सुखमन कै घरि रागु सुनि । सुनि मंडलि लिव लाइ । अकथ कथा बीचारीए । मनसा मनहि समाइ ।
मोक्ष के इच्छुक मनुष्य को चाहिये कि सदगुरु से निर्वाणी नाम का भेद लेकर 9 द्वारों से अपनी सुरति को समेट कर दसवीं गली में प्रवेश करे । तब सुषमना के रास्ते से होते हुये तारामंडल सूर्य चन्द्र को लांघ जाओ । जब सुषमना में प्रवेश करोगे । तब वह दिव्य राग सुनायी देगा ।
संसार के साज बाज राग बाजे तो कुछ समय बजकर बन्द हो जाते हैं । परन्तु जो आंतरिक राग बाजे हैं । वे कभी भी बन्द नहीं होते । जब मौत आयेगी । तभी बन्द होंगे ।
लेकिन इस घट ( शरीर ) राग को सुनने से काम क्रोध लोभ मोह आदि विकार आशा मनसा सब मिट जायेंगे । उन अंतर में बजते राग जैसा कोई राग संसार में सुनने को नहीं मिलता । वे अकथ है ।
उनको सुनने से इन्द्रियाँ अपने भोगों को छोङ देती हैं । और इस आनन्ददायी अवस्था को प्राप्त करने हेतु आप नाम अभ्यास द्वारा सुषमना नाङी से होकर पारबृह्म में पहुँचेंगे । यहाँ पहुँच कर हमारी आत्मा पर से स्थूल सूक्ष्म और कारण ये तीनों शरीर उतर जायेंगे । मन । माया । काम । क्रोध । लोभ । मोह । अहंकार तथा सत । रज । तम ये तीनों गुण भी उतर जायेंगे ।
जब आत्मा पर से ये सब परदे उतर जायेंगे । तो आत्मा एकदम स्वच्छ और निर्मल हो जायेगी । और उस समय ही इसको ये बोध भी स्वतः ही हो जायेगा कि मैं एक शुद्ध चैतन्य आत्मा ही हूँ । और ये अवस्था गुरु कृपा से मिलती है ।
उलटि कमलु अमृति भरिआ । इहु मनु कतहु न जाइ । अजपा जापु न बीसरै । आदि जुगादि समाइ ।
हरेक आत्मा का रुझान या झुकाव नीचे की ओर है । मनुष्य का ह्रदय कमल उल्टा हुआ है । हर एक मनुष्य के अन्तर में आवे हयात या अमृत बरस रहा है । जिसे माया पिये जा रही है । काम क्रोध लोभ जैसे विकार पिये जा रहे हैं । और यह मूढ इंसान इस परम उपलब्धि को पाने से वंचित रह जाता है । अगर किसी घङे को उल्टा रख दिया जाय । और पूरे साल वर्षा होती रहे । तो भी उसके अन्दर पानी की एक बूँद भी नहीं जायेगी । और अगर उसे ( किसी तरीके से ) सीधा कर दिया जाये । तो वह बरसते पानी से भर जायेगा ।
इसलिये जब कोई कामिल मुर्शिद या पूर्ण गुरु मिल गया । और उसने नाम के अभ्यास का तरीका बता दिया ।
और फ़िर यह उलटकर आत्मिक मंडलों में चढता है । तो यह ह्रदय कमल सीधा हो जाता है । और तब अमृत बरसा । और ये आत्मा अमृत से भर गया । जब इसने अमृत पिया । तो इसे अपार शांति प्राप्त हुयी । यह बात तो सिर्फ़ पहली मंजिल पर ही मिल गयी ।
दरअसल यह मन विभिन्न स्वादों के लिये ही भटकता है । इसे दुनियाँ की करोंङो वासनाओं के स्वाद से तृप्त करो । ये तृप्त नहीं होता है । इसे वश में करने की एक ही दवा है । यदि पहले कभी ऋषि मुनियों ने वश में किया है । तो इसी एक ही दवा से । यदि सन्तों ने वश में किया है । तो इसी एक ही दवा से । यह दवा क्या है ? नाम । अमृत ।
जब मनुष्य के मन को इस नाम अमृत का आनन्द प्राप्त हो जाता है । तो वह सांसारिक स्वादों और लज्जतों को त्याग देता है । मन कैद हो जाता है । इन्दियाँ वश में हो जाती है ।
वास्तव में आत्मा तो अकर्ता और अभोक्ता ही है । इसका पतन मन ने किया हुआ है । और जब मन ही वश में आ जाता है । तो आत्मा स्वतः आजाद हो जाती है । चारों युग - सतयुग । त्रेता । द्वापर । कलियुग में सिर्फ़ यही उपाय था ।
इसीलिये नानक साहब ने कहा है - जपु आदि सचु जुगादि सचु । है भी सचु नानक होसी भी सचु ।
हमारे और परमात्मा के बीच में यदि कोई परदा है । तो बस इसी मन का ही है । जो हाय हाय करते हैं । और कहते हैं कि भजन में नाम अभ्यास में मन नहीं लगता । वे वास्तव में कोई मेहनत नहीं करना चाहते । अगर अभ्यास करें । और सुरति को समेटकर ऊपर की ओर चङें । तो निश्चय ही अमृत मिलेगा । लेकिन इस मनुष्य का सारा लगाव सारा प्रेम दुनियादारी से जुङा हुआ है । तो फ़िर अमृत कैसे मिले ?
गुरु तेग बहादुर साहब कहते हैं -
मनु माइआ मै रमि रहिओ निकसत नाहिन मीत । नानक मूरति चित्र जिउ छाङित नाहिन भीत ।
जैसे किसी दीवार पर बने चित्र से हम कहें कि - आ हमारे साथ बात कर । तो वह चित्र दीवार को कभी नहीं छोङता । ठीक इसी प्रकार हमारा मन दुनियाँ के भोग पदार्थों में जमा बैठा है । लेकिन जब यह उलटकर अमृत पियेगा । तो तृप्त होकर वश में आ जायेगा । और आत्मा भोग विकारों से आजाद हो जायेगी । अन्दर जो मीठी मीठी राग रागिनियाँ हो रहीं है । आत्मा उन्हें सुनने में मगन हो गयी । और अन्तर में उस अमृत को पीने लग गयी ।
यह राग कब से बज रहे हैं ? जब से यह सृष्टि बनी है । कब बन्द होंगे ? जब यह सृष्टि समाप्त हो जायेगी । अतः इन्हीं रागों ( नाम की अलग अलग धुन ) के सहारे आत्मा को ऊपर चङना है ।
सभि सखीआ पंचे मिले गुरुमुखि निज घरि वासु ।
पाँच धुनें पाँच शब्द हैं । जब ये पाँचों एक हो गये । हम अपने घर पहुँच गये । इसलिये हमें सुमिरन के द्वारा 9 द्वारों को खाली करना है । जब 9 द्वारों को पार करके सूर्य चन्द्र तारा मंडलों को लांघकर हम तुरीयापद में पहुँचेंगे । तो वहाँ पहला शब्द सुनायी देगा । इसी प्रकार दूसरे देश में दूसरा शब्द सुनायी देगा । तीसरे में तीसरा शब्द । इस तरह हमें पहले शब्द को पकङकर दूसरी मंजिल में पहुँचना है ।
फ़िर दूसरे शब्द को पकङकर तीसरी मंजिल पर । फ़िर तीसरे शब्द को पकङकर चौथे देश में । और चौथा शब्द पकङकर पाँचवें देश में पहुँचना है । पाँचवीं मंजिल यानी सचखण्ड में पहुँचकर पाँचों शब्द एक हो जाते हैं । वही हमारा असली घर है । हम वहीं से आये हैं । और हमें वहीं लौटकर जाना है । और वहाँ पहुँचा जाता है । निर्वाणी नाम के द्वारा । अतः नानक साहब कहते हैं - जो हमें वहाँ पहुँचा दे । वही सदगुरु है ।
सबदु खोजि इहु घरु लहै नानकु ता का दासु ।
जो महात्मा शब्द नाम की कमाई करके सचखण्ड सतनाम पहुँच जाये । हम उसके दास है । और वह हमारा गुरु है । नानक साहब सचखण्ड पहुँची आत्मा को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं । जो कहते हैं कि - नानकु ता का दासु ।
परन्तु हम आत्मा के उद्धार की बात तो सोचते नहीं । कोई अच्छी खोज करते नहीं । बल्कि हमने सन्तों के उपदेशों और शिक्षाओं को मजहब और सम्प्रदाय ही बना लिया है । और ये मेरा धर्म ये तेरा धर्म करते हुये लङते रहते हैं । और सच्चाई को जानने की कोशिश नहीं करते ।
हिन्दू कहे मोहि राम प्यारा । तुरक कहे रहमाना । आपस में दोऊ लर लर मुये मरम न काहू जाना ।
मोक्ष के इच्छुक मनुष्य को चाहिये कि सदगुरु से निर्वाणी नाम का भेद लेकर 9 द्वारों से अपनी सुरति को समेट कर दसवीं गली में प्रवेश करे । तब सुषमना के रास्ते से होते हुये तारामंडल सूर्य चन्द्र को लांघ जाओ । जब सुषमना में प्रवेश करोगे । तब वह दिव्य राग सुनायी देगा ।
संसार के साज बाज राग बाजे तो कुछ समय बजकर बन्द हो जाते हैं । परन्तु जो आंतरिक राग बाजे हैं । वे कभी भी बन्द नहीं होते । जब मौत आयेगी । तभी बन्द होंगे ।
लेकिन इस घट ( शरीर ) राग को सुनने से काम क्रोध लोभ मोह आदि विकार आशा मनसा सब मिट जायेंगे । उन अंतर में बजते राग जैसा कोई राग संसार में सुनने को नहीं मिलता । वे अकथ है ।
उनको सुनने से इन्द्रियाँ अपने भोगों को छोङ देती हैं । और इस आनन्ददायी अवस्था को प्राप्त करने हेतु आप नाम अभ्यास द्वारा सुषमना नाङी से होकर पारबृह्म में पहुँचेंगे । यहाँ पहुँच कर हमारी आत्मा पर से स्थूल सूक्ष्म और कारण ये तीनों शरीर उतर जायेंगे । मन । माया । काम । क्रोध । लोभ । मोह । अहंकार तथा सत । रज । तम ये तीनों गुण भी उतर जायेंगे ।
जब आत्मा पर से ये सब परदे उतर जायेंगे । तो आत्मा एकदम स्वच्छ और निर्मल हो जायेगी । और उस समय ही इसको ये बोध भी स्वतः ही हो जायेगा कि मैं एक शुद्ध चैतन्य आत्मा ही हूँ । और ये अवस्था गुरु कृपा से मिलती है ।
उलटि कमलु अमृति भरिआ । इहु मनु कतहु न जाइ । अजपा जापु न बीसरै । आदि जुगादि समाइ ।
हरेक आत्मा का रुझान या झुकाव नीचे की ओर है । मनुष्य का ह्रदय कमल उल्टा हुआ है । हर एक मनुष्य के अन्तर में आवे हयात या अमृत बरस रहा है । जिसे माया पिये जा रही है । काम क्रोध लोभ जैसे विकार पिये जा रहे हैं । और यह मूढ इंसान इस परम उपलब्धि को पाने से वंचित रह जाता है । अगर किसी घङे को उल्टा रख दिया जाय । और पूरे साल वर्षा होती रहे । तो भी उसके अन्दर पानी की एक बूँद भी नहीं जायेगी । और अगर उसे ( किसी तरीके से ) सीधा कर दिया जाये । तो वह बरसते पानी से भर जायेगा ।
इसलिये जब कोई कामिल मुर्शिद या पूर्ण गुरु मिल गया । और उसने नाम के अभ्यास का तरीका बता दिया ।
और फ़िर यह उलटकर आत्मिक मंडलों में चढता है । तो यह ह्रदय कमल सीधा हो जाता है । और तब अमृत बरसा । और ये आत्मा अमृत से भर गया । जब इसने अमृत पिया । तो इसे अपार शांति प्राप्त हुयी । यह बात तो सिर्फ़ पहली मंजिल पर ही मिल गयी ।
दरअसल यह मन विभिन्न स्वादों के लिये ही भटकता है । इसे दुनियाँ की करोंङो वासनाओं के स्वाद से तृप्त करो । ये तृप्त नहीं होता है । इसे वश में करने की एक ही दवा है । यदि पहले कभी ऋषि मुनियों ने वश में किया है । तो इसी एक ही दवा से । यदि सन्तों ने वश में किया है । तो इसी एक ही दवा से । यह दवा क्या है ? नाम । अमृत ।
जब मनुष्य के मन को इस नाम अमृत का आनन्द प्राप्त हो जाता है । तो वह सांसारिक स्वादों और लज्जतों को त्याग देता है । मन कैद हो जाता है । इन्दियाँ वश में हो जाती है ।
वास्तव में आत्मा तो अकर्ता और अभोक्ता ही है । इसका पतन मन ने किया हुआ है । और जब मन ही वश में आ जाता है । तो आत्मा स्वतः आजाद हो जाती है । चारों युग - सतयुग । त्रेता । द्वापर । कलियुग में सिर्फ़ यही उपाय था ।
इसीलिये नानक साहब ने कहा है - जपु आदि सचु जुगादि सचु । है भी सचु नानक होसी भी सचु ।
हमारे और परमात्मा के बीच में यदि कोई परदा है । तो बस इसी मन का ही है । जो हाय हाय करते हैं । और कहते हैं कि भजन में नाम अभ्यास में मन नहीं लगता । वे वास्तव में कोई मेहनत नहीं करना चाहते । अगर अभ्यास करें । और सुरति को समेटकर ऊपर की ओर चङें । तो निश्चय ही अमृत मिलेगा । लेकिन इस मनुष्य का सारा लगाव सारा प्रेम दुनियादारी से जुङा हुआ है । तो फ़िर अमृत कैसे मिले ?
गुरु तेग बहादुर साहब कहते हैं -
मनु माइआ मै रमि रहिओ निकसत नाहिन मीत । नानक मूरति चित्र जिउ छाङित नाहिन भीत ।
जैसे किसी दीवार पर बने चित्र से हम कहें कि - आ हमारे साथ बात कर । तो वह चित्र दीवार को कभी नहीं छोङता । ठीक इसी प्रकार हमारा मन दुनियाँ के भोग पदार्थों में जमा बैठा है । लेकिन जब यह उलटकर अमृत पियेगा । तो तृप्त होकर वश में आ जायेगा । और आत्मा भोग विकारों से आजाद हो जायेगी । अन्दर जो मीठी मीठी राग रागिनियाँ हो रहीं है । आत्मा उन्हें सुनने में मगन हो गयी । और अन्तर में उस अमृत को पीने लग गयी ।
यह राग कब से बज रहे हैं ? जब से यह सृष्टि बनी है । कब बन्द होंगे ? जब यह सृष्टि समाप्त हो जायेगी । अतः इन्हीं रागों ( नाम की अलग अलग धुन ) के सहारे आत्मा को ऊपर चङना है ।
सभि सखीआ पंचे मिले गुरुमुखि निज घरि वासु ।
पाँच धुनें पाँच शब्द हैं । जब ये पाँचों एक हो गये । हम अपने घर पहुँच गये । इसलिये हमें सुमिरन के द्वारा 9 द्वारों को खाली करना है । जब 9 द्वारों को पार करके सूर्य चन्द्र तारा मंडलों को लांघकर हम तुरीयापद में पहुँचेंगे । तो वहाँ पहला शब्द सुनायी देगा । इसी प्रकार दूसरे देश में दूसरा शब्द सुनायी देगा । तीसरे में तीसरा शब्द । इस तरह हमें पहले शब्द को पकङकर दूसरी मंजिल में पहुँचना है ।
फ़िर दूसरे शब्द को पकङकर तीसरी मंजिल पर । फ़िर तीसरे शब्द को पकङकर चौथे देश में । और चौथा शब्द पकङकर पाँचवें देश में पहुँचना है । पाँचवीं मंजिल यानी सचखण्ड में पहुँचकर पाँचों शब्द एक हो जाते हैं । वही हमारा असली घर है । हम वहीं से आये हैं । और हमें वहीं लौटकर जाना है । और वहाँ पहुँचा जाता है । निर्वाणी नाम के द्वारा । अतः नानक साहब कहते हैं - जो हमें वहाँ पहुँचा दे । वही सदगुरु है ।
सबदु खोजि इहु घरु लहै नानकु ता का दासु ।
जो महात्मा शब्द नाम की कमाई करके सचखण्ड सतनाम पहुँच जाये । हम उसके दास है । और वह हमारा गुरु है । नानक साहब सचखण्ड पहुँची आत्मा को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं । जो कहते हैं कि - नानकु ता का दासु ।
परन्तु हम आत्मा के उद्धार की बात तो सोचते नहीं । कोई अच्छी खोज करते नहीं । बल्कि हमने सन्तों के उपदेशों और शिक्षाओं को मजहब और सम्प्रदाय ही बना लिया है । और ये मेरा धर्म ये तेरा धर्म करते हुये लङते रहते हैं । और सच्चाई को जानने की कोशिश नहीं करते ।
हिन्दू कहे मोहि राम प्यारा । तुरक कहे रहमाना । आपस में दोऊ लर लर मुये मरम न काहू जाना ।
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