पैर आदि जगहों पर अपनी अपनी जगह स्थिति 33 करोङ देवता अपना अपना भाग पाकर पुष्ट होते हैं । और ठीक ऐसा ही ये यग्य गाय या
अन्य पशु भी करते हैं ।
और ऐसा नहीं है कि आप लोग नहीं करते । आप भी करते हो । बस जानते नहीं हो । और न जानने से ही उसका वांछित फ़ल प्राप्त नहीं होता । जानने से आप फ़ल के अधिकारी हो जाते हो ।
और सूक्ष्म दिव्य यग्य ? फ़िर बङी उत्सुकता से प्रश्न किया गया ।
हाँ ! सूक्ष्म दिव्य यग्य । प्राण की प्राण में आहुति ही सूक्ष्म दिव्य यग्य है । ये विलक्षण फ़ल वाला है । और स्वतः निरंतर हो भी रहा है । बस इसको देखना और इस पर ध्यान लगाना ही सूक्ष्म दिव्य यग्य है । प्राण आ रहा है । जा रहा है । स्वांस रूपी चेतनधारा से ही ये शरीर क्रियाशील है । वरना स्वांस के बिना इस निर्जीव शरीर से भला आप क्या कर पाते । प्राण के होने से ही आँख ( सूर्य ) नाक ( पवन ) कान आदि सभी कार्य कर रहे हैं । यह ग्यान यग्य ( अर्थात इसको जानना ) है । और ये सब इस दुर्लभ शरीर में आत्मदेव के होने से पोषित हो रहे हैं । वरना एक मिनट ( आत्मदेव के बिना ) भी नहीं ठहर पायेंगे । इसलिये स्वांस तभी तक है । जब तक शरीर में आत्मदेव है ।
अब आप सोचिये । सबसे खास कौन है ? आत्मदेव ना ।
और आप इस सबसे महान आत्मदेव ( जरूरत मन्द निर्धन लोग । असहाय । लाचार प्राणी । अहसाय भूखे भटकते पशु । बिना पैसे के पढ नही पाते गरीब बच्चे । बिना इलाज के मरते लोग । सूने अरमान लिये ब्याही जाती दुल्हिनें - सभी लङकियों की इच्छा होती है । उनका भी ब्याह कुछ धूमधाम से रौनक से होता । बहुत से सामर्थ्यवान लाखों रुपया शादी आदि में फ़ालतू फ़ूँक देते हैं । पर ऐसे गरीबों को सहयोग नहीं करते ) को उपेक्षित करके झूठे कल्पित देवों पर व्यर्थ धन फ़ूँक रहे हैं ।
*** एक आदमी ने जीवन में इस तरह के बहुत से यग्य दान पुण्य किये । और उस सबको एक बही खाते में नोट भी कर लिया कि - मुझे या मेरी पीङी में जब निर्धनता आने पर पुण्यफ़ल की जरूरत होगी । तब इसमें से निकाल लेंगे ।
कालान्तर में उस आदमी के मरने के बाद उनके छोटे पुत्र को अति आर्थिक संकट का सामना करना पङा । तो उसने कुछ जमा प्राप्ति की उम्मीद में घर के बहीखाते टटोले ।
तो इस बही में लिखा था - मैंने जीवन में जो भी पुण्य किया । वह सब इस बहीखाते में दर्ज है । जरूरत आने पर स्वर्ग में जाकर प्राप्त कर लेना । उसने ऐसा ही करने का निश्चय किया ।
तब रास्ते के भोजन के लिये उसकी पत्नी ने कुछ पराठें बना दिये । रास्ते में भूख लगने पर वह एक बगीची में खाने बैठा । तो एक भूखा आदमी आ गया । और बङी दीनता से भोजन को देखने लगा । उस इंसान ने आधा भोजन उस भूखे व्यक्ति को दे दिया । अभी दोबारा कौर तोङा ही था कि एक बहुत भूखा कुत्ता आ गया । और लालायित नजरों से भोजन की तरफ़ देखने लगा ।
तब उस इंसान ने सोचा - मैं आज भूखा ही गुजारा कर लूँगा । मेरी अपेक्षा इसको भोजन की अधिक आवश्यकता है । और उसने शेष पराठें कुत्ते को खिला दिये ।
वह स्वर्ग पहुँचा । और अपने पिता का नाम बताकर बोला - मेरे पिता ने बहुत पुण्य किया था । उसका कुछ फ़ल हमें दें । हम बङी कठिन स्थिति में हैं ।
स्वर्ग के क्लर्क ने डोनेशन पुण्येशन रजिस्टर चैक किया । और बोला - इस नाम के व्यक्ति ने तो जीरो बटा जीरो 0/0 पुण्य भी नहीं किया । हाँ इसके एक छोटे पुत्र ने अभी हाल में ही बहुत भारी पुण्य किया है । उसका फ़ल चाहो । तो ले जाओ ।
उस आदमी को बहुत हैरत हुयी । स्वर्ग का क्लर्क उसी के बारे में कह रहा था । पर उसने तो अपने जीवन में कोई यग्य कोई पुण्य कोई दान नहीं किया था ।
क्लर्क बोला - बहुत संपत्ति में से थोङी संपत्ति दान के नाम पर फ़ालतू ( जिन्हें उसकी आवश्यकता ही नहीं हैं ) लोगों को देना या खिलाना पिलाना । व्यय करना । दान नहीं हैं । तुम्हारे पास सिर्फ़ अपने खाने के लिये भोजन था । फ़िर भी तुमने अपनी चिंता न करते हुये दो भूखे जीवों को खिलाकर तृप्त किया । ये महादान है । सबसे बङा दान है । इसका तत्कालिक फ़ल ही बहुत हो गया । तब उसे दान की वास्तविकता और महिमा समझ आयी ।
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