छांडै आसा रहै निरास - फर्क समझ लेना । निराश शब्द का वह अर्थ नहीं है । जो तुम करने लगे हो अब । निराश कहते हैं उस आदमी को । जो बैठा है उदास । उसको हम निराश कहने लगे हैं । शब्द को हमने विकृत कर दिया है । निराश का सिर्फ इतना ही अर्थ होता है - जिसने सब आशाएं छोड़ दीं । और जिसने सब आशाएं छोड़ दीं । वह हमारे आधुनिक अर्थ में निराश हो ही नहीं सकता । निराश तो वही होता है । जिसकी आशा होती है । और आशा पूरी नहीं होती । तब निराशा होती है । जो आधुनिक अर्थ है निराशा का । वह समझ लो ठीक से । आधुनिक अर्थ है तुमने आशा की । और पूरी नहीं हुई तो निराशा । बैठे हो उदास...। चाहा था कि मिल जाये लाटरी और फिर नहीं मिली ।
मुल्ला नसरुद्दीन 1 दिन उदास बैठा था । पड़ोसी ने पूछा कि बड़े उदास मालूम हो रहे हो । तुम्हें तो खुश होना चाहिए । मैंने सुना है कि तुम्हारे चाचा पिछले सप्ताह मर गये । और 50 हजार रुपये तुम्हारे नाम छोड़ गये । तुम्हें तो खुश होना चाहिए ।
नसरुद्दीन ने कहा - हाँ खुश हुए थे । मगर अब नहीं हैं खुश । पिछले सप्ताह चाचा जी मर गये थे । 50 हजार छोड़ गये थे । उससे पिछले सप्ताह मामा जी मर गये थे । वे 1 लाख रुपये छोड़ गये थे ।
और अब 1 सप्ताह पूरा होने आया । अभी तक कोई नहीं मरा । क्या खाक... चित्त बड़ा निराश हो रहा है । सप्ताह पूरा होने आया । यह शनिवार आ गया । यह रविवार आया जाता है । अभी तक कोई भी नहीं मरा ।
हंसो मत, मन की यही प्रक्रिया है । जितना दो । उतना ही भिखमंगा होता चला जाता है । जितना मिले । उतना दीन दरिद्र हो जाता है । बड़े बड़े सम्राट भी हाथ फैलाये खड़े हैं - और मिल जाये...।
पुराना जो अर्थ है - निराश का । बड़ा गंभीर है । बड़ा गहन है । और बड़ा अर्थपूर्ण है । उसका अर्थ है - आशा गयी उसकी । तो निराशा भी गयी । न आशा बची । न निराशा बची । उस अवस्था को निराश कहते थे । निर+आस । आशा नहीं । उसी के साथ तो निराशा भी गयी । जिसको सफलता की आकांक्षा नहीं । उसको विफल कैसे करोगे ? और जिसकी कोई आशा नहीं है । उसको निराश कैसे करोगे ?
लाओत्सु ने कहा है - मुझे कोई हरा नहीं सकता । क्योंकि मेरे मन में जीतने की कोई आकांक्षा नहीं है । आओ, कोई मुझे हराओ । कोई मुझे हरा नहीं सकता । क्योंकि मैं जीतना ही नहीं चाहता ।
अगर तुम लाओत्सु पर हमला करोगे । वह चारों खाने चित लेट जायेगा और कहेगा - भाई ! बैठो, ऊपर बैठ जाओ । थोड़ा मजा ले लो । लंगोटा घुमाओ । अपने घर जाओ । मुझे कोई इच्छा ही नहीं जीतने की । इसलिए मुझे हराओगे कैसे ? उसी को हरा सकते हो । जो विजय का आकांक्षी हो । और वही निराशा को उत्पन्न होता है । जो आशा से भरा था । पुराना निराश का अर्थ बड़ा बहुमूल्य है । आशा निराशा दोनों की शून्यता जहां है । उसको निराश कहते हैं । और यह होना ही चाहिए । अगर तुम्हारा अर्थ निराशा का होता । तो फिर हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं, हैसै षेलै न करै मन भंग... फिर इसका कोई अर्थ नहीं रह जायेगा । नहीं । निराश का अर्थ है । हमने सब आशाएं छोड़ दीं । अब हम मांगते ही नहीं । हम भिखमंगे न रहे । अब भविष्य से हमारी कोई अपेक्षा नहीं है । जो होगा होगा । जो नहीं होगा । नहीं होगा । जो होगा । हम उसमें मस्त हैं । हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं । जो है । हम उसमें आनंदित हैं । जैसा है । उससे हमें रत्ती भर भिन्न की कोई आकांक्षा नहीं है । उसने अब तक दिया है । देता रहेगा । हर घड़ी हम आनंद से जीये हैं ।
और 1 बड़े मजे की बात है कि जो जितना आनंद से जीता है । उतना ज्यादा आनंद उसे मिलता है । जो जितना ज्यादा दुखी जीता है । उतना ज्यादा दुख उसे मिलता है । क्योंकि हम जो अपने प्राणों में पैदा करते हैं । वही आकर्षित होने लगता है हमारी तरफ । हम चुंबक बन जाते हैं ।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है कि जिनके पास है । उन्हें और दिया जायेगा । और जिनके पास नहीं है । उनसे वह भी छीन लिया जायेगा । जो उनके पास है । बड़ा कठोर वचन है । लगता है बड़ी अन्यायपूर्ण बात हो गयी यह तो, कि जिनके पास है । उन्हें और दिया जायेगा । और जिनके पास नहीं है । उनसे वह भी छीन लिया जायेगा जो है । नहीं । लेकिन जीसस के वचन में जरा भी अन्याय नहीं है । यह जीवन का सीधा सीधा नियम है । यही घट रहा है । अगर तुम आनंदित हो । तुम और भी आनंदित हो जाओगे । तुम अगर हंस सकते हो । तुम्हारी हंसी में और 4 चांद जुड़ते जायेंगे । तुम अगर नाच सकते हो । तुम्हारे नाच में और छंदबद्धता आ जायेगी । तुम अगर गा सकते हो । आकाश तुम्हारे साथ गायेगा । पर्वत शृखलाएं तुम्हारे साथ गायेगी । चांद, तारे तुम्हारे साथ गायेंगे । और तुम अगर रोने लगे । और तुम अगर बेचैन होने लगे । तो चारों तरफ से बेचैनिया तुम्हारी तरफ चलने लगेंगी ।
तुम जो हो । उसी को तुम आकर्षित करते हो । यह जीवन का परम नियम है । तुम जैसे हो । वही तुम्हारे पास आता है । इसलिये सुखी आदमी और सुखी होता जाता है । शात आदमी और शात होता जाता है । अशांत आदमी और अशांत होता जाता है । दुखी आदमी और दुखी होता जाता है । तुम्हारा अभ्यास बढ़ता जाता है । दुखी आदमी दुख का अभ्यास कर रहा है ।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने डाक्टर के पास गया । सुबह सुबह खांसता खंखारता...। डाक्टर ने कहा कि नसरुद्दीन क्या हालत है । खांसी कुछ अच्छी मालूम होती है ? उसने कहा - अच्छी क्यों नहीं होगी । 3 सप्ताह से अभ्यास कर रहा हूं । अच्छी क्यों नहीं होगी । रात भर अभ्यास किया है । लयबद्धता आयी जा रही है । साज बैठा जा रहा है । अच्छी क्यों नहीं होगी ?
लोग दुख में भी कुशल हो जाते हैं । खयाल रखना । मैं जानता हूं । हजारों लोगों को, दुख में कुशल हो गये हैं । दुख के कलाकार हैं वे । जहां दुख न भी हो । वहां दुख पैदा कर लेते हैं । उनकी कुशलता ऐसी है । उनकी प्रवीणता ऐसी है कि जहां न भी हो काटा । वहां भी काटा गड़ा लेते हैं । उन्हें फूल भी काटे हो जाते हैं । अब यहां तो मस्ती का आलम है । यहां आकर लोग दुखी हो जाते हैं । यह देखकर दुखी हो जाते हैं कि दूसरे इतने मस्त क्यों हैं ? बात क्या है ? यह कैसा धर्म ? धर्म से उनका प्रयोजन है - बैठे हैं अपनी अपनी कब्र पर । एक पांव कब्र में डाले । माला हाथ में लिये । मुर्दे, ठूंठ । सब पत्ते झड़ गये । न कोई फूल लगता है । न कोई पक्षी बोलते हैं । तब वे कहते हैं - अहा ! यह है धर्म । महात्मा बहुत पहुंचे हुए हैं ।
तुम दुखी हो गये हो । तुम दुख की ही भाषा समझ पाते हो अब । तुम दुख को ही पहचान पाते हो । तुम्हारी दुख के संबंध में इतनी कुशलता हो गयी है कि दुखी से ही तुम्हारा संबंध जुड़ जाता है । तो जितना कोई महात्मा अपने को सताये, गलाये, परेशान करे । उतनी भीड़ उसके पास इकट्ठी होने लगती है ।
मुझसे लोग पूछते हैं कि आपके पास भारतीय लोग कम क्यों आ रहे हैं ? उसका कारण है । भारत दुख में निष्णात हो गया है । हजारों साल में इसने स्वयं को कष्ट देने की कला में खूब कुशलता पा ली है । कांटे बिछाते हैं लोग । उन पर सोते हैं । जैसे कि बिना कांटों के उन्हें नींद न आयेगी । वैसे ही आग बरस रही है । वे और धूनी लगाकर बैठे हैं । शरीर वैसे ही मिट्टी हुआ जा रहा है । उस पर और राख पोतते हैं । इस देश ने बहुत दुख का अभ्यास कर लिया है । मेरा संदेश सुख का है ।
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं...। ओशो
मुल्ला नसरुद्दीन 1 दिन उदास बैठा था । पड़ोसी ने पूछा कि बड़े उदास मालूम हो रहे हो । तुम्हें तो खुश होना चाहिए । मैंने सुना है कि तुम्हारे चाचा पिछले सप्ताह मर गये । और 50 हजार रुपये तुम्हारे नाम छोड़ गये । तुम्हें तो खुश होना चाहिए ।
नसरुद्दीन ने कहा - हाँ खुश हुए थे । मगर अब नहीं हैं खुश । पिछले सप्ताह चाचा जी मर गये थे । 50 हजार छोड़ गये थे । उससे पिछले सप्ताह मामा जी मर गये थे । वे 1 लाख रुपये छोड़ गये थे ।
और अब 1 सप्ताह पूरा होने आया । अभी तक कोई नहीं मरा । क्या खाक... चित्त बड़ा निराश हो रहा है । सप्ताह पूरा होने आया । यह शनिवार आ गया । यह रविवार आया जाता है । अभी तक कोई भी नहीं मरा ।
हंसो मत, मन की यही प्रक्रिया है । जितना दो । उतना ही भिखमंगा होता चला जाता है । जितना मिले । उतना दीन दरिद्र हो जाता है । बड़े बड़े सम्राट भी हाथ फैलाये खड़े हैं - और मिल जाये...।
पुराना जो अर्थ है - निराश का । बड़ा गंभीर है । बड़ा गहन है । और बड़ा अर्थपूर्ण है । उसका अर्थ है - आशा गयी उसकी । तो निराशा भी गयी । न आशा बची । न निराशा बची । उस अवस्था को निराश कहते थे । निर+आस । आशा नहीं । उसी के साथ तो निराशा भी गयी । जिसको सफलता की आकांक्षा नहीं । उसको विफल कैसे करोगे ? और जिसकी कोई आशा नहीं है । उसको निराश कैसे करोगे ?
लाओत्सु ने कहा है - मुझे कोई हरा नहीं सकता । क्योंकि मेरे मन में जीतने की कोई आकांक्षा नहीं है । आओ, कोई मुझे हराओ । कोई मुझे हरा नहीं सकता । क्योंकि मैं जीतना ही नहीं चाहता ।
अगर तुम लाओत्सु पर हमला करोगे । वह चारों खाने चित लेट जायेगा और कहेगा - भाई ! बैठो, ऊपर बैठ जाओ । थोड़ा मजा ले लो । लंगोटा घुमाओ । अपने घर जाओ । मुझे कोई इच्छा ही नहीं जीतने की । इसलिए मुझे हराओगे कैसे ? उसी को हरा सकते हो । जो विजय का आकांक्षी हो । और वही निराशा को उत्पन्न होता है । जो आशा से भरा था । पुराना निराश का अर्थ बड़ा बहुमूल्य है । आशा निराशा दोनों की शून्यता जहां है । उसको निराश कहते हैं । और यह होना ही चाहिए । अगर तुम्हारा अर्थ निराशा का होता । तो फिर हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं, हैसै षेलै न करै मन भंग... फिर इसका कोई अर्थ नहीं रह जायेगा । नहीं । निराश का अर्थ है । हमने सब आशाएं छोड़ दीं । अब हम मांगते ही नहीं । हम भिखमंगे न रहे । अब भविष्य से हमारी कोई अपेक्षा नहीं है । जो होगा होगा । जो नहीं होगा । नहीं होगा । जो होगा । हम उसमें मस्त हैं । हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं । जो है । हम उसमें आनंदित हैं । जैसा है । उससे हमें रत्ती भर भिन्न की कोई आकांक्षा नहीं है । उसने अब तक दिया है । देता रहेगा । हर घड़ी हम आनंद से जीये हैं ।
और 1 बड़े मजे की बात है कि जो जितना आनंद से जीता है । उतना ज्यादा आनंद उसे मिलता है । जो जितना ज्यादा दुखी जीता है । उतना ज्यादा दुख उसे मिलता है । क्योंकि हम जो अपने प्राणों में पैदा करते हैं । वही आकर्षित होने लगता है हमारी तरफ । हम चुंबक बन जाते हैं ।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है कि जिनके पास है । उन्हें और दिया जायेगा । और जिनके पास नहीं है । उनसे वह भी छीन लिया जायेगा । जो उनके पास है । बड़ा कठोर वचन है । लगता है बड़ी अन्यायपूर्ण बात हो गयी यह तो, कि जिनके पास है । उन्हें और दिया जायेगा । और जिनके पास नहीं है । उनसे वह भी छीन लिया जायेगा जो है । नहीं । लेकिन जीसस के वचन में जरा भी अन्याय नहीं है । यह जीवन का सीधा सीधा नियम है । यही घट रहा है । अगर तुम आनंदित हो । तुम और भी आनंदित हो जाओगे । तुम अगर हंस सकते हो । तुम्हारी हंसी में और 4 चांद जुड़ते जायेंगे । तुम अगर नाच सकते हो । तुम्हारे नाच में और छंदबद्धता आ जायेगी । तुम अगर गा सकते हो । आकाश तुम्हारे साथ गायेगा । पर्वत शृखलाएं तुम्हारे साथ गायेगी । चांद, तारे तुम्हारे साथ गायेंगे । और तुम अगर रोने लगे । और तुम अगर बेचैन होने लगे । तो चारों तरफ से बेचैनिया तुम्हारी तरफ चलने लगेंगी ।
तुम जो हो । उसी को तुम आकर्षित करते हो । यह जीवन का परम नियम है । तुम जैसे हो । वही तुम्हारे पास आता है । इसलिये सुखी आदमी और सुखी होता जाता है । शात आदमी और शात होता जाता है । अशांत आदमी और अशांत होता जाता है । दुखी आदमी और दुखी होता जाता है । तुम्हारा अभ्यास बढ़ता जाता है । दुखी आदमी दुख का अभ्यास कर रहा है ।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने डाक्टर के पास गया । सुबह सुबह खांसता खंखारता...। डाक्टर ने कहा कि नसरुद्दीन क्या हालत है । खांसी कुछ अच्छी मालूम होती है ? उसने कहा - अच्छी क्यों नहीं होगी । 3 सप्ताह से अभ्यास कर रहा हूं । अच्छी क्यों नहीं होगी । रात भर अभ्यास किया है । लयबद्धता आयी जा रही है । साज बैठा जा रहा है । अच्छी क्यों नहीं होगी ?
लोग दुख में भी कुशल हो जाते हैं । खयाल रखना । मैं जानता हूं । हजारों लोगों को, दुख में कुशल हो गये हैं । दुख के कलाकार हैं वे । जहां दुख न भी हो । वहां दुख पैदा कर लेते हैं । उनकी कुशलता ऐसी है । उनकी प्रवीणता ऐसी है कि जहां न भी हो काटा । वहां भी काटा गड़ा लेते हैं । उन्हें फूल भी काटे हो जाते हैं । अब यहां तो मस्ती का आलम है । यहां आकर लोग दुखी हो जाते हैं । यह देखकर दुखी हो जाते हैं कि दूसरे इतने मस्त क्यों हैं ? बात क्या है ? यह कैसा धर्म ? धर्म से उनका प्रयोजन है - बैठे हैं अपनी अपनी कब्र पर । एक पांव कब्र में डाले । माला हाथ में लिये । मुर्दे, ठूंठ । सब पत्ते झड़ गये । न कोई फूल लगता है । न कोई पक्षी बोलते हैं । तब वे कहते हैं - अहा ! यह है धर्म । महात्मा बहुत पहुंचे हुए हैं ।
तुम दुखी हो गये हो । तुम दुख की ही भाषा समझ पाते हो अब । तुम दुख को ही पहचान पाते हो । तुम्हारी दुख के संबंध में इतनी कुशलता हो गयी है कि दुखी से ही तुम्हारा संबंध जुड़ जाता है । तो जितना कोई महात्मा अपने को सताये, गलाये, परेशान करे । उतनी भीड़ उसके पास इकट्ठी होने लगती है ।
मुझसे लोग पूछते हैं कि आपके पास भारतीय लोग कम क्यों आ रहे हैं ? उसका कारण है । भारत दुख में निष्णात हो गया है । हजारों साल में इसने स्वयं को कष्ट देने की कला में खूब कुशलता पा ली है । कांटे बिछाते हैं लोग । उन पर सोते हैं । जैसे कि बिना कांटों के उन्हें नींद न आयेगी । वैसे ही आग बरस रही है । वे और धूनी लगाकर बैठे हैं । शरीर वैसे ही मिट्टी हुआ जा रहा है । उस पर और राख पोतते हैं । इस देश ने बहुत दुख का अभ्यास कर लिया है । मेरा संदेश सुख का है ।
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं...। ओशो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें