30 जुलाई 2011

एकाग्रता बढ़ाने की यह प्राचीन पद्धति है

स्त्री - जये धरित्रियाः पुरमेव सारं पुरे गृहं सद्मनि चैक देशः । 
तत्रापि शैया शयने वरा स्त्री रत्नोज्ज्वला राज्यसुखस्य सारः । 
राजा सारी पृथ्वी को जीतकर भी केवल राजधानी में ही महल बनाता है । सारी राजधानी में भी अपना घर ही सारभूत होता है । सारे घर में भी केवल अपना शयन कक्ष ही विश्राम स्थान है । शयन कक्ष में भी केवल शैय्या ही सारभूत है । तथा शैय्या पर भी उत्तम रत्नों से युक्त अपनी पत्नी ही सारभूत है ।
रत्नानि विभूषयन्ति योषा भूष्यन्ते वनिता न रत्नकान्त्या । 
चेतो वनिता हरन्त्यरत्ना नो रत्नानि विनाङ्गनाङ्गसङ्गम । 
रत्नों की शोभा स्त्रियों से होती है । रत्नों से स्त्री की शोभा नहीं होती । क्योकि बिना रत्न के ही स्त्री मन को हर लेती है । जबकि रत्न तभी अपना पूरा प्रभाव दिखाते हैं । जब कोई सुन्दर स्त्री उन्हें धारण कर ले । श्रुतं दृष्टं स्पृष्टम स्मृतं अपि न्रिणाम ह्लाद जननं । 
न रत्नम स्त्रीभ्यो अन्यत क्वचिदपि कृतं लोकपतिना । 
तदर्थं धर्मार्थौ सुतविषयसौख्यानि च ततो गृहे । 
लक्ष्म्यो मान्याः सततमबला मानविभवै: । 
ब्रह्मा ने सबसे कीमती रत्न स्त्री को ही बनाया है । स्त्री से बढ़कर कोई रत्न इस धरती पर न सुना गया । न देखा गया । न छुआ गया । न याद आता है । जो मनुष्यों को एकदम प्रसन्नता से भर देता है । धर्म एवं अर्थ का साधन भी स्त्री के निमित्त ( काम साधन ) ही किया जाता है । स्त्री के कारण ही पुत्र, धन एवं सुख मिलता है । इन्द्रिय सुख भी स्त्री के ही अधीन है । स्त्रियाँ घर में लक्ष्मी रूप होती है । अतः स्त्री को सदैव सम्मान देना चाहिये । ऐश्वर्य पूर्वक उनकी रक्षा करनी चाहिये ।
ये अप्यङ्गनानाम प्रवदन्ति दोषान वैराग्यमार्गेण गुणान विहाय । 
ते दुर्जना पंडित में मनसो वितर्कः सद्भाववाक्यानि न तानि तेषाम । 
जो लोग स्त्रियों के विशिष्ट गुणों का अनादर करते हुए वैराग्य भावना से स्त्रियों की बुराई करते है । वे लोग दुर्जन हैं । ऐसा मेरा ( पंडित राय ) का विचार है । वे लोग अपने साफ मन से यह बात नहीं कहते ।
प्रब्रूत सत्यं कतरो अङ्गनानां दोषों अस्ति यो नाचरितो मनुष्यिः । 
स्त्रियों का ऐसा कौन सा दोष या गुनाह है । जो पुरुष ने स्वयं न किया हो ? बहुत से पुरुष तो अपनी दुष्टता से, अपनी निर्लज्जता से, स्त्रियों को कुमार्ग पर चला देते है । उसमें पुरुषो का ही अधिक दोष है । स्त्रियाँ पुरुषो से अधिक गुणों वाली है । ऐसा मनु ने कहा है ।
सोमस्तासामदाच्छौचम गन्धर्वः शिक्षिताम गिरम । 
अग्निश्च सर्वभक्षित्वं तस्मान्निष्कसमाः स्त्रियः । 
मनु ने कहा है कि सोम ( चन्द्रमा ) ने स्त्रियों को पवित्रता दी है । गन्धर्वो ने खनकती हुई आवाज दी है । अग्नि ने उन्हें सर्वभक्षित्व दिया है । अतः स्त्रियाँ तपे हुए कुंदन के समान हैं ।
ब्राह्मणाः पादतो मेध्या गावो मेध्याश्च पृष्ठतः । 
अजाश्वा मुखतो मेध्या: स्त्रियों मेध्यास्तु सर्वतः । 
ब्राह्मण लोग पैरो की तरफ से पवित्र होते है । गाय पीछे से पवित्र होती है । बकरी एवं घोड़े मुख की ओर से शुद्ध होते हैं । जबकि स्त्रियाँ सब अंगों से पवित्र होती हैं ।
स्त्रियः पवित्रमतुलं नैता दुष्यन्ति कर्हिचित । 
मासि मासि रजो ह्यासाम दुष्कृतान्यपकर्षति । 
स्त्रियाँ परम पवित्र होती हैं । ये कभी दूषित नहीं होती हैं । क्योकि प्रत्येक मास में रजोधर्म के कारण बहने वाला रक्त इनके सब पापों को दूर कर देता है ।
जाया वा स्याज्जनित्री वा संभवः स्त्रीकृतो न्रिणाम । 
हे कृतघ्नास्तयोर्निन्दाम कुर्वतां वः कुतः शुभम ? 
स्त्री माता रूप में हो । या पत्नी रूप में । दोनों ही रूप प्रशंसनीय है । पुनश्च संतानवती पत्नी तो माता व स्त्री का संयुक्त रूप होने से अधिक श्रेयोभागिनी है । अतः हे कृतघ्न पुरुष ! तुझे पैदा करने वाली स्त्री । या तेरे प्रति रूप पुत्र को उत्पन्न करने वाली स्त्री । दोनों ही रूपों में प्रशंसनीय है । उसकी निंदा न करो । अन्यथा तुम्हारा कल्याण कैसे होगा ?
आत्मा वैजायते पुत्रः । ( श्रुतिः ) दम्पत्योर्व्युत्क्रमे दोषः । 
समः शास्त्रे प्रतिष्ठितः । नरा न तमवेक्षन्ते तेनात्र वरमङ्गना: । 
पुरुष द्वारा स्त्री का गमन हो । या स्त्री द्वारा पुरुष का गमन हो । शास्त्रों में दोनों ही स्थितियों में समान दोष माना गया है ।
नहीदृशमनायुष्यम यथा परस्त्रीनिषेवणादिकमित्यादि । 
लेकिन पुरुष स्त्रियों के उक्त दोष की शंका या संभावना मात्र से ही तिल का ताड़ बना देते हैं । इसके विपरीत अपने इसी दोष को गौरव का प्रतीक समझते हैं । अतः स्त्री पुरुष से श्रेष्ठ है ।
अहो धार्षटयमसाधूनाम! निन्दतामनघाः स्त्रियः । 
मुष्णतामिव चौराणाम तिष्ठ चौरेति जल्पताम । 
बड़े आश्चर्य की बात है कि असज्जन लोग, निष्पाप स्त्रियों की भी मिथ्या निंदा करते हैं । यह उनकी धृष्टता की ही पराकाष्ठा है । मानो चोर खुद भागते भागते ही स्वयं " चोर चोर, पकड़ो पकड़ो " चिल्लाकर लोगों का ध्यान अपने ऊपर से हटाने का प्रयत्न कर रहा हो ।
पुरुषश्चटुलानि कामिनीनाम कुरुते यानि रहो न तानि पश्चात । 
सुकृतज्ञतया अङ्गना गतासूनवगूह्य प्रविशन्ति सप्तजिह्वम । 
पुरुष एकांत स्थान में । अन्तरंग क्षणों में स्त्री की प्रशंसा में जितने मधुर वचन बोलता है । उनका थोड़ा सा अंश भी उनकी पीठ के पीछे नहीं बोलता । अतः मनुष्य का मन इस विषय में स्पष्ट नहीं होता है । इसके विपरीत स्त्री अपने मृत पति के शव से संलग्न होकर जीवित ही अग्नि में प्रवेश कर जाती है । अतः स्त्री अधिक कृतज्ञ है ।
स्त्रीरत्नभोगो अस्ति नरस्य यस्य निःस्वो अपि साम्प्रत्यवनीश्वरो असौ । 
राज्यस्य सारो अशनमङ्गनाश्चैव तृष्णानलोंद्दीपनदारु शेषम । 
जिस पुरुष के पास उत्तम लक्षणों से युक्त, प्रेम करने वाली स्त्री हो । वह पुरुष गरीब होता हुआ भी राजा ही होता है । अर्थात अपने घर का राजा तो होता ही है । राज्य का भी चरम सार स्त्री ही बताई है । शेष चीजे, भोजन, शैय्या, महल आदि तो तृष्णा की अग्नि को भड़काने वाला इंधन ही है । अर्थात सुखी व स्नेही दाम्पत्य जीवन संसार की सबसे बड़ी नियामत है ।
कामिनीम प्रथमयौवनान्विताम मंदवल्गुमृदुपीड़ितस्वनाम । 
उत्स्तनिम समवलम्ब्य या रतिः सा न धातृभवने अस्ति में मतिः । अभिनव यौवन से युक्त । समुद्दिप्त मन्मथा स्त्री का कोमल आलिंगन । तथा आलिंगन के समय मृदु व धीमा स्वर करती हुई । उत्तम स्तन भार से युक्त स्त्री का साथ भला योगियों को ब्रह्मलोक में कहाँ मिलेगा ?
तत्र देवमुनिसिद्धचारणेर्मान्यमानपितृसेव्यसेवनात । 
ब्रूत धातृभवने अस्ति किं सुखं यद्रहः समवलम्ब्य न स्त्रियम । 
ब्रह्मलोक में तो पूज्यों की पूजा । सेव्यों की सेवा । मुनि सिद्धों का साथ । सिर्फ इतना ही सुख है । जबकि स्त्री के साथ से उत्पन्न सुखों में उक्त सारी बातों के साथ साथ और अधिक सुख होता है ।
आ ब्रह्मकीटान्तमिदम निबद्धं पुंस्त्रीप्रयोगेण जगत समस्तम । 
व्रीडा अत्र का यत्र चतुर्मुखत्वमीशो अपि लोभाद गमितो युवत्याः । 
ब्रह्मा ने यह सारा संसार छोटे से लेकर बड़े जीवों तक इस तरह बनाया है कि उसके मूल में स्त्री पुरुष या नर मादा का संयोग ही है । स्त्री के प्रति आकर्षण होना कोई लज्जा की बात नहीं है । क्योकि स्वयं महादेव भी स्त्री का रूप देखने के लिये एक बार चतुर्मुख रूप हो गये थे । ( यहाँ सांकेतिक पौराणिक कथा में तिलोत्तमा के रूप की छटा को निहारने के लिये एक बार शिवजी ने चारों दिशाओं में अपने चार मुंह बना लिये थे ।)
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त्राटक - एकाग्रता बढ़ाने की यह प्राचीन पद्धति है । पतंजलि ने 5000 वर्ष पूर्व इस पद्धति का विकास किया था । योगी और संत इसका अभ्यास परा मनोवैज्ञानिक शक्ति के विकास के लिये भी करते हैं । आधुनिक वैज्ञानिक शोधों ने भी यह सिद्ध कर दिया है । इससे आत्मविश्वास पैदा होता है । योग्यता बढ़ती है । और आपके मस्तिष्क की शक्ति का विकास कई प्रकार से होता है । यह विधि आपकी स्मरण शक्ति को तीक्ष्ण बनाती है । प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रयोग की गई यह बहुत ही उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण पद्धति है । 
समय - अच्छा यह है कि इसका अभ्यास सूर्योदय के समय किया जाए । किन्तु यदि अन्य समय में भी इसका अभ्यास करें । तो कोई हानि नहीं है ।
स्थान - किसी शान्त स्थान में बैठकर अभ्यास करें । जिससे कोई अन्य व्यक्ति आपको बाधा न पहुँचाए ।
प्रथम चरण - स्क्रीन पर बने पीले बिंदु को आराम पूर्वक देखें ।
दूसरा चरण - जब भी आप बिन्दु को देखें । हमेशा सोचिये - मेरे विचार पीत बिन्दु के पीछे जा रहे हैं । बिना पलकें झपकाए एकटक देखते रहें । इस अभ्यास के मध्य आँखों में पानी आ सकता है । चिन्ता न करें । आँखों को बन्द करें । अभ्यास स्थगित कर दें । यदि पुनः अभ्यास करना चाहें । तो आँखों को धीरे से खोलें । आप इसे कुछ मिनट के लिये और दोहरा सकते हैं । अन्त में आँखों पर ठंडे पानी के छीटे मारकर इन्हें धो लें । एक बात का ध्यान रखें । आपका पेट खाली भी न हो । और अधिक भरा भी न हो । यदि आप चश्में का उपयोग करते हैं । तो अभ्यास के समय चश्मा न लगाएँ । 
यदि आप पीत बिन्दु को नहीं देख पाते हैं । तो अपनी आँखें बन्द करें । एवं भौंहों के मध्य में चित्त एकाग्र करें । इसे अन्तः त्राटक कहते है । कम से कम तीन सप्ताह तक इसका अभ्यास करें । परन्तु, यदि आप इससे अधिक लाभ पाना चाहते हैं । तो निरन्तर अपनी सुविधानुसार करते रहें । त्राटक के लिए ॐ या अन्य चित्र का इस्तेमाल भी किया जा सकता है । त्राटक के लिए दीपक की लौ को भी देखा जा सकता है । जब आँखें थक जाए । तो आँखें बंद कर आज्ञा चक्र में दीपक के लौ की कल्पना करें । उगते हुए या अस्त होते हुए सूर्य का त्राटक चर्म रोगों और कई अन्य रोगों से छुटकारा दिलाता है । जिनकी नजर कमजोर है । या जिनके चश्मे का नंबर दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है । उन्हें अपनी आँखों की रोशनी बढ़ाने के लिए योग में त्राटक की सलाह दी जाती है । जिन्हें हाई पावर का चश्मा लगा हो । उन्हें यह सप्ताह में तीन बार जरूर करना चाहिए । जिनकी नजर कमजोर नहीं है । और चाहते हैं कि उनकी नजरें कमजोर न हो । उन्हें यह हफ्ते में एक बार आवश्यक रूप से करना चाहिए ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326