चंद न सूर पवन नहीं पानी क्यों कर करूँ बखानी ।
इस दुनियाँ में तो सूरज है । चन्द्रमा है । हवा है । पानी है । लेकिन वहाँ न पानी है । न पवन । न चाँद । न सूरज । वहाँ की अदभुत बात ही निराली है । उसका वर्णन वाणी से अब कैसे हो । उसकी जैसी मिसाल यहाँ की किसी चीज से हो ही नहीं सकती ।
सुन्न न गगन धरनि नहिं तारा अलह रब्ब नहिं रामी ।
उसके जैसा उदाहरण न तो जमीन पर है । न ही आसमान में है । न वह अल्लाह है । न वह राम है । न रब्ब है । न गाड है । न बृह्म है । न पारबृह्म है । वह सुन्न ( शून्य 0 ) भी नहीं है । वह आकाश भी नहीं है । वह प्रथ्वी भी नहीं है । बल्कि वह अवर्णनीय परमानन्द दायी परमात्मा इन सबसे परे है ।
काह कहूँ कहिबे को नाहीं जानत संत सुजानी ।
तब अब मैं क्या कहूँ ? यह कहने की बात ही नहीं है । जो संत सुजान महात्मा निर्वाणी नाम द्वारा वहाँ पहुँच पाये हैं । सिर्फ़ वे ही उसका आनन्द महात्म्य जानते हैं । जो अभागे पहुँचे ही नहीं । उन्हें भला कैसे और क्या खबर होगी ।
वेद न भेद भेष नहीं जानत । कोऊ देत न हामी ।
वेद काल निरंजन की स्वांस से पैदा हुये हैं । वेदों का स्थान दूसरी मंजिल है । जबकि यह आठवीं मंजिल का वर्णन है । जो ये दुनियाँ है । ये बाहरी भेष में है । अतः सब लोग जो निर्वाणी नाम ग्यान को नहीं जानते । बाहर ही बाहर भटकते हुये रह जाते हैं । मुश्किल यह है कि इसकी गवाही देने वाला कोई नहीं होता । जो कहे कि तूने जो देखा । वह ठीक है । इसकी हामी कोई नहीं भरता ।
तब स्वयँ विचार करो । हमारे धर्म गृंथ रामायण गीता कुरआन बाइबिल श्री गुरुगृंथ साहिब आदि ये पोथियाँ क्या हैं ?
जो भी सन्त महात्मा ऋषि मुनि पीर फ़कीर फ़ुकाए कामिल जिन्होंने इस निर्वाणी नाम की कमाई की । मेहनत की । घट अन्दर का परदा खोला । और ऊपर की रुहानी मंजिलों पर गये । और जो नजारे उन्होंने वहाँ जाकर देखें । उनकी पूरी तफ़सील ( विवरण ) ही वे आगे आने वाले ( और मोक्ष की भावना वाले ) लोगों के लिये गृंथों पोथियों में दर्ज ( लिख ) कर गये ।
लेकिन फ़िर भी जो नजारे उन्होंने देखे । जो लज्जत अवर्णनीय आनन्द उन्हें प्राप्त हुआ । वो पोथियों में नहीं है । जैसे किसी खाना मिठाई आदि बनाने वाली किताब में लड्डू पेङे रसगुल्ला छेना इमरती रसमलाई सोन पपङी आदि नाम लिखे होते हैं । और उनकी विधि भी लिखी होती है ।
तो क्या उस किताब को पढने से आपको मिठाई का स्वाद आयेगा ? या आपका पेट भर जायेगा ? कभी नहीं ।
अगर किसी की बेंक की पासबुक में करोंङो रुपये जमा है । और कोई बन्दा उस पासबुक को हासिल कर ले । तो क्या वह करोंङो रुपये का मालिक बन गया । कभी नही । नेवर । रुपये तो ज्यों के त्यों अभी भी खजाने में ही हैं ।
इसी तरह इन किताबों रामायण गीता कुरआन बाइबिल श्री गुरुगृंथ साहिब में राम खुदा रब्ब गाड नहीं है । बल्कि वह तुम्हारे अन्दर है । इन किताबों में तो सिर्फ़ उसको प्राप्त करने की विधि है । तरीका है । उस तरीके को अपनाओ । और आप किताब रटने में लगे हुये हो । किताबों में सिर्फ़ उसकी महिमा है । वो खुद नहीं है । उससे मिलने का बस रास्ता है..मेरे भाई ।
किसी किताब में मिश्री के गुण तारीफ़ अवश्य हो सकते हैं । पर उसका स्वाद और खाने से होने वाला लाभ किताब भला कैसे दे पायेगी । ये दोनों तो मिश्री खाने पर ही प्राप्त होंगे ।
उसी प्रकार परमात्मा और परमानन्द किताबों में नहीं विधि द्वारा उसे प्राप्त करने में ही है । और वह विधि सिर्फ़ सुरति शब्द योग ही है ।
डाक्टरी किताबों में दवाईयाँ नहीं होती । सिर्फ़ नुस्खे लिखे होते हैं । दवाईयाँ तो अस्पताल या मेडिकल शाप पर ही मिलेंगी । इंजीनियर की किताब में लकङी लोहा चूना सीमेंट सरिया आदि नहीं होते । बल्कि वे अपने स्थान पर ही होते हैं ।
सोचो ! अगर किसी के मकान का नक्शा बनाकर उसके सामने रख दिया जाय । तो उसका मकान तो नहीं बन जाता । क्या वह उस नक्शे में रह सकता है ? और मकान का सुख प्राप्त कर सकता है ? कभी नहीं । नैवर ।
इसलिये मेरे भाईयो ! परमात्मा किताबों वेदों शास्त्रों गंथों पोथियों रामायण गीता कुरआन बाइबिल श्री गुरुगृंथ साहिब आदि में नहीं है ।
बल्कि ये किताबें ही खुद कह रही हैं । वह तुम्हारे अन्दर ही है । इन किताबों में तो सिर्फ़ उसका जिक्र भर किया गया । अगर इन किताबों से कहा जाये । लाओ । परमात्मा को दिखाओ । उससे हमें मिलाओ । तो ये कोई जबाब नहीं देती । इसलिये सिर्फ़ किताबें पढो मत । कुछ गुनो भी । कुछ तरकीब भी तो करो । ये जो सन्तों का मार्ग है । ये बङा ऊँचा मार्ग है ।
दादू दृग दीदार हिये के सूरत करत सलामी ।
इसलिये मेरे अन्दर की आँखे खुल गयी हैं । और मैं परम पिता परमेश्वर परमात्मा को साक्षात देखता हूँ । मेरी रूह उनको सलाम करती है ।
नानक साहिब भी कहते हैं - नानक से अखङीआं बिअनि जिन्ही डिसंदो मा पिरी ।
अर्थात - वे आँखे और ही होती हैं । जिनसे परमात्मा को देखा जाता है । और ये तरकीब सिर्फ़ सदगुरु के पास है ।
मैं पिया प्यारी प्यारे पिया अपने मिल रहे एक ठिकानी ।
मैंने उस कुल मालिक के देश में पहुँचकर उसका विसाल ( दर्शन ) प्राप्त किया है । वह मेरा पति ( स्वामी परमात्मा ) है । और मैं उसकी स्त्री ( आत्मा रूह ) हूँ । इस शरीर के अन्दर ही रूह है । और अन्दर ही वह वाहिगुरु अकाल पुरुष है ।
पर हाय ! करोंङो जन्म यूँ ही वृथा बीत गये । और स्त्री और पति एक ही सेज पर हैं । परन्तु न स्त्री ने पति को देखा । और न वह सुहागिन ही हुयी ।
जब आत्मा इन पिंडी 9 द्वारों को छोङकर ऊपर जायेगी । और शब्द धुनि का आनन्द लेगी । तब ही ये सुहागिन हो पायेगी ।
इसी तरह की एक और वाणी भी है ।
- एका संगति इकतु गुहि बसते मिलि बात न करते भाई ।
आत्मा और परमात्मा । एक ही साथ । एक ही घर में सदा से रहते आ रहे हैं । लेकिन बात करना । और मिलना नहीं हो पा रहा है । इस बात का बङा अफ़सोस ही है ।
सूरत सार सिंध लख पाई यह गति बिरले जानी ।
इसलिये मेरी रूह तो बूँद की तरह उस समुद्र के समान कुल मालिक में जाकर ही लीन हो गयी । मेरी रूह का कतरा समन्दर से मिलकर समन्दर ही हो गया । इस भेद को कोई बिरला ही समझेगा । जिसने कि खुद इसे अपनी आँखों ( अंतर चक्षुओं ) से देखा हो ।
इस दुनियाँ में तो सूरज है । चन्द्रमा है । हवा है । पानी है । लेकिन वहाँ न पानी है । न पवन । न चाँद । न सूरज । वहाँ की अदभुत बात ही निराली है । उसका वर्णन वाणी से अब कैसे हो । उसकी जैसी मिसाल यहाँ की किसी चीज से हो ही नहीं सकती ।
सुन्न न गगन धरनि नहिं तारा अलह रब्ब नहिं रामी ।
उसके जैसा उदाहरण न तो जमीन पर है । न ही आसमान में है । न वह अल्लाह है । न वह राम है । न रब्ब है । न गाड है । न बृह्म है । न पारबृह्म है । वह सुन्न ( शून्य 0 ) भी नहीं है । वह आकाश भी नहीं है । वह प्रथ्वी भी नहीं है । बल्कि वह अवर्णनीय परमानन्द दायी परमात्मा इन सबसे परे है ।
काह कहूँ कहिबे को नाहीं जानत संत सुजानी ।
तब अब मैं क्या कहूँ ? यह कहने की बात ही नहीं है । जो संत सुजान महात्मा निर्वाणी नाम द्वारा वहाँ पहुँच पाये हैं । सिर्फ़ वे ही उसका आनन्द महात्म्य जानते हैं । जो अभागे पहुँचे ही नहीं । उन्हें भला कैसे और क्या खबर होगी ।
वेद न भेद भेष नहीं जानत । कोऊ देत न हामी ।
वेद काल निरंजन की स्वांस से पैदा हुये हैं । वेदों का स्थान दूसरी मंजिल है । जबकि यह आठवीं मंजिल का वर्णन है । जो ये दुनियाँ है । ये बाहरी भेष में है । अतः सब लोग जो निर्वाणी नाम ग्यान को नहीं जानते । बाहर ही बाहर भटकते हुये रह जाते हैं । मुश्किल यह है कि इसकी गवाही देने वाला कोई नहीं होता । जो कहे कि तूने जो देखा । वह ठीक है । इसकी हामी कोई नहीं भरता ।
तब स्वयँ विचार करो । हमारे धर्म गृंथ रामायण गीता कुरआन बाइबिल श्री गुरुगृंथ साहिब आदि ये पोथियाँ क्या हैं ?
जो भी सन्त महात्मा ऋषि मुनि पीर फ़कीर फ़ुकाए कामिल जिन्होंने इस निर्वाणी नाम की कमाई की । मेहनत की । घट अन्दर का परदा खोला । और ऊपर की रुहानी मंजिलों पर गये । और जो नजारे उन्होंने वहाँ जाकर देखें । उनकी पूरी तफ़सील ( विवरण ) ही वे आगे आने वाले ( और मोक्ष की भावना वाले ) लोगों के लिये गृंथों पोथियों में दर्ज ( लिख ) कर गये ।
लेकिन फ़िर भी जो नजारे उन्होंने देखे । जो लज्जत अवर्णनीय आनन्द उन्हें प्राप्त हुआ । वो पोथियों में नहीं है । जैसे किसी खाना मिठाई आदि बनाने वाली किताब में लड्डू पेङे रसगुल्ला छेना इमरती रसमलाई सोन पपङी आदि नाम लिखे होते हैं । और उनकी विधि भी लिखी होती है ।
तो क्या उस किताब को पढने से आपको मिठाई का स्वाद आयेगा ? या आपका पेट भर जायेगा ? कभी नहीं ।
अगर किसी की बेंक की पासबुक में करोंङो रुपये जमा है । और कोई बन्दा उस पासबुक को हासिल कर ले । तो क्या वह करोंङो रुपये का मालिक बन गया । कभी नही । नेवर । रुपये तो ज्यों के त्यों अभी भी खजाने में ही हैं ।
इसी तरह इन किताबों रामायण गीता कुरआन बाइबिल श्री गुरुगृंथ साहिब में राम खुदा रब्ब गाड नहीं है । बल्कि वह तुम्हारे अन्दर है । इन किताबों में तो सिर्फ़ उसको प्राप्त करने की विधि है । तरीका है । उस तरीके को अपनाओ । और आप किताब रटने में लगे हुये हो । किताबों में सिर्फ़ उसकी महिमा है । वो खुद नहीं है । उससे मिलने का बस रास्ता है..मेरे भाई ।
किसी किताब में मिश्री के गुण तारीफ़ अवश्य हो सकते हैं । पर उसका स्वाद और खाने से होने वाला लाभ किताब भला कैसे दे पायेगी । ये दोनों तो मिश्री खाने पर ही प्राप्त होंगे ।
उसी प्रकार परमात्मा और परमानन्द किताबों में नहीं विधि द्वारा उसे प्राप्त करने में ही है । और वह विधि सिर्फ़ सुरति शब्द योग ही है ।
डाक्टरी किताबों में दवाईयाँ नहीं होती । सिर्फ़ नुस्खे लिखे होते हैं । दवाईयाँ तो अस्पताल या मेडिकल शाप पर ही मिलेंगी । इंजीनियर की किताब में लकङी लोहा चूना सीमेंट सरिया आदि नहीं होते । बल्कि वे अपने स्थान पर ही होते हैं ।
सोचो ! अगर किसी के मकान का नक्शा बनाकर उसके सामने रख दिया जाय । तो उसका मकान तो नहीं बन जाता । क्या वह उस नक्शे में रह सकता है ? और मकान का सुख प्राप्त कर सकता है ? कभी नहीं । नैवर ।
इसलिये मेरे भाईयो ! परमात्मा किताबों वेदों शास्त्रों गंथों पोथियों रामायण गीता कुरआन बाइबिल श्री गुरुगृंथ साहिब आदि में नहीं है ।
बल्कि ये किताबें ही खुद कह रही हैं । वह तुम्हारे अन्दर ही है । इन किताबों में तो सिर्फ़ उसका जिक्र भर किया गया । अगर इन किताबों से कहा जाये । लाओ । परमात्मा को दिखाओ । उससे हमें मिलाओ । तो ये कोई जबाब नहीं देती । इसलिये सिर्फ़ किताबें पढो मत । कुछ गुनो भी । कुछ तरकीब भी तो करो । ये जो सन्तों का मार्ग है । ये बङा ऊँचा मार्ग है ।
दादू दृग दीदार हिये के सूरत करत सलामी ।
इसलिये मेरे अन्दर की आँखे खुल गयी हैं । और मैं परम पिता परमेश्वर परमात्मा को साक्षात देखता हूँ । मेरी रूह उनको सलाम करती है ।
नानक साहिब भी कहते हैं - नानक से अखङीआं बिअनि जिन्ही डिसंदो मा पिरी ।
अर्थात - वे आँखे और ही होती हैं । जिनसे परमात्मा को देखा जाता है । और ये तरकीब सिर्फ़ सदगुरु के पास है ।
मैं पिया प्यारी प्यारे पिया अपने मिल रहे एक ठिकानी ।
मैंने उस कुल मालिक के देश में पहुँचकर उसका विसाल ( दर्शन ) प्राप्त किया है । वह मेरा पति ( स्वामी परमात्मा ) है । और मैं उसकी स्त्री ( आत्मा रूह ) हूँ । इस शरीर के अन्दर ही रूह है । और अन्दर ही वह वाहिगुरु अकाल पुरुष है ।
पर हाय ! करोंङो जन्म यूँ ही वृथा बीत गये । और स्त्री और पति एक ही सेज पर हैं । परन्तु न स्त्री ने पति को देखा । और न वह सुहागिन ही हुयी ।
जब आत्मा इन पिंडी 9 द्वारों को छोङकर ऊपर जायेगी । और शब्द धुनि का आनन्द लेगी । तब ही ये सुहागिन हो पायेगी ।
इसी तरह की एक और वाणी भी है ।
- एका संगति इकतु गुहि बसते मिलि बात न करते भाई ।
आत्मा और परमात्मा । एक ही साथ । एक ही घर में सदा से रहते आ रहे हैं । लेकिन बात करना । और मिलना नहीं हो पा रहा है । इस बात का बङा अफ़सोस ही है ।
सूरत सार सिंध लख पाई यह गति बिरले जानी ।
इसलिये मेरी रूह तो बूँद की तरह उस समुद्र के समान कुल मालिक में जाकर ही लीन हो गयी । मेरी रूह का कतरा समन्दर से मिलकर समन्दर ही हो गया । इस भेद को कोई बिरला ही समझेगा । जिसने कि खुद इसे अपनी आँखों ( अंतर चक्षुओं ) से देखा हो ।
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