क्या है स्वाति नक्षत्र के वर्षा जल में ? क्यों पपीहा सिर्फ़ यही जल पीता है ? चातक नर मादा क्यों बिछुड़कर ही रात बिताते हैं ? गहरे प्राकृतिक और आध्यात्मिक रहस्य युक्त यह लेख सभी को गम्भीर चिन्तन मनन की प्रेरणा देता है ।
चिन्तन हेतु महान सिद्ध हस्तियों के उदाहरण भी दिये गये हैं ।
स्वाति का शाब्दिक अर्थ - स्वत: आचरण करने वाला, झुंड में अग्रणी, पुजारी ।
जो बरसै स्वाती । कुनबिन पहिरै सोने के पाती ।
- यदि स्वाती नक्षत्र में एक बार वर्षा हो जाये । तो किसान की स्त्री ( कुनबिन ) फसल अच्छी होने से सोने का पत्तर ( हाथ में पहनने का जहाँगीरी गहना ) पहनेगी ।
कदली सीप भुजंग मुख । स्वाति एक गुन तीन ।
- केला में कपूर, सीप में मोती, सर्प में विष ।
रे रे चातक सावधान मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम ।
अम्बोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः ।
केचिद वृष्टिभिरार्द्रयन्ति धरणीं गर्जन्ति केचिद वृथा ।
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रुहि दीनं वचः ।
नीतिशतक /47
- सावधान मित्र ! आकाश में कई मेघ होते हैं । पर सभी एक जैसा नहीं होते । प्रत्येक मेघ जल देकर तृप्त नहीं करता । कोई धरती पर वृष्टि करके उसे तृप्त करेगा । कोई सिर्फ गरजेगा । इसीलिये हर किसी मेघ के आगे हाथ फैलाकर जल मत मांगो ।
पपीहा अक्सर शरद ऋतु और बरसात में अपनी मधुर आवाज़ पिउ पिउ बोलता है । इसे चातक, पपीहा, चकवा चकवी आदि नाम से भी जानते हैं । यह पक्षी मादा के साथ दिन भर जोड़े के रूप में रहता है । किन्तु नर मादा रात बिछुड़कर ही बिताते हैं । सुबह इनका मिलन होता है ।
अलग अलग रहकर ही जिनको । सारी रात बितानी होती ।
निशाकाल के चिर अभिशापित । बन्द हुआ क्रंदन फिर उनमें ।
नागार्जुन । बादल को घिरते देखा है
साँझ पड़े दिन बीतबै । चकवी दीन्ही रोय ।
चल चकवा वा देश को । जहाँ रैन नहिं होय । कबीर
सांझ पड़ दिन आथम्यौ । चकवी भयौ वियोग ।
पणिहारी यूं भाखियौ । ये विधना का जोग ।
चकवी चकवा दो जने । इन मत मारो कोय ।
ये मारे करतार के । रैन विछोया होय ।
चकवी बोली माय ते । क्यों जन्मी मेरी माय ।
सभी पखेरू रुड मिले । हमको बैरिन रात ।
स्वाति नक्षत्र का पानी चातक के लिए जीवन उपयोगी सिद्ध होता है । साहित्य में चातक को प्रतीक्षारत विरही के रूप में प्रस्तुत किया है । उसका वर्षा जल से अटूट रिश्ता बताया जाता है ।
चातक सुतहि पढ़ावहिं । आन नीर मत लेई ।
मम कुल यही सुभाष है । स्वाति बूँद चित देई ।
कबीर । बीजक
मुक्ता करै करपूर कर । चातक जीवन जोय ।
एतो बड़ी रहीम जल । व्याल बदन विष होय ।
रहीम
रहु रहु पापी पपीहा रै । पिउ को नाम न लेय ।
जे कोई विरहनि साम्हल । तो पिउ कारन जिब देय ।
मीराबाई
मुख मीठे मानस मलिन कोकिल मोर चकोर ।
सुजस धवल, चातक नवल । रहयो भुवन भरि तोर ।
एक भरोसे एक बल । एक आस बिस्वास ।
एक राम घनश्याम हित । चातक तुलसीदास ।
तुलसीदास
बहुत दिन जियो पपीहा प्यारो ।
बासर रैन नांव लै बोलत । भये विरह जुटकारी ।
आप दुखित पर दुखित जानि जिय । चातक नाव तियारो ।
देखौ सफल विचारी सषि जिय । बिछुरनि को दुख न्यारो ।
सूरदास । भ्रमर गीत
लगत सुभग सीतल किरन । निसि सुख दिन अब गाहि ।
माह ससी भ्रम सूर ज्यौं । रहित चकोरो चाहि ।
बिहारी
चाहै प्रान चातक सुजान घनआनंद को ।
हैया कहूं काहू को परै न काम कूर सौं ।
घनानंद
वरषा है प्रतापूज, घटिधरौ । अबलां मन को समझायो जहाँ ।
यहि व्यारी तवै बदलेगी कहू । पपीहा जब पूछि है । ( पिउ कहाँ )
कवि प्रताप नारायण मिश्र । पपीहा विरह वर्णन
बलि जाऊँ बलि जाऊँ चातकी । बलि जाऊँ इस रट की ।
मेरे रोम रोम में आकर । यह काँटे सी खटकी ।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त । यशोधरा की विरह अवस्था
चपला की व्याकुलता लेकर । चातक का करुण विलाप ।
तारा आँसू पोंछ गगन के । रोते हो किस दुख से आप ।
जयशंकर प्रसाद । नीरद
पपीही की वह पनि पुकार । निर्झरों की भारी झर झर ।
झींगरों की झीनी झनकार । घनों की गुरू गंभीर घहर ।
सुमित्रानन्दन पंत ( पपीहा की पुकार )
मेघदूत की सजल कल्पना । चातक के सिर जीवन धार ।
मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर । सुभग स्वाति के मुक्ताकार ।
विहग वर्ग के गर्भ विधायक । कृषक बालिका के जलधार ।
सुमित्रानन्दन पन्त । बादल
लागि कुवांर नीर जग घंटा । अवहुं आउ कंत तन लटा ।
तोहि देखि पियु पलु है कया । उतरा चीतु बहुरि करू मया ।
चित्रा मित्र मीन आवा । पपिहा पीउ पुकारत पावा ।
उवा अगस्त, हस्ति घन गाजा । तुरय पलानि चढ़े रन राजा ।
स्वाति बूँद चातक मुख परे । समुद्र सीप मोती सब भरै ।
सरबर सँवरि हंस चलि आए । सारस कुरलहि खंजन देखाए ।
भा परगास कांस बन फूलै । कंत न फिरे विदेसहि भूले ।
मलिक मुहम्मद जायसी । नागमती वियोग वर्णन
नैन लागु तेहि मारग पदुमावति जेहि दीप ।
जैस सेवाती सेवहिं बन चातक जल सीप ।
चातक स्वाति बूँद को प्यासो । मन दरसन को प्यासो ।
म्हारो आँगन तरस्यो तरस्यो । दुनिया में चोमासो ।
मोहन सोनी
सुरसुन्दरी, कर्पूर मंजिरी सिर से नहाकर वह अपने काले घने केशों को सुखा रही है । उसके काले घने बाल जैसे काले बादल हैं । और उनसे टपकते पानी को बारिश का पानी समझ कर चातक उसकी बूंदों से अपनी प्यास बुझाने आता है ।
संसार भी ऐसा ही मायावी है कि उसके सम्मोहन में आसानी से आ जाते हैं । समझते कुछ हैं और असल में होता कुछ है ।
--------------
अनल पंखी आकाश को । माया मेरु उलंघ ।
दादू उलटे पंथ चढ । जाइ बिलंबे अंग ।
हम पशुवा जान जीव हैं । सतगुर जात भिरंग ।
मुर्दे से जिन्दा करै । पलट धरत हैं अंग ।
हम पशु समान जीव और सदगुरु भृंग ( कीट ) समान है । जैसे भृंगी किसी रेंगने वाले तुच्छ तिनके से जीव को पकड़ कर लाता है । और अपने मिट्टी के घर में बंद कर देता है । खुद बाहर बैठ कर भिनभिनाता ( भूं भूं ) है । जिसे सुनकर अंदर बैठा जीव डरता है । और उसका ध्यान भृंगी पर ही रहता है । भृंगी अपने शब्द से उस जीव को भी भृंगी ही बना देता है । धीरे धीरे भृंगी की भांति उसके सभी अंग तैयार होकर वह भृंगी ही हो जाता है ।
सतगुर कंद कपूर हैं । हमरी तुनका देह ।
स्वांति सीप का मेल है । चंद चकोरा नेह ।
केले में स्वाति नक्षत्र के समय बारिश की बूंद गिरे । तो उसमें कपूर पैदा होता है । और तिनके की तरह हमारा शरीर सदगुरु उपदेश की बूंद ह्रदय में पड़ने से ज्ञान रुपी कपूर उत्पन्न हो जाता है ।
स्वाति नक्षत्र में सीप में स्वाति बूंद पङ जाने से मोती उत्पन्न होता है । सदगुरु के प्रति चन्द्र चकोर जैसा स्नेह हो । तभी ज्ञान संभव है ।
पट्टन नगरी घर करै । गगन मण्डल गैनार ।
अलल पंख ज्यूं संचरै । सतगुरु अधम उधार ।
अलल ( अनल = वायु ) वायु में ही रहने और उसी में विचरण करने के कारण उसे अनल पक्षी कहा जाता है । वह आकाश मंडल के शिखर पर विचरण करता है । सदगुरु का तरीका भी यही है ।
अलल पंख अनुराग है । सुन्न मण्डल रहे थीर ।
दास गरीब उधारिया । सतगुरु मिले कबीर ।
अलल पक्षी आकाश मंडल में स्थिर रहते हुए भी अपने सुरति से अपने बच्चों को अपने पास खींच लेता है । उसी प्रकार सदगुरु उद्धार करता है ।
अमले सिचाई उडत रहाता । अनल पक्षी पण उडत क्याता ।
गरुड पण उडत रहेउ जाहीं । यह सवकु आकाश हि ताकी ।
अपार अपार रहत हि जाई । जिनकु पांख में यल रहाई ।
अधिक यल रहस्यों जी जितना । आकाश के महिमा हि क्तिना ।
चन्डूल पक्षी की विशेषता - किसी भी पुरुष, महिला, जानवर, पक्षी की आवाज की बखूवी नकल कर लेता है । इसकी वजह से कई बार लोग जंगलों में मुसीबत में पङ गये । क्योंकि इसने किसी की आवाज नकल कर लोगों को भ्रमित किया । इसीलिये चान्डाल जैसे स्वभाव के कारण इसका नाम चन्डूल रखा गया ।
झुंड में रहने वाला हारिल ( हरियल ) पक्षी जमीन पर सीधे पैर नहीं रखता । पंजों में छोटी पतली लकङी दबाये रहता है । इसका रंग हरा, पैर पीले, चोंच कासनी रंग की होती है । इसकी विशेषता है कि यदि घायल होकर किसी वृक्ष की शाखा में लटक जाय । तो मरने पर भी इसके पंजों से वह शाखा नहीं छूटती ।
हारिल लकङी ना तजे, नर नाहीं छोडे टेक ।
कहें कबीर गुरु शब्द ते, पकड रहा वह एक ।
हमारे हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम वचन नंद नंदन उर । यह दृढ़ करि पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि । कान्ह कान्ह जकरी ।
मृगमद छाँड़ि न जात, गही ज्यौं हारिल लकरी ।
हारिल की लकड़ी । पकड़ी सो पकड़ी । कहावत
हारिल = हारा हुआ - ऐसा आधार या आश्रय जो किसी प्रकार छोड़ा न जा सके ।
पाकिस्तान का राष्ट्रीय पक्षी, मयूर वर्ग कुल का , चंद्रमा का एकांत प्रेमी तथा रहस्यमय और साहित्यिक पक्षी चकोर सारी रात चंद्रमा की ओर ताका करता है । अँधरी रातों में चंद्रमा और उसकी किरणों के अभाव में वह अंगारों को चंद्रकिरण समझ कर चुगता है । यह स्वभाव और रहन सहन में तीतर से बहुत मिलता है ।
इसका एक नाम विषदशर्न मृत्युक है । कहते हैं - विष युक्त खाद्य सामग्री, विषाक्त पदार्थों को देखते ही उसकी आँखें लाल हो जाती हैं । और वह मर जाता है । इसीलिये पूर्व काल में राजा उसे भोजन की परीक्षा के लिए पालते थे ।
उदात प्रणय का उदाहरण चकोर मैदान में न रहकर पहाड़ों पर रहना पसंद करता है । शिकारी इसका स्वादिष्ट माँस खाने के काम लेते हैं ।
मोरनी मोर का आंसू पीकर गर्भधारण करती है । अलल पक्षी दृष्टि से गर्भधारण करता है । भ्रंगी कीट अपनी धुनि से विजातीय कीट को भ्रंगी में रूपांतरित कर देता है ।
यानी सामान्य नर मादा की तरह परस्पर दैहिक संयोग से वंश वृद्धि नहीं करते ।
चिन्तन हेतु महान सिद्ध हस्तियों के उदाहरण भी दिये गये हैं ।
स्वाति का शाब्दिक अर्थ - स्वत: आचरण करने वाला, झुंड में अग्रणी, पुजारी ।
जो बरसै स्वाती । कुनबिन पहिरै सोने के पाती ।
- यदि स्वाती नक्षत्र में एक बार वर्षा हो जाये । तो किसान की स्त्री ( कुनबिन ) फसल अच्छी होने से सोने का पत्तर ( हाथ में पहनने का जहाँगीरी गहना ) पहनेगी ।
कदली सीप भुजंग मुख । स्वाति एक गुन तीन ।
- केला में कपूर, सीप में मोती, सर्प में विष ।
रे रे चातक सावधान मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम ।
अम्बोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः ।
केचिद वृष्टिभिरार्द्रयन्ति धरणीं गर्जन्ति केचिद वृथा ।
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रुहि दीनं वचः ।
नीतिशतक /47
- सावधान मित्र ! आकाश में कई मेघ होते हैं । पर सभी एक जैसा नहीं होते । प्रत्येक मेघ जल देकर तृप्त नहीं करता । कोई धरती पर वृष्टि करके उसे तृप्त करेगा । कोई सिर्फ गरजेगा । इसीलिये हर किसी मेघ के आगे हाथ फैलाकर जल मत मांगो ।
पपीहा अक्सर शरद ऋतु और बरसात में अपनी मधुर आवाज़ पिउ पिउ बोलता है । इसे चातक, पपीहा, चकवा चकवी आदि नाम से भी जानते हैं । यह पक्षी मादा के साथ दिन भर जोड़े के रूप में रहता है । किन्तु नर मादा रात बिछुड़कर ही बिताते हैं । सुबह इनका मिलन होता है ।
अलग अलग रहकर ही जिनको । सारी रात बितानी होती ।
निशाकाल के चिर अभिशापित । बन्द हुआ क्रंदन फिर उनमें ।
नागार्जुन । बादल को घिरते देखा है
साँझ पड़े दिन बीतबै । चकवी दीन्ही रोय ।
चल चकवा वा देश को । जहाँ रैन नहिं होय । कबीर
सांझ पड़ दिन आथम्यौ । चकवी भयौ वियोग ।
पणिहारी यूं भाखियौ । ये विधना का जोग ।
चकवी चकवा दो जने । इन मत मारो कोय ।
ये मारे करतार के । रैन विछोया होय ।
चकवी बोली माय ते । क्यों जन्मी मेरी माय ।
सभी पखेरू रुड मिले । हमको बैरिन रात ।
चकवी बिछुड़ी रैन की । आय मिली प्रभात ।
जो जन बिछुड़े राम सौं । ते दिन मिलै न रात ।
जो जन बिछुड़े राम सौं । ते दिन मिलै न रात ।
चातक सुतहि पढ़ावहिं । आन नीर मत लेई ।
मम कुल यही सुभाष है । स्वाति बूँद चित देई ।
कबीर । बीजक
मुक्ता करै करपूर कर । चातक जीवन जोय ।
एतो बड़ी रहीम जल । व्याल बदन विष होय ।
रहीम
रहु रहु पापी पपीहा रै । पिउ को नाम न लेय ।
जे कोई विरहनि साम्हल । तो पिउ कारन जिब देय ।
मीराबाई
मुख मीठे मानस मलिन कोकिल मोर चकोर ।
सुजस धवल, चातक नवल । रहयो भुवन भरि तोर ।
एक भरोसे एक बल । एक आस बिस्वास ।
एक राम घनश्याम हित । चातक तुलसीदास ।
तुलसीदास
बहुत दिन जियो पपीहा प्यारो ।
बासर रैन नांव लै बोलत । भये विरह जुटकारी ।
आप दुखित पर दुखित जानि जिय । चातक नाव तियारो ।
देखौ सफल विचारी सषि जिय । बिछुरनि को दुख न्यारो ।
सूरदास । भ्रमर गीत
लगत सुभग सीतल किरन । निसि सुख दिन अब गाहि ।
माह ससी भ्रम सूर ज्यौं । रहित चकोरो चाहि ।
बिहारी
चाहै प्रान चातक सुजान घनआनंद को ।
हैया कहूं काहू को परै न काम कूर सौं ।
घनानंद
वरषा है प्रतापूज, घटिधरौ । अबलां मन को समझायो जहाँ ।
यहि व्यारी तवै बदलेगी कहू । पपीहा जब पूछि है । ( पिउ कहाँ )
कवि प्रताप नारायण मिश्र । पपीहा विरह वर्णन
बलि जाऊँ बलि जाऊँ चातकी । बलि जाऊँ इस रट की ।
मेरे रोम रोम में आकर । यह काँटे सी खटकी ।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त । यशोधरा की विरह अवस्था
चपला की व्याकुलता लेकर । चातक का करुण विलाप ।
तारा आँसू पोंछ गगन के । रोते हो किस दुख से आप ।
जयशंकर प्रसाद । नीरद
पपीही की वह पनि पुकार । निर्झरों की भारी झर झर ।
झींगरों की झीनी झनकार । घनों की गुरू गंभीर घहर ।
सुमित्रानन्दन पंत ( पपीहा की पुकार )
मेघदूत की सजल कल्पना । चातक के सिर जीवन धार ।
मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर । सुभग स्वाति के मुक्ताकार ।
विहग वर्ग के गर्भ विधायक । कृषक बालिका के जलधार ।
सुमित्रानन्दन पन्त । बादल
लागि कुवांर नीर जग घंटा । अवहुं आउ कंत तन लटा ।
तोहि देखि पियु पलु है कया । उतरा चीतु बहुरि करू मया ।
चित्रा मित्र मीन आवा । पपिहा पीउ पुकारत पावा ।
उवा अगस्त, हस्ति घन गाजा । तुरय पलानि चढ़े रन राजा ।
स्वाति बूँद चातक मुख परे । समुद्र सीप मोती सब भरै ।
सरबर सँवरि हंस चलि आए । सारस कुरलहि खंजन देखाए ।
भा परगास कांस बन फूलै । कंत न फिरे विदेसहि भूले ।
मलिक मुहम्मद जायसी । नागमती वियोग वर्णन
नैन लागु तेहि मारग पदुमावति जेहि दीप ।
जैस सेवाती सेवहिं बन चातक जल सीप ।
चातक स्वाति बूँद को प्यासो । मन दरसन को प्यासो ।
म्हारो आँगन तरस्यो तरस्यो । दुनिया में चोमासो ।
मोहन सोनी
सुरसुन्दरी, कर्पूर मंजिरी सिर से नहाकर वह अपने काले घने केशों को सुखा रही है । उसके काले घने बाल जैसे काले बादल हैं । और उनसे टपकते पानी को बारिश का पानी समझ कर चातक उसकी बूंदों से अपनी प्यास बुझाने आता है ।
संसार भी ऐसा ही मायावी है कि उसके सम्मोहन में आसानी से आ जाते हैं । समझते कुछ हैं और असल में होता कुछ है ।
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अनल पंखी आकाश को । माया मेरु उलंघ ।
दादू उलटे पंथ चढ । जाइ बिलंबे अंग ।
हम पशुवा जान जीव हैं । सतगुर जात भिरंग ।
मुर्दे से जिन्दा करै । पलट धरत हैं अंग ।
हम पशु समान जीव और सदगुरु भृंग ( कीट ) समान है । जैसे भृंगी किसी रेंगने वाले तुच्छ तिनके से जीव को पकड़ कर लाता है । और अपने मिट्टी के घर में बंद कर देता है । खुद बाहर बैठ कर भिनभिनाता ( भूं भूं ) है । जिसे सुनकर अंदर बैठा जीव डरता है । और उसका ध्यान भृंगी पर ही रहता है । भृंगी अपने शब्द से उस जीव को भी भृंगी ही बना देता है । धीरे धीरे भृंगी की भांति उसके सभी अंग तैयार होकर वह भृंगी ही हो जाता है ।
सतगुर कंद कपूर हैं । हमरी तुनका देह ।
स्वांति सीप का मेल है । चंद चकोरा नेह ।
केले में स्वाति नक्षत्र के समय बारिश की बूंद गिरे । तो उसमें कपूर पैदा होता है । और तिनके की तरह हमारा शरीर सदगुरु उपदेश की बूंद ह्रदय में पड़ने से ज्ञान रुपी कपूर उत्पन्न हो जाता है ।
स्वाति नक्षत्र में सीप में स्वाति बूंद पङ जाने से मोती उत्पन्न होता है । सदगुरु के प्रति चन्द्र चकोर जैसा स्नेह हो । तभी ज्ञान संभव है ।
पट्टन नगरी घर करै । गगन मण्डल गैनार ।
अलल पंख ज्यूं संचरै । सतगुरु अधम उधार ।
अलल ( अनल = वायु ) वायु में ही रहने और उसी में विचरण करने के कारण उसे अनल पक्षी कहा जाता है । वह आकाश मंडल के शिखर पर विचरण करता है । सदगुरु का तरीका भी यही है ।
अलल पंख अनुराग है । सुन्न मण्डल रहे थीर ।
दास गरीब उधारिया । सतगुरु मिले कबीर ।
अलल पक्षी आकाश मंडल में स्थिर रहते हुए भी अपने सुरति से अपने बच्चों को अपने पास खींच लेता है । उसी प्रकार सदगुरु उद्धार करता है ।
अमले सिचाई उडत रहाता । अनल पक्षी पण उडत क्याता ।
गरुड पण उडत रहेउ जाहीं । यह सवकु आकाश हि ताकी ।
अपार अपार रहत हि जाई । जिनकु पांख में यल रहाई ।
अधिक यल रहस्यों जी जितना । आकाश के महिमा हि क्तिना ।
चन्डूल पक्षी की विशेषता - किसी भी पुरुष, महिला, जानवर, पक्षी की आवाज की बखूवी नकल कर लेता है । इसकी वजह से कई बार लोग जंगलों में मुसीबत में पङ गये । क्योंकि इसने किसी की आवाज नकल कर लोगों को भ्रमित किया । इसीलिये चान्डाल जैसे स्वभाव के कारण इसका नाम चन्डूल रखा गया ।
झुंड में रहने वाला हारिल ( हरियल ) पक्षी जमीन पर सीधे पैर नहीं रखता । पंजों में छोटी पतली लकङी दबाये रहता है । इसका रंग हरा, पैर पीले, चोंच कासनी रंग की होती है । इसकी विशेषता है कि यदि घायल होकर किसी वृक्ष की शाखा में लटक जाय । तो मरने पर भी इसके पंजों से वह शाखा नहीं छूटती ।
हारिल लकङी ना तजे, नर नाहीं छोडे टेक ।
कहें कबीर गुरु शब्द ते, पकड रहा वह एक ।
इसी आधार पर यह पद बना है - हमारे हरि हारिल की लकरी
हमारे हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम वचन नंद नंदन उर । यह दृढ़ करि पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि । कान्ह कान्ह जकरी ।
मृगमद छाँड़ि न जात, गही ज्यौं हारिल लकरी ।
हारिल की लकड़ी । पकड़ी सो पकड़ी । कहावत
हारिल = हारा हुआ - ऐसा आधार या आश्रय जो किसी प्रकार छोड़ा न जा सके ।
पाकिस्तान का राष्ट्रीय पक्षी, मयूर वर्ग कुल का , चंद्रमा का एकांत प्रेमी तथा रहस्यमय और साहित्यिक पक्षी चकोर सारी रात चंद्रमा की ओर ताका करता है । अँधरी रातों में चंद्रमा और उसकी किरणों के अभाव में वह अंगारों को चंद्रकिरण समझ कर चुगता है । यह स्वभाव और रहन सहन में तीतर से बहुत मिलता है ।
इसका एक नाम विषदशर्न मृत्युक है । कहते हैं - विष युक्त खाद्य सामग्री, विषाक्त पदार्थों को देखते ही उसकी आँखें लाल हो जाती हैं । और वह मर जाता है । इसीलिये पूर्व काल में राजा उसे भोजन की परीक्षा के लिए पालते थे ।
उदात प्रणय का उदाहरण चकोर मैदान में न रहकर पहाड़ों पर रहना पसंद करता है । शिकारी इसका स्वादिष्ट माँस खाने के काम लेते हैं ।
मोरनी मोर का आंसू पीकर गर्भधारण करती है । अलल पक्षी दृष्टि से गर्भधारण करता है । भ्रंगी कीट अपनी धुनि से विजातीय कीट को भ्रंगी में रूपांतरित कर देता है ।
यानी सामान्य नर मादा की तरह परस्पर दैहिक संयोग से वंश वृद्धि नहीं करते ।