अंध कूप बिखिआ ते काढिओ । साच सबदि वणि आई ।
हरेक मनुष्य के अन्दर अमृत बरस रहा है । वह इसकी दौलत है । जब तक कोई पूरा गुरु नहीं मिलता । इसकी वह अनमोल दौलत यूँ ही लुटी जा रही है । उसको काम क्रोध और मन माया ठगते हुये पी रहे हैं । जब गुरु की कृपा से आत्मा अन्दर को जाती है । और अनहद निर्वाणी धुन रूप शब्द को सुनती है । अमृत पीती है । तो काम क्रोध लोभ मोह अहंकार निकल ही जाते हैं । और असीम शांति आ जाती है । गुरु हमें यह दात देता है । वह बेटे बेटियाँ नहीं देता । तन्दुरस्ती बीमारी अमीरी गरीबी नहीं देता ।
जब से हम माँ के गर्भ से पैदा हुये हैं । तब से जन्म मरण । दुख सुख । जितने ग्रास खाने हैं । जितना पानी पीना है । ये सब लिखाकर लायें हैं । उनमें घटा बङी नहीं हो सकती ।
इसलिये सन्त कहते हैं । बीमारी तुम्हारे अन्दर है । तो दवा भी तुम्हारे अन्दर ही है । जब तुम अपनी रूह को शब्द
के साथ जोङोगे । तो शब्द में जो आकर्षण है । कशिश है । वह खींचेगी । शब्द ही कुल मालिक है । सब खण्ड बृह्मांड शब्द से ही बने हैं । जब उसका आनन्द तुम्हारी रूह को स्पर्श करेगा । तो ये जन्म मरण का आवागमन हमेशा के लिये मिट ही जायेगा । लेकिन यह अनमोल दौलत सच्चे सदगुरु के बगैर नहीं मिलती ।
गुरु नानक साहिब कहते हैं -
गुरु कुंजी पाहू निवलु । मनु कोठा तनु छति । नानक गुर बिनु मन का ताकु न उघङै अवर न कुंजी हथि ।
इसलिये ये कुंजी वाला गुरु बङे भाग्य से ही मिलता है । कुंजी ( ऊपर जाने का गुप्त द्वार खोलने वाली चाबी ) वाला
गुरु कहीं कहीं ही है । अधूरे और बनाबटी गुरु तो बहुत हैं । हजारों हैं । परन्तु जब तक सच्चा गुरु कुंजी लगाकर द्वार नहीं खोलता । ये मनुष्य किसी भी हालत में अन्दर नहीं जा सकता ।
ये जीव करोंङो जन्मों से अंधा चला आ रहा है । ये जो हमारी आँखें हैं । ये बजाते खुद ( अपने आप से ) रोशन नहीं हैं । ये या तो सूरज का सहारा देखती हैं । या चन्द्रमा का आसरा तकती हैं । या सितारों का । या बिजली या लालटेन आदि की रोशनी का ।
जहाँ ये पाँच चीजें नहीं है । वहाँ ये आँखें काम नहीं कर सकती । ये आँखे फ़नाह ( नाशवान ) होने वाली हैं । और फ़नाह चीजों को ही देखती हैं । जो असली आँख है । वह तुम्हारे अन्दर है । जब वह असली आँख खुलेगी । तब यह सुजाखा होगा । अगर नहीं खुली । तो यह मनुष्य अंधा ही आया । और अंधा ही चला जायेगा ।
गुरु नानक साहब कहते हैं -
माइआधारी अति अंहा बोला । सबदु न सुणई बहु रोल अचोला ।
यह मनुष्य अंधा भी है । और बहरा भी है । बहरा इसलिये कि इसके अन्दर प्यारी प्यारी धुन है । मगर यह उसको नहीं सुनता है । अंधा इसलिये कि इसके अन्दर कुल मालिक और खण्ड बृह्मांड सब हैं । मगर यह उन्हें नहीं देखता । उन धुनों को सुनने से ही असली प्रेम प्यार उत्पन्न होता है ।
जनम मरण का सहसा चूका । बाहुङि कतई न धाई ।
अब हमारा जन्मों जन्मों का पाप मिट गया । किसकी कृपा से ? सदगुरु की कृपा से । अब हमारा जन्म मरण से वास्ता ही नहीं रहा । हमारे जन्म मरण का करोंङो जन्मों से चला आ रहा सिलसिला ही समाप्त हो गया । किसके द्वारा ? नाम सुमरन की कमाई करने से । अब कौन जनमे । कौन मरे । कौन आये । और कौन जाये । कोई नहीं ।
हमें पक्का भरोसा रखना चाहिये कि हमें फ़िर नहीं आना है । और ये भी नहीं कि नाम कमाई न करें । और फ़िर भी कहें कि - हमें नहीं आना है । बल्कि ये कि अगर हम नाम की कमाई करेंगे । तभी हमारा आवागमन मिटेगा । जो नाम की दवा गुरु हमें देता है । उसे अगर खायें । तो जीते जी परदा ही खुल जाये । रूह खण्डों बृह्मांडो पर चली जाये । मुक्ति ही हो जाये । फ़िर धर्मराज क्या करे ।
गुरु नानक साहब कहते हैं -
धरम राइ दरि कागद फ़ारै । जस नानक लेखा समझा ।
धरम राइ का दफ़तरु सोधिआ बाको रिजम न काई ।
जन्म मरण के लेखे का कागज ही फ़ट गया । जो यह नाम है । वह किसी जबान या भाषा का नहीं है । अगर भाषा में हो । तो उसी एक भाषा वाले का ही भला होगा । और वाकी सबके साथ जुल्म ही होगा । इसलिये उसे मालिक ने उस भाषा में रखा है । जो सबके लिये एक ही है ।
गुरु अर्जुन साहब कहते हैं - हमने अपना जन्म मरण समाप्त कर दिया । अब बार बार कौन जन्मे । कौन मरे ।
नाम रसाइणि इहु मनु राता अंमृतु पी तृपताई ।
रसायन उस पदार्थ को कहते हैं । जिसे अगर कलई में डाल दें । तो वह चाँदी हो जाती है । और ताँवे में डाल दें । तो वह सोना हो जाता है । मगर ये जो धातुयें हैं । सब जङ हैं । कलई भी जङ है । सोना भी जङ है । चाँदी भी जङ है । ताँवा भी जङ है । और जो रसायन है । वह भी जङ है । अतः बाहर जितने भी रसायन हैं । सब झूठे हैं ।
सच्चा रसायन कौन सा है ?
नाम रसायन ।
नाम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ।
जब मनुष्य नाम की कमाई करके अन्दर जाता है । तो वह नाम प्रकट हो जाता है । अन्दर अमृत बरसने लगता है ।
गुरु अर्जुन साहब कहते हैं - वह सच्चा रसायन है । अब मन और आत्मा नाम के रंग में रंग गये । इसलिये हरेक आदमी के अन्दर यह अमृत बरसता है । मगर इसका दुर्भाग्य है कि ये इस अमृत को नहीं पीता । अगर यह एक बार अन्दर जाकर उस अमृत का स्वाद ले । तो मुक्त हो जाय ।
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