31 जुलाई 2011

ये तो बहुत नाइंसाफ़ी है - नवदीप कौर

हैलो राजीव जी ! मैं आई तो आपके पास देर बाद हूँ । लेकिन सवाल कई दिन पहले से दिमाग में घूम रहे थे । लेकिन समझ नहीं पा रही थी कि कहाँ से बात शुरु करुँ । मेरा पूरा जून का महीना तो कनाडा में ही निकल गया था । तो आज फ़िर से बात शुरु करते हैं । मैं आपकी ये बात तो समझ गयी कि - परमात्मा और आत्मा ही अनादि है । ये अखिल सृष्टि अनादि नहीं है । ये आदि है । बनायी गयी है । या बनी है । या रची गयी है । सच्चे साहिब की कला का 1 प्रगटावा ।
आपने शायद किसी पुराने लेख में कहा था कि ये सृष्टि शायद कुछ अरब साल पुरानी है । लेकिन आप ये भी कहते हैं कि हर मनुष्य आत्मा अब तक असंख्य जन्म ले चुकी है । साथ में 84 और किस्म किस्म के नरक स्वर्ग आदि । इस हिसाब से तो ये सृष्टि अति अधिक पुरानी होनी चाहिये ।

ये भी बतायें कि क्या ये अखिल सृष्टि पहली बार ही बनाय़ी गयी है । क्या इससे पहले भी कोई ( जब इस सृष्टि का नाम ओ निशान तक नहीं था ) सृष्टि थी ? क्यूँ कि परमात्मा और आत्मा अनादि है । यानि सदा से है । हमेशा से है । जिनकी कभी शुरुआत ही नहीं हुई । ये भी बतायें कि प्रलय या महाप्रलय के बाद ये सृष्टि बिलकुल ही मिट जायेगी । या फ़िर प्रलय का अर्थ तत्वों का रूपान्तरण होना होता है ।
अगर मान लें कि ये अखिल सृष्टि 1 दिन मिट जायेगी ( महाप्रलय से ) क्या तब फ़िर कभी न कभी परमात्मा या उच्च सत्ता फ़िर से ऐसी या किसी अन्य प्रकार की सृष्टि का निर्माण कर सकती है । क्या ये भी सम्भव है कि अगली बार 5 तत्वों की बजाय कम या अधिक तत्वों की सृष्टि का निर्माण हो । या किसी अन्य तरह की सृष्टि बनाई जाये । क्युँ कि

परमात्मा बेअन्त है ( जिसका कोई अन्त ही नहीं है )
ये भी बतायें कि इस तरह निर्माण । और फ़िर कभी न कभी प्रलय । फ़िर से निर्माण । और फ़िर से प्रलय  आदि । क्या इस तरह ये सिलसिला अब निरन्तर सदा के लिये चलता रहेगा । क्या हर बार के निर्माण और विनाश ( प्रलय या महाप्रलय ) के समय आत्मा को तो कुछ भी नुकसान नही होता होगा ।
अब ये सिलसिला आदिकाल से शुरु हो चुका है । तो क्या इस हिसाब से अब द्वैत और अद्वैत दोनों का ही अस्तित्व हमेशा ही बना रहेगा ( 1 ही सिक्के के 2 पहलूओं की तरह )  ये भी बतायें कि क्या इस अखिल सृष्टि में अनेक बृह्माण्ड होने के कारण बृह्मा , विष्णु और महेश जैसे देवता भी अनेक होंगे ।
मैंने कबीर जी के बोल पता नहीं कहा पढे थे । शायद बाबा गोरखनाथ से बात कर रहे थे । कबीर जी से उनकी उमर पूछने पर । कबीर जी ने कहा था कि - करोडों बृह्मा विष्णु और महेश होकर समाप्त हो गये । न जाने कितने ही असंख्य  काल पुरुष और शक्तियाँ आये । और चले गये । मेरी इतनी उमर है ।
मेरे हिसाब से कबीर जी ने यहाँ अपने आत्मस्वरूप ( आत्मा ) की तरफ़ इशारा किया था । असल में यहाँ उनके कहने का मतलब अपने अनादि होने का था । इस बार सिर्फ़ शारीरिक चोले का नाम कबीर था । आपने किसी पुराने लेख में ये भी कहा था कि 84 का कोई 1 पक्का नियम नही है । किसी को उसके नीच कर्मों अनुसार किसी भी योनि ( 84 की ) में डाल दिया जा सकता है । यानि 84 की शुरुआत किसी भी योनि से की जा सकती है । ये बतायें कि क्या हर कोई फ़ुल 84 ही भोगता है । या किसी के हिस्से में हाफ़ 84 या फ़िर कम या अधिक योनियाँ भी आती होगी ।

क्युँ कि मैने किसी जगह पढा था कि किसी ऋषि ने कोई हिरण का बच्चा पाल लिया । उन्हें उससे मोह अधिक हो गया । उन्होंने अन्तिम समय भी उसकी तरफ़ ध्यान रखा । इससे वो ऋषि जी अगले जनम में हिरण के बच्चे के रूप में ही पैदा हुये । लेकिन अपने पुराने अच्छे संस्कारों के कारण उससे बिलकुल अगले जन्म में वो फ़िर ब्राह्मण कुल में जन्मे । क्या इस हिसाब से कोई व्यक्ति किसी गलती वश सिर्फ़ 1 योनि किसी पशु आदि की भोगकर फ़िर से मनुष्य बन सकता है । आपके अनुसार हर मनुष्य जन्म 84 काटकर यानि भोगकर ही मिलता है । चाहे इंसान अच्छा हो । या बुरा ।
ये तो फ़िर नाइंसाफ़ी है । आदमी अच्छा हो । या बुरा । हर बार 84 में ही जायेगा ? आपने ये भी कहा था कि सबसे


पहले गरीब घर में जन्म होता है ( सन्तमत से दीक्षा न लेने पर ) फ़िर 84 उसके बाद मध्य वर्ग में जनम होता है ( सन्तमत से दीक्षा न लेने पर ) फ़िर 84 फ़िर अमीर घर में जन्म होता है । अब आप ये बताईये कि अगर तब भी कोई सन्तमत से दीक्षा लेकर भगती न कर सके ( किसी कारणवश ) तो क्या तब उसका क्या होगा ? फ़िर से 84 । और दोबारा से फ़िर गरीब घर आदि आदि ।
वैसे जो लोग इस दुनिया या समाज में गरीब है । या गम्भीर रोगी हैं । उनके लिये तो ये मनुष्य जन्म भी नरक ही है । ये भी बताये कि अगर 2 दोस्त हैं । उनका आपस में संस्कार वश सम्बन्ध ( जिस वजह से वो मौजूदा जनम में दोस्त बने ) हैं ।
1 दोस्त भक्ति न करे । बिलकुल नास्तिक बना रहे । और दूसरा सन्तों वाली भक्ति से पूरी तरह जुड जाये । तो 1 तो ( भक्ति वाला ) देह अन्त होने के बाद मोक्ष को चला जायेगा । लेकिन दूसरा यहीं रह जायेगा । अगर भक्ति न करने वाले का उस भक्ति वाले से कोई संस्कार रूपी कर्म शेष रहता हो । तो वो कर्म कैसे भुगता जायेगा । आप मेरे इन सभी सवालों के जवाब बिलकुल स्पष्ट रूप से दे दीजिये ।
क्युँ कि मुझे रूप ने फोन पर वो बात बता दी है । इसलिये मैं भी तब दीक्षा लेने आऊँगी ( उस समय ) तब तक आप मेहरबानी करके मेरे सवालों के जवाब देते हुये मेरी सभी जिग्यासाएं शान्त कर दीजिये । इससे मुझे दीक्षा के समय तक कोई भी सवाल न बचा होने के कारण बहुत शान्ती और सकून का अनुभव महसूस होगा ।
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ये सृष्टि शायद कुछ अरब साल पुरानी है । लेकिन आप ये भी कहते हैं कि हर मनुष्य आत्मा अब तक असंख्य जन्म ले चुकी है । साथ में 84 और किस्म किस्म के नरक स्वर्ग आदि । इस हिसाब से तो ये सृष्टि अति अधिक पुरानी होनी चाहिये ।
- देखिये जिस दृष्टिकोण से आपने प्रश्न पूछा है । उस प्वाइंट पर मैंने आज तक विशेष गौर ही नहीं किया । पर इत्तफ़ाकन कबीर और गोरख संवाद द्वारा आपने स्वयँ ही इस प्रश्न का उत्तर दे दिया । यानी आत्मस्वरूप कबीर ने करोंङो बृह्मा विष्णु महेश कालपुरुष आध्या को उत्पन्न और समाप्त होते देखा । जबकि मनुष्य की तुलना में इनकी आयु बहुत अधिक होती है ।
जहाँ तक मुझे याद है । जिस लेख का आपने जिक्र किया है । उसमें मैं खासतौर पर " इस प्रथ्वी " को लेकर चला था । जिसकी आयु बैग्यानिक 4 अरब और मैं 6 अरब मानता हूँ । हो सकता है । मेरे समझाने या फ़िर आपके समझने में कहीं भूल हुयी हो ।

शास्त्रों और अन्य वाणियों में विराट पुरुष के रोम रोम में खण्ड बृह्माण्ड की बात कही गयी है । और सृष्टियों के प्रमुख कर्ता धर्ता - बृह्मा विष्णु महेश करोंङो बताये गये हैं । शास्त्रों में गहनता से अध्ययन करने पर अलग अलग मंडलों की प्रथ्वियों के अलग अलग नाम भी ( पर्यायवाची नहीं कह रहा ) आये हैं । करोंङों सूर्य और महा सूर्यों का भी वर्णन है । इसका सीधा और सरल सा मतलब ये है कि -
जिस तरह इस प्रथ्वी का सूर्य चन्द्रमा मंगल आदि 9 प्रमुख ग्रहों का एक मंडल हैं । और यहाँ की प्रजा को संभालने हेतु बृह्मा विष्णु महेश आदि पदवी वाली महा आत्मायें नियुक्त हैं । और ये मंडल अपने महा मंडल के अधीनता में रहते हैं । और महा मंडलों का संचालन दूसरी अन्य महा शक्तियों के हाथ में हैं । इसको भी सृष्टि ( 1 प्रथ्वी का मंडल ) कहा जाता है । लेकिन अखिल सृष्टि नहीं । और ऐसी सृष्टियाँ अनगिनत ( मानव गणना क्षमता अनुसार ) हैं ।

मैंने संभवत रूप कौर जी के ही किसी प्रश्न के उत्तर में कहा था । किसी प्रथ्वी पर आदिमानव काल चल रहा है ।  कहीं सतयुग । किसी प्रथ्वी पर कहीं द्वापर । कलियुग । प्रलय और कहीं नव निर्माण अवस्था ।

क्या ये अखिल सृष्टि पहली बार ही बनाय़ी गयी है । क्या इससे पहले भी कोई  सृष्टि थी ?
- अखिल सृष्टि रचना एक ही बार हुयी है । उसके बाद करने की आवश्यकता ही नहीं हुयी । आपकी जानकारी के लिये ये सृष्टि पूर्ण आत्मा द्वारा घबराहट मिली जुली अचम्भित अवस्था में बनी है । इसलिये ये विचित्र और विलक्षण बन गयी । जब मनुष्य आकार बन गया । तब पूर्ण आत्मा संतुष्ट हो गया । इससे पूर्व देव दानव आदि विचित्र जीव बनते रहे । मनुष्य अंतिम और फ़ायनल रचना थी ।
तब पूर्ण आत्मा ने सब रहस्य का पिटारा इस शरीर के अन्दर समायोजित कर दिया । और स्वयँ भी अप्रकट रूपा होकर इसी में स्थित हुआ । इसलिये भी मनुष्य शरीर की वैल्यू है ।


प्रलय या महाप्रलय के बाद ये सृष्टि बिलकुल ही मिट जायेगी । या फ़िर प्रलय का अर्थ तत्वों का रूपान्तरण होना होता है । क्या ये भी सम्भव है कि अगली बार 5 तत्वों की बजाय कम या अधिक तत्वों की सृष्टि का निर्माण हो । या किसी अन्य तरह की सृष्टि बनाई जाये ।
- पहले ही विचित्र और विलक्षण सृष्टि का निर्माण बहुत बङे स्तर पर कल्पनातीत ( यानी महा आत्माओं की कल्पना से भी परे ) हो चुका है । अभी भी कम अधिक तत्वों वाले । बहुत सी अन्य विविधताओं वाले जीव शरीरी देव आदि मौजूद है । और ये मामला जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रारम्भ से लेकर विकसित अवस्था तक मानिये ।
उदाहरण - जैसे इसी कंप्यूटर को ले लीजिये । इसका प्रोसेसर हार्ड वेयर आदि और DOS तथा विण्डोज फ़िर

सहयोगी अन्य साफ़टवेयर । ये सब मैटेरियल अब कई प्रकारों में एक बार ( अब तक जितना सरंक्षित हो चुका है । ) बनकर निर्माण विधि आवश्यक चीजें आदि सब जानकारी के रूप में सुरक्षित हैं ।
अब मान लीजिये । प्रलय में सब कुछ नष्ट हो जाये । मगर इसका जानकार नष्ट न हो । ( क्योंकि वह तो नष्ट होता ही नहीं )  तो वह पुनः निर्माण के समय फ़िर आसानी से उसको बना लेगा ।
इसी प्रकार ये सब बाह्य चीजें प्रलय में उसी कृम में वहीं समाती या लय होती जाती हैं । जहाँ से और जिस कृम से ये उत्पन्न हुयीं हैं । यानी एक तरह से वापस होना । यानी प्रकृति में ।
और प्रकृति पूर्ण आत्मा से उत्पन्न है । इसलिये बहीं लय हो जाती है ।
मतलब जिस तरह नष्ट होना । आप उसका मटियामेट समझ रही हो । वैसा नहीं होता । वह वापस अपने मूल में लय हो जाता है । नष्ट तो एक तिनका भी नहीं होता । न हो सकता है । सिर्फ़ उसका रूप परिवर्तन ही होता है ।
इस तरह निर्माण । और फ़िर कभी न कभी प्रलय । फ़िर से निर्माण । और फ़िर से प्रलय  आदि । क्या इस तरह ये सिलसिला अब निरन्तर सदा के लिये चलता रहेगा । क्या इससे आत्मा को कुछ नुकसान होता होगा ।


- आपकी जागृति नींद स्वपन और तुरियातीत ( गहरी नींद की अवस्था ) तथा तन्द्रा ( एक विचित्र पार अवस्था जिसमें जागते हुये भी कूछ पता नहीं रहता । जिसको - अभी कहाँ खो गये थे । कहा जाता है । ) के सभी पहलूओं को गौर से समझने पर उसमें ये सभी रहस्य पता चल जाते हैं । बस जीव और अजीव के पैमाने का अन्तर होता है । बाकी छोटा खेल और बङा खेल एकदम समान ही होता है । जिस तरह बादल आँधी तूफ़ान आदि आने से सूर्य का कुछ नहीं बिगङता । हालांकि कुछ देर के लिये लगता है । सूर्य गायब हो गया । या महत्वहीन हो गया । लेकिन कुछ ही देर बाद ये सब गायब हो जाते हैं । मगर सूर्य ज्यों का त्यों चमकता रहता है । यही स्थिति आत्मा की है ।
इस हिसाब से अब द्वैत और अद्वैत दोनों का ही अस्तित्व हमेशा ही बना रहेगा । क्या इस अखिल सृष्टि में अनेक बृह्माण्ड होने के कारण बृह्मा , विष्णु और महेश जैसे देवता भी अनेक होंगे ।
- द्वैत और अद्वैत को समझना भी अधिक कठिन नहीं हैं । ये आपके रोज के जीवन में है । जब आप पूरे दिन की चिल्ल पों से तंग आकर आराम करते हुये अकेले शांति से लेटकर केवल खुद ही खुद होते हैं ( यानी उस वक्त

आपको पति पत्नी बच्चे अन्य कोई भी नहीं सुहाता ) और आप गहरी नींद में चले जाते हैं । या जाना चाहते हैं । गहराई से सोचिये । उस वक्त आपके अन्दर संसार आदि कुछ नहीं रहता । यही अद्वैत है । अद्वैत में कुछ समय बिताने के बाद आप फ़िर से चैतन्य ( यहाँ विचारशील ) होते हैं । और फ़िर से वही सब दुनियादारी । यही द्वैत है । इसी उदाहरण से पूर्ण आत्मा का द्वैत अद्वैत भाव समझें ।
अगर आप गौर से इस स्थिति को समझ लें । तो इसी में सृष्टि प्रलय द्वैत अद्वैत सब है । फ़र्क इतना है कि ये आपका " जीव " स्तरीय द्वैत अद्वैत होना है । और पूर्ण आत्मा का " अजीव " स्तरीय यानी आपके तुलना में अपरम्पार हो जाता है । अन्य बीच की शक्तियों में भी ये उनके स्तर के अनुसार होता है । पर मुख्य बात समान ही है ।
आपके कैमरे की चिप खाली होना अद्वैत है । उसमें डाटा स्टोर होने पर वही द्वैत है । इसको खाली करना और स्टोर करने की विधि ग्यात होना ही योग है ।
कबीर जी ने कहा था कि - करोडों बृह्मा विष्णु और महेश होकर समाप्त हो गये । न जाने कितने ही असंख्य  काल पुरुष और शक्तियाँ आये । और चले गये । मेरी इतनी उमर है ।
- ये कहने वाला कबीर का शाश्वत आत्म रूप था । जाहिर है । उन्होंने एकदम सत्य ही कहा था ।
ये बतायें कि क्या हर कोई फ़ुल 84 ही भोगता है । या किसी के हिस्से में हाफ़ 84 या फ़िर कम या अधिक योनियाँ भी आती होगी ।


- सामान्य नियम के अंतर्गत फ़ुल 84 ही भोगनी होती है । कभी कभी दण्डस्वरूप या जङ भरत जैसी कोई बात बन जाने पर कम या आधी भी भोगनी होती है । सब कुछ आपके संचित कर्म संस्कारों पर निर्भर है । जैसे एक मुर्गी का अण्डा होते ही खा लिया जाता है । किसी अन्य संस्कार द्वारा वह कुछ आगे चिकन रूप में किसी का आहार बनकर मृत्यु को प्राप्त हो भोग पूरा करता है । कोई कोई मुर्गा या मुर्गी रूप में अधिक जीवित रहता है । तब आहार बनता है । और कोई कोई मुर्गा मुर्गी के रूप में अपनी आयु पूरी करके बिना आहार हुये ही मरता है । जब उसे कोई बीमारी या अन्य वजह से मौत हो जाती है । इसलिये ये सब कर्मरूपी फ़ल संस्कार की ही देन हैं । अब आप देखिये । एक ही तुच्छ जीव के 84 भोग में कितनी विभिन्नता है । अण्डा को मालूम भी नहीं पङा । और उसका एक जीवन भोग पूरा भी हो गया ।
किसी ऋषि ने कोई हिरण का बच्चा पाल लिया ...क्या इस हिसाब से कोई व्यक्ति किसी गलती वश सिर्फ़ 1 योनि किसी पशु आदि की भोगकर फ़िर से मनुष्य बन सकता है । आपके अनुसार हर मनुष्य जन्म 84 काटकर यानि भोगकर ही मिलता है । चाहे इंसान अच्छा हो । या बुरा ।
- जङ भरत नाम के ये उच्चकोटि के ग्यानी थे । ये प्रसंग मेरे ब्लाग पर पूर्व प्रकाशित है । ये किसी गलती या दण्ड से नहीं सिर्फ़ हिरण के बच्चे के मोह में बहुत थोङे समय के लिये हिरण रूप पैदा हुये थे । आत्मग्यानी होने से हिरण जन्म में भी इन्हें सब ग्यान रहा । अपनी गलती बोध होते ही इन्होंने उस शरीर से छुटकारा पाने के लिये खाना पीना त्याग दिया । और उस 84 शरीर से मुक्त हो गये ।


ये तो फ़िर नाइंसाफ़ी है । आदमी अच्छा हो । या बुरा । हर बार 84 में ही जायेगा ?
- ये जीवन जिसको आप मौज मस्ती वाला मायावश समझ बैठे हो । वास्तव में सही अर्थों में एक पाठशाला है । शरीर को किराये का घर और पार उतरने वाला वाहन कहा गया है । जिसको आपने अपना मानते हुये सच मान लिया ।
अब जब तक इसमें पढने वाला छात्र अच्छी तरह अध्ययन कर पास नहीं हो जाता । उसको बारबार पढना ही होगा । और बीच बीच में पढाई ( शरीर न रहने पर ) छूटने पर अग्यान वश वो 84 या अन्य नरक आदि गरीबी आदि दुर्दशा को भी प्राप्त होगा । क्योंकि उसने जीवन का वो अमूल्य समय गँवा दिया । जिसमें कुछ प्राप्त कर वो सुख को प्राप्त हो सकता था । अतः उसी कालेज का पढा हुआ कोई उच्च पदासीन होता है । और कोई रिक्शा खींचता है । कालेज एक ही था । पढाई एक ही थी । शिक्षक बही था । सिर्फ़ पढने वालों की लगन और लापरवाही का अन्तर आ गया । पढने और मेहनत करने वाला अमीर और सुखी होगा ही । और जिसने अमूल्य समय व्यर्थ गँवा दिया । अब उसने तो ठोकरें खानी ही हैं । फ़िर नाइंसाफ़ी कैसे हो गयी ।


ग्यान प्राप्ति में अच्छे बुरे स्वभाव का उतना महत्व नहीं है । एक पढाई में निपुण छात्र हो सकता है । एक फ़िसड्डी स्वभाव के तुलना में बुरे स्वभाव बुरे आचरण वाला हो । पर वह सावधानी से लक्ष्य प्राप्ति के प्रति प्रयत्नशील है । इसलिये वह प्राप्त भी करता है ।
श्रीकृष्ण ने कहा - मुक्ति कर्म ( आपके अनुसार अच्छा बुरा ) से नहीं ग्यान से होती है । हमारे महाराज जी कहते हैं - मुक्ति उसकी युक्ति जानने पर ही हो सकती है ।

ये भी बताये कि अगर 2 दोस्त हैं । उनका आपस में संस्कार वश सम्बन्ध हैं ।
1 दोस्त भक्ति न करे । बिलकुल नास्तिक बना रहे । और दूसरा सन्तों वाली भक्ति से पूरी तरह जुड जाये । तो 1 तो ( भक्ति वाला ) देह अन्त होने के बाद मोक्ष को चला जायेगा । लेकिन दूसरा यहीं रह जायेगा ।
- जैसा कि मैंने ऊपर कहा । भक्ति को आप सर्व सुख देने वाली पढाई जानिये । एक दोस्त पढकर राजा ( मोक्ष ) बन जाता है । और दूसरा मजदूर ( 84 ) ही रहता है । कालांतर में उनकी भेंट होती है । तो राजा यथासंभव उसका स्तर फ़िर से उठाने की चेष्टा करेगा । यही संस्कारी मिलन होगा । अगर वह गरीब दोस्त किसी जेल आदि मुसीबत या निर्धनता में होगा । तो राजा अपने प्रभाव से उसका समाधान करेगा । और ऐसा मिलन भेंटा तभी संभव होगा । जब कोई संस्कार होगा । इसका एक बहुत बङा उदाहरण हैं - श्रीकृष्ण सुदामा जी ।

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