बोलते समय कौन सा स्वर या वर्ण कहाँ से उत्पन्न होता है । इसको जानने ध्याने और संयम से सभी धातुयें तथा मन्त्र पुष्टता पाते हैं ।
4 पंखुड़ियों वाले ( गुदा से कुछ ऊपर ) मूलाधार चक्र की पंखुडियों पर क्रमशः वं शं षं सं - ये 4 वर्ण हैं । इसका बीज ‘लं’ है ।
6 पंखुड़ियों वाले ( पेड़ू के पास ) स्वाधिष्ठान चक्र पर क्रम से बं भं मं यं रं लं ये 6 वर्ण अंकित हैं ।
10 पंखुड़ियों वाले मणिपूर चक्र ( नाभि ) पर क्रम से डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं - ये 10 वर्ण हैं । जिसके मध्य में अग्नितत्व बीज ‘रं’ स्थित है ।
12 पंखुड़ियों वाले अनाहत चक्र ( हृदय ) पर क्रमशः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं - ये 12 वर्ण हैं ।
षटकोण आकृति जैसे यंत्र के मध्य में वायुबीज ‘यं’ है । यहाँ ॐकार की ध्वनि गूंजती है ।
16 पंखुड़ियों वाले विशुद्ध चक्र ( कंठ ) पर क्रमशः सभी स्वर वर्ण - अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠ लृ ॡ एं ऐं ओं औ अं अः ये 16 स्वर हैं । इसका बीज ‘हं’ है ।
2 पंखुड़ियों वाले आज्ञाचक्र ( भ्रूमध्य ) पर हं और क्षं ये 2 वर्ण हैं ।
सौन्दर्य लहरी में अकारादि वर्ण मातृकाओं का महिमा मण्डल स्पष्ट किया है । यथा - अकार 80 लाख आकार 160 लाख इकार 90 लाख ईकार 180 लाख उकार 1 करोड़ ऊकार 2 करोड़ ऋकार 50 लाख 150 लाख लृ और ॡ क्रमश 1-1 करोड़ ए ऐ औ डेढ़ करोड़ बिन्दु और विसर्ग अकार से दुगना यानी 160 लाख तथा सभी व्यंजन शक्तियां अकार मंडल से आधे यानी 40-40 लाख योजन विस्तार वाले हैं ।
ललिता सहस्रनाम के 167 वें श्लोक में मात्रिका वर्ण रुपिणी कहकर इसकी गरिमा सिद्ध की है । सामान्य रूप से वर्णों को अलग अलग तथा वर्णमाला को एकत्र रूप से मातृका के नाम से जाना जाता है ।
ये 4 प्रकार से प्रयुक्त होती हैं -
1 केवल 2 बिन्दु युक्त 3 विसर्ग युक्त 4 उभय रुप ।
महाभाष्य में केवल मातृका को साक्षात ब्रह्मराशि कहा गया है -
सोऽयं वाक्समाम्नायो वर्णसमाम्नायः पुष्पितः ।
फलितश्चन्द्रतारकवत्प्रतिमण्डितो वेदितव्यो ब्रह्मराशिः ।
1 अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ लृ ॡ ए ऐ ओ औ अं अः - ये 16 स्वर वर्ण हैं ।
2 क ख ग घ ङ 3 च छ ज झ ञ 4 ट ठ ड ढ ण 5 त थ द धन 6 प फ ब भ म
7 य र ल व 8 श स ष ह क्ष - ये 34 व्यंजन कहे गये हैं ।
व्यंजन अर्थात मिले हुए । इस प्रकार 50 वर्ण कहे हैं ।
श्लिष्टं पुरः स्फुरितसद्वय कोटिळक्ष । रुपं परस्परगतं च समं च कूटम ।
ये स्वर और व्यंजन तन्त्र शास्त्रों में पुनः 2 नामों से जाने जाते हैं । स्वरों को बीज और व्यंजनों को योनि जानो । योनि और बीज से ही सारा जगत प्रपंच रचा बसा है ।
अवर्गे तु महालक्ष्मीः कवर्गे कमलोद्भवाचवर्गे तु महेशानी टवर्गे तु कुमारिका ।
नारायणी तवर्गे तु वाराही तु पवर्गिका ।
ऐन्द्री चैव यवर्गस्था चामुण्डा तु शवर्गिका ।
एताः सप्तमहामा- तृः सप्तलोक व्यवस्थिताः । स्वच्छन्द तन्त्रम
अवर्ग की महालक्ष्मी, कवर्ग की ब्राह्मी, चवर्ग की माहेश्वरी, टवर्ग की कौमारी, तवर्ग की वैष्णवी, पवर्ग की वाराही, यवर्ग की ऐन्द्री और शवर्ग की अधिष्ठाती चामुण्डा हैं ।
प्रपञ्चसार तन्त्रम के अनुसार समस्त वर्ण अग्निसोमात्मक हैं । वर्णों में व्याप्त आकारांश ही आग्नेय अथवा पुरुषात्मक है । तदीत्तर अंश सौम्य व प्रकृत्यात्मक है । इसे ही वर्णों के प्रमुख 2 भेद कहे गये हैं - स्वर और व्यंजन । व्यंजन यानि कादि योनियाँ स्वरों से प्रकाशित हो पाती हैं । शब्द द्वारा चित्त वृत्ति को अनुभावित करने के कारण या कहो कि ‘स्व’ अर्थात आत्मरुप का बोध कराने के कारण या कहो कादि योनियों को विकसित करने के कारण ही इन्हें स्वर कहा गया है ।
इनके स्पर्श और व्यापक - 2 भेद हैं । पुनः व्यापक भी 2 भागों में बंट जाता है - अन्तस्थ और ऊष्म । पुनः सभी वर्णों के 3 प्रकार भी कहे गये हैं - 16 स्वर को सौम्य 25 स्पर्श वर्णों को सौर और 10 व्यापक वर्णों को आग्नेय कहते हैं ।
पुनः स्वरों में भी ह्रस्व और दीर्घ 2 भेद हैं । तथा इनका उप प्रकार भी हैं -
अ इ उ ए और बिन्दु - पुरुष स्वर ।
आ ई ऊ ऐ औ और विसर्ग - स्त्री स्वर वर्ण ।
ऋ ॠ लृ ॡ - नपुंसक स्वर वर्ण ।
ये समस्त ह्रस्व स्वर शिवमय हैं । और दीर्घ स्वर शक्तिमयी कही हैं । ऋ लृ को शिव में और ॠ ॡ को शक्ति वर्ग में अन्तर्भावित किया गया है ।
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पूर्णाहन्तानुसंध्यात्म स्फूर्जन मननधर्मतः । संसारक्षयकृत त्राणधर्मतो मन्त्र उच्यते । ( रुद्रयामल )
( ललितासहस्रनाम भाष्य, भास्कररायवचन )
- जो मनन धर्म से पूर्ण अहन्ता के साथ अनुसंधान करके आत्मा में स्फुरण उत्पन्न करता है । तथा संसार का क्षय करने वाले त्राण गुणों से युक्त है । वही मन्त्र है ।
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घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमी । कुलं शीलं तथा जातिरष्टौ पाशाः प्रकीर्तिताः ।
- घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति - ये 8 पाशों ( रस्सियों ) से बंधे होने के कारण मनुष्य सहित सभी जीव पशु कहे गये है, न कि सिर्फ गाय, बैल, कुत्ता, भैंस आदि को ही कहा है ।
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संस्कारसाक्षात्करणात पूर्वज्ञातिज्ञानम । ( योगसूत्र 3-18 ) पतञ्जलि
अवचेतन संस्कारों के प्रत्यक्षीकरण के फलस्वरुप पूर्वजन्मों का ज्ञान सहज ही प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार के अनुस्मरण को जातिस्मर कहते हैं ।
मनुष्याणाम सहस्रेषु कश्चितद्यतति सिद्धये..
हजारों व्यक्तियों में कोई एक साधना पथ पर अग्रसर होता है । और उनमें भी विरला ही कोई पहुँच पाता है ।
4 पंखुड़ियों वाले ( गुदा से कुछ ऊपर ) मूलाधार चक्र की पंखुडियों पर क्रमशः वं शं षं सं - ये 4 वर्ण हैं । इसका बीज ‘लं’ है ।
6 पंखुड़ियों वाले ( पेड़ू के पास ) स्वाधिष्ठान चक्र पर क्रम से बं भं मं यं रं लं ये 6 वर्ण अंकित हैं ।
10 पंखुड़ियों वाले मणिपूर चक्र ( नाभि ) पर क्रम से डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं - ये 10 वर्ण हैं । जिसके मध्य में अग्नितत्व बीज ‘रं’ स्थित है ।
12 पंखुड़ियों वाले अनाहत चक्र ( हृदय ) पर क्रमशः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं - ये 12 वर्ण हैं ।
षटकोण आकृति जैसे यंत्र के मध्य में वायुबीज ‘यं’ है । यहाँ ॐकार की ध्वनि गूंजती है ।
16 पंखुड़ियों वाले विशुद्ध चक्र ( कंठ ) पर क्रमशः सभी स्वर वर्ण - अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠ लृ ॡ एं ऐं ओं औ अं अः ये 16 स्वर हैं । इसका बीज ‘हं’ है ।
2 पंखुड़ियों वाले आज्ञाचक्र ( भ्रूमध्य ) पर हं और क्षं ये 2 वर्ण हैं ।
सौन्दर्य लहरी में अकारादि वर्ण मातृकाओं का महिमा मण्डल स्पष्ट किया है । यथा - अकार 80 लाख आकार 160 लाख इकार 90 लाख ईकार 180 लाख उकार 1 करोड़ ऊकार 2 करोड़ ऋकार 50 लाख 150 लाख लृ और ॡ क्रमश 1-1 करोड़ ए ऐ औ डेढ़ करोड़ बिन्दु और विसर्ग अकार से दुगना यानी 160 लाख तथा सभी व्यंजन शक्तियां अकार मंडल से आधे यानी 40-40 लाख योजन विस्तार वाले हैं ।
ललिता सहस्रनाम के 167 वें श्लोक में मात्रिका वर्ण रुपिणी कहकर इसकी गरिमा सिद्ध की है । सामान्य रूप से वर्णों को अलग अलग तथा वर्णमाला को एकत्र रूप से मातृका के नाम से जाना जाता है ।
ये 4 प्रकार से प्रयुक्त होती हैं -
1 केवल 2 बिन्दु युक्त 3 विसर्ग युक्त 4 उभय रुप ।
महाभाष्य में केवल मातृका को साक्षात ब्रह्मराशि कहा गया है -
सोऽयं वाक्समाम्नायो वर्णसमाम्नायः पुष्पितः ।
फलितश्चन्द्रतारकवत्प्रतिमण्डितो वेदितव्यो ब्रह्मराशिः ।
1 अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ लृ ॡ ए ऐ ओ औ अं अः - ये 16 स्वर वर्ण हैं ।
2 क ख ग घ ङ 3 च छ ज झ ञ 4 ट ठ ड ढ ण 5 त थ द धन 6 प फ ब भ म
7 य र ल व 8 श स ष ह क्ष - ये 34 व्यंजन कहे गये हैं ।
व्यंजन अर्थात मिले हुए । इस प्रकार 50 वर्ण कहे हैं ।
श्लिष्टं पुरः स्फुरितसद्वय कोटिळक्ष । रुपं परस्परगतं च समं च कूटम ।
ये स्वर और व्यंजन तन्त्र शास्त्रों में पुनः 2 नामों से जाने जाते हैं । स्वरों को बीज और व्यंजनों को योनि जानो । योनि और बीज से ही सारा जगत प्रपंच रचा बसा है ।
अवर्गे तु महालक्ष्मीः कवर्गे कमलोद्भवाचवर्गे तु महेशानी टवर्गे तु कुमारिका ।
नारायणी तवर्गे तु वाराही तु पवर्गिका ।
ऐन्द्री चैव यवर्गस्था चामुण्डा तु शवर्गिका ।
एताः सप्तमहामा- तृः सप्तलोक व्यवस्थिताः । स्वच्छन्द तन्त्रम
अवर्ग की महालक्ष्मी, कवर्ग की ब्राह्मी, चवर्ग की माहेश्वरी, टवर्ग की कौमारी, तवर्ग की वैष्णवी, पवर्ग की वाराही, यवर्ग की ऐन्द्री और शवर्ग की अधिष्ठाती चामुण्डा हैं ।
प्रपञ्चसार तन्त्रम के अनुसार समस्त वर्ण अग्निसोमात्मक हैं । वर्णों में व्याप्त आकारांश ही आग्नेय अथवा पुरुषात्मक है । तदीत्तर अंश सौम्य व प्रकृत्यात्मक है । इसे ही वर्णों के प्रमुख 2 भेद कहे गये हैं - स्वर और व्यंजन । व्यंजन यानि कादि योनियाँ स्वरों से प्रकाशित हो पाती हैं । शब्द द्वारा चित्त वृत्ति को अनुभावित करने के कारण या कहो कि ‘स्व’ अर्थात आत्मरुप का बोध कराने के कारण या कहो कादि योनियों को विकसित करने के कारण ही इन्हें स्वर कहा गया है ।
इनके स्पर्श और व्यापक - 2 भेद हैं । पुनः व्यापक भी 2 भागों में बंट जाता है - अन्तस्थ और ऊष्म । पुनः सभी वर्णों के 3 प्रकार भी कहे गये हैं - 16 स्वर को सौम्य 25 स्पर्श वर्णों को सौर और 10 व्यापक वर्णों को आग्नेय कहते हैं ।
पुनः स्वरों में भी ह्रस्व और दीर्घ 2 भेद हैं । तथा इनका उप प्रकार भी हैं -
अ इ उ ए और बिन्दु - पुरुष स्वर ।
आ ई ऊ ऐ औ और विसर्ग - स्त्री स्वर वर्ण ।
ऋ ॠ लृ ॡ - नपुंसक स्वर वर्ण ।
ये समस्त ह्रस्व स्वर शिवमय हैं । और दीर्घ स्वर शक्तिमयी कही हैं । ऋ लृ को शिव में और ॠ ॡ को शक्ति वर्ग में अन्तर्भावित किया गया है ।
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पूर्णाहन्तानुसंध्यात्म स्फूर्जन मननधर्मतः । संसारक्षयकृत त्राणधर्मतो मन्त्र उच्यते । ( रुद्रयामल )
( ललितासहस्रनाम भाष्य, भास्कररायवचन )
- जो मनन धर्म से पूर्ण अहन्ता के साथ अनुसंधान करके आत्मा में स्फुरण उत्पन्न करता है । तथा संसार का क्षय करने वाले त्राण गुणों से युक्त है । वही मन्त्र है ।
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घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमी । कुलं शीलं तथा जातिरष्टौ पाशाः प्रकीर्तिताः ।
- घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति - ये 8 पाशों ( रस्सियों ) से बंधे होने के कारण मनुष्य सहित सभी जीव पशु कहे गये है, न कि सिर्फ गाय, बैल, कुत्ता, भैंस आदि को ही कहा है ।
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संस्कारसाक्षात्करणात पूर्वज्ञातिज्ञानम । ( योगसूत्र 3-18 ) पतञ्जलि
अवचेतन संस्कारों के प्रत्यक्षीकरण के फलस्वरुप पूर्वजन्मों का ज्ञान सहज ही प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार के अनुस्मरण को जातिस्मर कहते हैं ।
मनुष्याणाम सहस्रेषु कश्चितद्यतति सिद्धये..
हजारों व्यक्तियों में कोई एक साधना पथ पर अग्रसर होता है । और उनमें भी विरला ही कोई पहुँच पाता है ।
1 टिप्पणी:
Hari om narayan ।
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