जैसा कि मैंने वादा किया था । 20 जुलाई के बाद आपको लगातार 10 बङी प्रेत स्टोरी देने की कोशिश करूँगा । और इन स्टोरीज का स्तर आपकी बेहद पसन्द को देखते हुये पहले से बहुत अलग होगा ।
अतः अभी कुछ दिनों तक मेरे नये लेख आदि प्रकाशित नहीं होंगे । जब तक डायन प्रकाशित नहीं हो जाती । मेरा आप सभी से अनुरोध है । इसी बीच में आपके मेल्स रिप्लाई भी नहीं दे सकूँगा ।
अतः आप बेशक मुझे मेल भेज सकते हैं । पर उत्तर समय मिलने पर ही दे पाऊँगा । अभी ये पोस्ट करने से ठीक पहले मैंने डायन के 2 पार्ट लिखे ।
सुबह त्रिपाठी जी के लेख को पोस्ट करने में मेरा पूरा ( सुबह का ) समय खराब हो गया । नहीं तो स्टोरी लगभग आधी हो जाती ।
अभी ये भी नहीं कह सकता । डायन कितनी बङी होगी । आपको ये भी बता दूँ कि - इस स्टोरी को लिखने में मुझे बहुत रुकावटें आयी । इसीलिये यह कई बार लटक गयी ।
वैसे अभी निश्चित तो नहीं कह सकता । पर विधुत व्यवधान और अन्य कोई विशेष बाधा न आयी । तो अगले पाँच दिनों में डायन हर हालत में आपके सामने होगी । इसके अगले पन्द्रह दिनों में कर्ण पिशाचिनी । बीच बीच में कुछ लेख और आपके उत्तर भी दिये जा सकते हैं । इसलिये कृपया भेजे गये मेल का उत्तर देने को बाध्य न करें ।
वैसे इस समय मेरे पास सिर्फ़ लालडू के महेश कुमार जी का ही प्रश्न है कि - एक समय में एक ही सतगुरु होता है । यह बात सत्य है । या नहीं ।
एक लाइन में कहा जाये । तो यह बात एकदम सत्य है । और इस सम्बन्ध में शायद एक बङा लेख और कई अन्य लेखों में मैंने इस बात को बताया भी है । बस आपको उसे देखना है कि वो कहाँ पर है । अगर नहीं होगा । तो बाद में लिखूँगा ।
महेश जी का दूसरा प्रश्न है - 64 विध्यायें क्या और कौन सी होती हैं ?
इस प्रश्न का आशय मैं ठीक से समझ नहीं पाया । शास्त्रों में 64 विध्यायें संगीत । अध्ययन । कृषि । व्यापार । और विशेष तकनीकी ग्यान जैसे धातुयें बनाना । मिलाना आदि ऐसे तमाम स्थूल कार्यों के लिये भी कहा गया है । यानी इन्हें भी विध्या के अंतर्गत ही रखा गया है ।
और मन्त्र तन्त्र विध्या जैसा सूक्ष्म ग्यान भी विध्या के अंतर्गत ही कहा गया है । अतः महेश जी यदि ये स्पष्ट करते कि - वे दरअसल किस विषय में जानना चाहते हैं ? तो उनकी जिग्यासा दूर करने में आसानी होती ।
दूसरे में अपने सभी पाठकों से यह भी कहना चाहूँगा । द्वैत की मायावी सृष्टि में बहुत कुछ होता है । अतः बिना लक्ष्य के बहुत सी बातों को जानने से कोई लाभ
नहीं होता । अधिक जानना भी अशांति पैदा कर सकता है । अतः सार सार को गृहण करते हुये थोथे को त्यागना ही उचित होता है ।
सत्यनाम की आदि अनादि और सनातन भक्ति के अलावा ये सब विकट मायावी चीजें ही हैं । अतः आप सभी लोग इनसे हमेशा ही 100 कदम दूर रहें । और सात्विक भक्ति ही करें । वही कल्याणकारी है ।
धन्यवाद । जय राम जी की ।
अचानक - अभी ये पोस्ट करने जा ही रहा था कि आस्ट्रेलिया से डाली जी का मेल आ गया । चलिये कोई बात नहीं । छोटा ही है । देखते हैं ।
अतः अभी कुछ दिनों तक मेरे नये लेख आदि प्रकाशित नहीं होंगे । जब तक डायन प्रकाशित नहीं हो जाती । मेरा आप सभी से अनुरोध है । इसी बीच में आपके मेल्स रिप्लाई भी नहीं दे सकूँगा ।
अतः आप बेशक मुझे मेल भेज सकते हैं । पर उत्तर समय मिलने पर ही दे पाऊँगा । अभी ये पोस्ट करने से ठीक पहले मैंने डायन के 2 पार्ट लिखे ।
सुबह त्रिपाठी जी के लेख को पोस्ट करने में मेरा पूरा ( सुबह का ) समय खराब हो गया । नहीं तो स्टोरी लगभग आधी हो जाती ।
अभी ये भी नहीं कह सकता । डायन कितनी बङी होगी । आपको ये भी बता दूँ कि - इस स्टोरी को लिखने में मुझे बहुत रुकावटें आयी । इसीलिये यह कई बार लटक गयी ।
वैसे अभी निश्चित तो नहीं कह सकता । पर विधुत व्यवधान और अन्य कोई विशेष बाधा न आयी । तो अगले पाँच दिनों में डायन हर हालत में आपके सामने होगी । इसके अगले पन्द्रह दिनों में कर्ण पिशाचिनी । बीच बीच में कुछ लेख और आपके उत्तर भी दिये जा सकते हैं । इसलिये कृपया भेजे गये मेल का उत्तर देने को बाध्य न करें ।
वैसे इस समय मेरे पास सिर्फ़ लालडू के महेश कुमार जी का ही प्रश्न है कि - एक समय में एक ही सतगुरु होता है । यह बात सत्य है । या नहीं ।
एक लाइन में कहा जाये । तो यह बात एकदम सत्य है । और इस सम्बन्ध में शायद एक बङा लेख और कई अन्य लेखों में मैंने इस बात को बताया भी है । बस आपको उसे देखना है कि वो कहाँ पर है । अगर नहीं होगा । तो बाद में लिखूँगा ।
महेश जी का दूसरा प्रश्न है - 64 विध्यायें क्या और कौन सी होती हैं ?
इस प्रश्न का आशय मैं ठीक से समझ नहीं पाया । शास्त्रों में 64 विध्यायें संगीत । अध्ययन । कृषि । व्यापार । और विशेष तकनीकी ग्यान जैसे धातुयें बनाना । मिलाना आदि ऐसे तमाम स्थूल कार्यों के लिये भी कहा गया है । यानी इन्हें भी विध्या के अंतर्गत ही रखा गया है ।
और मन्त्र तन्त्र विध्या जैसा सूक्ष्म ग्यान भी विध्या के अंतर्गत ही कहा गया है । अतः महेश जी यदि ये स्पष्ट करते कि - वे दरअसल किस विषय में जानना चाहते हैं ? तो उनकी जिग्यासा दूर करने में आसानी होती ।
दूसरे में अपने सभी पाठकों से यह भी कहना चाहूँगा । द्वैत की मायावी सृष्टि में बहुत कुछ होता है । अतः बिना लक्ष्य के बहुत सी बातों को जानने से कोई लाभ
नहीं होता । अधिक जानना भी अशांति पैदा कर सकता है । अतः सार सार को गृहण करते हुये थोथे को त्यागना ही उचित होता है ।
सत्यनाम की आदि अनादि और सनातन भक्ति के अलावा ये सब विकट मायावी चीजें ही हैं । अतः आप सभी लोग इनसे हमेशा ही 100 कदम दूर रहें । और सात्विक भक्ति ही करें । वही कल्याणकारी है ।
धन्यवाद । जय राम जी की ।
अचानक - अभी ये पोस्ट करने जा ही रहा था कि आस्ट्रेलिया से डाली जी का मेल आ गया । चलिये कोई बात नहीं । छोटा ही है । देखते हैं ।
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