- पुरूष और स्त्री का मार्ग मूलत: अलग अलग है । पुरुष का मार्ग ध्यान का है । स्त्री का मार्ग प्रेम का । पुरुष का मार्ग ज्ञान का है । स्त्री का मार्ग भक्ति का । उन दोनों की जीवन चित्त दशा बड़ी भिन्न है । बड़ी विपरीत है । पुरुष को प्रेम लगता है - बंधन । स्त्री को प्रेम लगता है - मुक्ति । इसलिए पुरुष प्रेम भी करता है । तो भी भागा भागा, डरा डरा कि कहीं बंध न जाएं । और स्त्री जब प्रेम करती है । तो पूरा का पूरा बंध जाना चाहती है । क्योंकि बंधन में ही उसने मुक्ति जानी है । तो पुरुष की भाषा जो है । वह है - कैसे छुटकारा हो ? कैसे संसार से मुक्ति मिले ? और स्त्री की जो खोज है । वह है - कैसे वह डूब जाए पूरी पूरी । कुछ भी पीछे न बचे ? तो संन्यास मूलतः पुरुषगत है । इसलिए बुद्ध भी झिझके । स्त्रियां प्रभाव में आ गयीं । स्त्रियां जल्दी प्रभाव में आती हैं । क्योंकि उनके पास ज्यादा संवेदनशील हृदय है । वे मांगने लगीं कि - हमें भी संन्यास दो । बुद्ध डरे । महावीर ने तो उनसे साफ कहा कि दे भी दूं । तो भी तुम्हारी मुक्ति इस जन्म में नहीं होगी । जब तक तुम पुरुष न हो जाओ । पुरुष पर्याय से ही मुक्ति
होगी । कारण साफ है । महावीर का मार्ग भक्ति का नहीं है । और बुद्ध का मार्ग भी भक्ति का नहीं है । इसलिए अड़चन है । स्त्री के लिए उनके मार्ग पर कोई सुविधा नहीं है । और स्त्री जब भी मुक्ति को उपलब्ध हुई है । तो वह मीरा की तरह नाचकर, प्रेम में परिपूर्ण डूबकर मुक्त हुई है । संसार से भागकर नहीं । संबंध से छूटकर नहीं । संबंध में पूरी तरह डूबकर । वह इतनी डूब गयी कि - मिट गयी । मिटने के 2 उपाय हैं । या तो तुम भीतर की तरफ जाओ । अपने केंद्र की तरफ जाओ । और उस जगह पहुंच जाओ । जहां तुम ही बचे । जहां तुम ही बचे । और कोई न बचा । वहाँ तुम भी मिट जाओगे । क्योंकि मैं के बचने के लिए तू की जरूरत है । तू के बिना मैं नहीं बच सकता । अगर तू बिलकुल छूट गया । यही संन्यास है । बुद्ध का । महावीर का । मेरा नहीं । बुद्ध महावीर का यही संन्यास है कि - अगर तू बिलकुल मिट जाए तुम्हारे चित्त से । तो मैं अपने आप गिर जाएगा । क्योंकि वे 1 ही सिक्के के 2 पहलू हैं । तू के बिना मैं का कोई अर्थ नहीं रह जाता । मैं गिर जाएगा । तुम शून्य को उपलब्ध हो जाओगे ।
स्त्री का मार्ग दूसरा है । वह कहती है - मैं को इतना गिराओ कि तू ही बचे । प्रेमी ही बचे । प्रीतम ही बचे । और जब मैं बिलकुल गिर जाएगा । और तू ही बचेगा । तो तू भी मिट जाएगा । क्योंकि तू भी अकेला नहीं बच सकता । मंजिल पर तो दोनों पहुंच जाते हैं - शून्य की । या पूर्ण की । मगर राह अलग है । स्त्री मैं को खोकर पहुंचती है । पुरुष तू को खोकर पहुंचता है । पहुंचते दोनों वहाँ हैं । जहां न मैं बचता है । न तू बचता है ।
जिसने दिल को खोया । उसी को कुछ मिला । फायदा देखा इसी नुकसान में । यह स्त्री की बात है - जिसने दिल को खोया उसी को कुछ मिला । फायदा देखा इसी नुकसान में ।
इसलिए बुद्ध महावीर शंकित थे । संदिग्ध थे - स्त्री को लाना ? और उनका डर स्वाभाविक था । क्योंकि स्त्री आयी कि प्रेम आया । और प्रेम आया कि - उनके पुरुष भिक्षु मुश्किल में पड़े । वह डर उनका स्वाभाविक था । वह डर यह था कि अगर स्त्री को मार्ग मिला । और स्त्री संघ में सम्मिलित हुई । तो वे जो पुरुष भिक्षु हैं । वे आज नही कल स्त्री के प्रेम के जाल में गिरने शुरू हो जाएंगे । और वही हुआ भी । बुद्ध ने कहा था कि - अगर स्त्रियों को मैं दीक्षा न देता । तो 5000 साल मेरा धर्म चलता । अब 500 साल चलेगा । 500 साल भी मुश्किल से चला । चलना कहना ठीक नहीं है - लंगड़ाया, घिसटा । और जल्दी ही पुरुष अपने ध्यान को भूल गए । पुरुष को उसके ध्यान से डिगाना आसान है । स्त्री को उसके प्रेम से डिगाना मुश्किल है ।
अगर तुम मुझसे पूछते हो । तो मैं यह कहता हूं कि - बुद्ध और महावीर ने यह स्वीकार कर लिया कि स्त्री बलशाली है । पुरुष कमजोर है । अगर स्त्री को दिया - मार्ग अंदर आने का । तो उन्हें अपने पुरुष संन्यासियों पर भरोसा नही । वे खो जाएंगे । स्त्री का प्रेम प्रगाढ़ है । वह डुबा लेगी उनको । उनका ध्यान व्यान ज्यादा देर न चलेगा । जल्दी ही उनके ध्यान में प्रेम की तरंगें उठने लगेंगी । स्त्री बलशाली है । होना भी चाहिए । वह प्रकृति के ज्यादा अनुकूल है । पुरुष जरा दूर निकल गया है - प्रकृति से । अपने अहंकार में । स्त्री अपने प्रेम में अभी भी पास है । इसलिए स्त्री को हम प्रकृति कहते हैं । पुरुष को पुरुष । स्त्री को प्रकृति । प्रकृति का डर था - महावीर और बुद्ध दोनों को । उनके
संन्यासियों का डावांडोल हो जाना निश्चित था । लेकिन मैं भयभीत नहीं हूं । क्योंकि मैं कहता हूं - स्त्रियां प्रेम के मार्ग से जाएं । और जिनका ध्यान डगमगा जाए । अच्छा ही है कि डगमगा जाए । क्योंकि ऐसा ध्यान भी 2 कौड़ी का । जो डगमगा जाता हो । वह डगमगा ही जाए । वही अच्छा । जब डूबना ही है । तो नौका में क्या डूबना । नदी में ही डूब जाना । मैं मानता हूं कि - प्रेम स्त्री का तुम्हें घेरे । और तुम्हारा ध्यान न डगमगाए । तो कसौटी पर उतरा सही । और जो प्रेम से न डगमगाए - ध्यान । वही ध्यान समाधि तक ले जाएगा । जो प्रेम से डगमगा जाए । उसे अभी समाधि वगैरह तक जाने का उपाय नहीं । वह भाग आया होगा । प्रेम से बचकर । प्रेम की पीड़ा से बचकर । प्रेम से डरकर भाग आया होगा । इसलिए मेरे लिए कोई अड़चन नहीं है । मैंने पहला संन्यास स्त्री को ही दिया । ये महावीर और बुद्ध को कहने को कि सुनो । तुम घबड़ाते थे । हम पुरुष को पीछे देंगे । पुरुष ध्यान करे । स्त्री प्रेम करे । क्या अड़चन है ? स्त्री तुम्हारे पास प्रेम का पूरा माहौल बना दे । वातावरण बना दे । तो भी तुम्हारे ध्यान की लौ अडिग रह सकती है । कोई प्रयोजन नहीं है - कंपने का । सच तो यह है कि जब प्रेम की हवा तुम्हारे चारो तरफ हो । तो ध्यान और गहरा हो जाना चाहिए । लेकिन अगर तुम अधकचरे भाग आए संसार से । तो डगमगाओगे । तो उनके लिए मेरे पास कोई जगह नहीं । उनको मैं कहता हूं - तुम वापस जाओ । प्रेम को मैं कसौटी बनाता हूँ - ध्यान का । और ध्यान को मैं कसौटी बनाता हूं - प्रेम की । पुरुष अगर ध्यान में हो । तो स्त्री कितना ही प्रेम करे । पुरुष डगमगाएगा नहीं । उसके निष्कंप ध्यान से ही करुणा उतरेगी स्त्री की तरफ । वासना नहीं । और वही करुणा तृप्त करती है । वासना किसी स्त्री को कभी तृप्त नहीं करती । इसलिए तो कितनी ही वासना मिल जाए । स्त्री बेचैन बनी रहती है । कुछ खोया खोया लगता है । मेरा जानना है कि स्त्री को जब तक परमात्मा ही प्रेमी की तरह न मिले । तब तक तृप्ति नहीं होती । और जब तुम किसी ध्यानी व्यक्ति के प्रेम में पड़ जाओ । तो परमात्मा मिल गया । तो ध्यान प्रेम को बढ़ाएगा । क्योंकि ध्यान तुम्हारे प्रेमी को दिव्य बना देता है । और प्रेम ध्यान को बढ़ाएगा । क्योंकि प्रेम जो तुम्हारे चारों तरफ 1 परिवेश निर्मित करता है । उस परिवेश में ही ध्यान का अंकुरण हो सकता है । इसलिए मैं ध्यान और प्रेम में कोई विरोध नहीं देखता । ध्यान और प्रेम में 1 गहरा समन्वय देखता हूं । होना ही चाहिए । जब स्त्री और पुरुष में इतना गहरा संबंध है । तो ध्यान और प्रेम में भी इतना ही गहरा संबंध होना चाहिए । और जब स्त्री और पुरुष से मिलकर 1 जीवन पैदा होता है । 1 बच्चा पैदा होता है । तो मेरी समझ है कि ध्यान और प्रेम के मिलने से ही पुनर्जीवन उपलब्ध होता है । तुम्हारा नव जन्म होता है । ओशो
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आनंद क्या है ? सुख तो 1 उत्तेजना है । और दुख भी । प्रीतिकर उत्तेजना को सुख । और अप्रीतिकर को हम दुख कहते हैं । आनंद दोनों से भिन्न है । वह उत्तेजना की नहीं । शांति की अवस्था है । सुख को जो चाहता है । वह निरंतर दुख में पड़ता है । क्योंकि 1 उत्तेजना के बाद दूसरी विरोधी उत्तेजना । वैसे ही अपरिहार्य है । जैसे कि पहाड़ों के साथ घाटियां होती हैं । और दिन के साथ रात्रि । किंतु जो सुख और दुख दोनों को छोड़ने के लिए तत्पर हो जाता है । वह उस आनंद को उपलब्ध होता है । जो कि शाश्वत है । ह्वांग पो 1 कहानी कहता था । किसी व्यक्ति का एकमात्र पुत्र गुम गया था । उसे गुमे बहुत दिन बहुत बरस बीत गए । सब खोजबीन करके वह व्यक्ति भी थक गया । फिर धीरे धीरे वह घटना को ही भूल गया । तब अनेक वर्षो बाद उसके द्वार 1 अजनबी आया । और उसने कहा - मैं आपका पुत्र हूं । आप पहचाने नहीं ? पिता प्रसन्न हुआ । उसने घर लौटे पुत्र की खुशी में मित्रों को प्रीतिभोज दिया । उत्सव मनाया । और उसका स्वागत किया । लेकिन वह तो अपने पुत्र को भूल ही गया था । और इसलिए इस दावेदार को पहचान नहीं सका । पर थोड़े दिन बाद ही पहचानना भी हो गया । वह व्यक्ति उसका पुत्र नहीं था । और समय पाकर वह उसकी सारी संपत्ति लेकर भाग गया था । फिर ह्वांग पो कहता था कि - ऐसे ही दावेदार प्रत्येक के घर आते हैं । लेकिन बहुत कम लोग हैं । जो कि उन्हें पहचानते हों । अधिक लोग तो उनके धोखे में आ जाते हैं । और अपनी जीवन संपत्ति खो बैठते हैं । आत्मा से उत्पन्न होने वाले वास्तविक आनंद की बजाय । जो वस्तुओं और विषयों से निकलने वाले सुख को ही आनंद समझ लेते हैं । वे जीवन की अमूल्य संपदा को अपने ही हाथों नष्ट कर देते हैं । स्मरण रखना कि - जो कुछ भी बाहर से मिलता है । वह छीन भी लिया जावेगा । उसे अपना समझना भूल है । स्वयं का तो वही है । जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है । वही वास्तविक संपदा है । उसे न खोजकर जो कुछ और खोजता है । वे चाहे कुछ भी पा लें । अंतत: वे पायेंगे कि - उन्होंने कुछ भी नहीं पाया है । और उल्टे उसे पाने की दौड़ में वे स्वयं जीवन को ही गंवा बैठे हैं ।
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