मरौ वे जोगी मरौ ! ऐसा अदभुत वचन है । कहते हैं - मर जाओ । मिट जाओ । बिलकुल मिट जाओ । मरौ वे जोगी मरौ मरौ मरन है मीठा ?
क्योंकि मृत्यु से ज्यादा मीठी और कोई चीज इस जगत में नहीं है ।
तिस मरणी मरौ...और ऐसी मृत्यु मरो । जिस मरणी गोरष मरि दीठा ।
जिस तरह से मरकर गोरख को दर्शन उपलब्ध हुआ । ऐसे ही तुम भी मर जाओ । और दर्शन को उपलब्ध हो जाओ ।
एक मृत्यु है । जिससे हम परिचित हैं । जिसमें देह मरती है । मगर हमारा अहंकार और हमारा मन जीवित रह जाता है । वही अहंकार नये गर्भ लेता है । वही अहंकार नयी वासनाओं से पीड़ित हुआ फिर यात्रा पर निकल जाता है । एक देह से छूटा नहीं कि दूसरी देह के लिये आतुर हो जाता है । तो यह मृत्यु तो वास्तविक मृत्यु नहीं है ।
मैंने सुना है । एक आदमी ने गोरख से कहा कि मैं आत्महत्या करने की सोच रहा हूं । गोरख ने कहा - जाओ और करो । मैं तुमसे कहता हूं । तुम करके बहुत चौंकोगे ।
उस आदमी ने कहा - मतलब ? मैं आया था कि आप समझायेंगे कि मत करो । मैं और साधुओं के पास भी गया । सभी ने समझाया कि भाई, ऐसा मत करो । आत्महत्या बड़ा पाप है ।
गोरख ने कहा - पागल हुए हो । आत्महत्या कोई कर ही नहीं सकता । कोई मर ही नहीं सकता । मरना संभव नहीं है । मैं तुमसे कहे देता हूं - करो । करके बहुत चौंकोगे । करके पाओगे कि अरे, देह तो छूट गयी । मैं तो वैसा का वैसा हूं । और अगर असली आत्महत्या करनी हो । तो फिर मेरे पास रुक जाओ । छोटा मोटा खेल करना हो । तो तुम्हारी मर्जी । कूद जाओ किसी पहाड़ी से । लगा लो गर्दन में फांसी । असली मरना हो । तो रुक जाओ मेरे पास । मैं तुम्हें वह कला दूंगा । जिससे महामृत्यु घटती है । फिर दुबारा आना न हो सकेगा । लेकिन वह महामृत्यु भी सिर्फ हमें महामृत्यु मालूम होती है । इसलिए उसको मीठा कह रहे हैं ।
मरौ वे जोगी मरौ । मरौ मरन है मीठा ।
तिस मरणी मरौ । जिस मरणी गोरष मरि दीठा ।
ऐसी मृत्यु तुम्हें सिखाता हूं । गोरख कहते हैं - जिस मृत्यु से गुजर कर मैं जागा । सोने की मृत्यु हुई है । मेरी नहीं । अहंकार मरा । मैं नहीं । द्वैत मरा । मैं नहीं । द्वैत मरा । तो अद्वैत का जन्म हुआ । समय मरा । तो शाश्वतता मिली । वह जो क्षुद्र सीमित जीवन था । टूटा । तो बूंद सागर हो गयी । निश्चित ही जब बूंद सागर में गिरती है । तो 1 अर्थ में मर जाती है । बूंद की तरह मर जाती है । और 1 अर्थ में पहली बार महाजीवन उपलब्ध होता है - सागर की भांति जीती है ।
रहीम का वचन है -
बिंदु भी सिंधु समान, को अचरज कासों कहें ।
हेरनहार हैरान, रहिमन अपने आपने ।
रहीम कहते हैं - बिंदु भी सिंधु के समान है । को अचरज कासों कहें । किससे कहें । कौन मानेगा । बात इतनी विस्मयकारी है । कौन स्वीकार करेगा कि बिंदु और सिंधु के समान है कि बूंद सागर है कि अणु में परमात्मा विराजमान है कि क्षुद्र यहां कुछ भी नहीं है कि सभी में विराट समाविष्ट है ।
बिंदु भी सिंधु समान, को अचरज कासों कहें ।
ऐसे अचरज की बात है । किसी से कहो । कोई मानता नहीं । अचरज की बात ऐसी है । जब पहली दफा खुद भी जाना था । तो मानने का मन न हुआ था - हेरनहार हैरान ।
जब पहली दफा खुद देखा था । तो मैं खुद ही हैरान रह गया था । हेरनहार हैरान । रहिमन अपने आपने ।
देखता था खुद को । और हैरान होता था । क्योंकि मैंने तो सदा यही जाना था कि क्षुद्र हूं । लेकिन स्वयं का विराट तभी अनुभव में आता है । जब क्षुद्र की सीमाएं कोई तोड़ देता है । क्षुद्र का अतिक्रमण करता है जब कोई ।
अहंकार होकर तुमने कुछ कमाया नहीं । गंवाया है । अहंकार निर्मित करके तुमने कुछ पाया नहीं । सब खोया है । बूंद रह गये हो । बड़ी छोटी बूंद रह गये हो । जितने अकड़ते हो । उतने छोटे होते जाते हो ।
अकड़ना और और अहंकार को मजबूत करता है । जितने गलोगे । उतने बड़े हो जाओगे । जितने पिघलोगे । उतने बड़े हो जाओगे । अगर बिलकुल पिघल जाओ । वाष्पीभूत हो जाओ । तो सारा आकाश तुम्हारा है । गिरो सागर में तो तुम सागर हो जाओ । उठो आकाश में वाष्पीभूत होकर । तो तुम आकाश हो जाओ । तुम्हारा होना । और परमात्मा का होना 1 ही है ।
बिंदु भी सिंधु समान, को अचरज कासों कहें ।
लेकिन जब पहली दफे तुम्हें भी अनुभव होगा । तुम भी एकदम गूंगे हो जाओगे । गूंगे केरी सरकस. अनुभव तो होने लगेगा । स्वाद तो आने लगेगा । अमृत तो भीतर झरने लगेगा कंठ में । मगर कहने के लिये शब्द न मिलेंगे । को अचरज कासों कहें ! कैसे कहें बात इतने अचरज की है ? जिन्होंने हिम्मत करके कहा - अहं ब्रह्मास्मि । सोचते हो । कोई मानता है ?
मंसूर ने कहा - अनलहक ! मैं परमात्मा हूं । सूली पर चढ़ा दिया लोगों ने । जीसस को मार डाला । क्योंकि जीसस ने यह कहा कि वह जो आकाश में है - मेरा पिता और मैं । हम दोनों 1 ही हैं । पिता और बेटा 2 नहीं हैं । यहूदी क्षमा न कर सके । जब भी किसी ने घोषणा की है भगवत्ता की । तभी लोग क्षमा नहीं कर सके । बात ही ऐसी है । को अचरज कासों कहें । किससे कहने जाओ ? जिससे कहोगे । वही इनकार करने लगेगा । ओशो
क्योंकि मृत्यु से ज्यादा मीठी और कोई चीज इस जगत में नहीं है ।
तिस मरणी मरौ...और ऐसी मृत्यु मरो । जिस मरणी गोरष मरि दीठा ।
जिस तरह से मरकर गोरख को दर्शन उपलब्ध हुआ । ऐसे ही तुम भी मर जाओ । और दर्शन को उपलब्ध हो जाओ ।
एक मृत्यु है । जिससे हम परिचित हैं । जिसमें देह मरती है । मगर हमारा अहंकार और हमारा मन जीवित रह जाता है । वही अहंकार नये गर्भ लेता है । वही अहंकार नयी वासनाओं से पीड़ित हुआ फिर यात्रा पर निकल जाता है । एक देह से छूटा नहीं कि दूसरी देह के लिये आतुर हो जाता है । तो यह मृत्यु तो वास्तविक मृत्यु नहीं है ।
मैंने सुना है । एक आदमी ने गोरख से कहा कि मैं आत्महत्या करने की सोच रहा हूं । गोरख ने कहा - जाओ और करो । मैं तुमसे कहता हूं । तुम करके बहुत चौंकोगे ।
उस आदमी ने कहा - मतलब ? मैं आया था कि आप समझायेंगे कि मत करो । मैं और साधुओं के पास भी गया । सभी ने समझाया कि भाई, ऐसा मत करो । आत्महत्या बड़ा पाप है ।
गोरख ने कहा - पागल हुए हो । आत्महत्या कोई कर ही नहीं सकता । कोई मर ही नहीं सकता । मरना संभव नहीं है । मैं तुमसे कहे देता हूं - करो । करके बहुत चौंकोगे । करके पाओगे कि अरे, देह तो छूट गयी । मैं तो वैसा का वैसा हूं । और अगर असली आत्महत्या करनी हो । तो फिर मेरे पास रुक जाओ । छोटा मोटा खेल करना हो । तो तुम्हारी मर्जी । कूद जाओ किसी पहाड़ी से । लगा लो गर्दन में फांसी । असली मरना हो । तो रुक जाओ मेरे पास । मैं तुम्हें वह कला दूंगा । जिससे महामृत्यु घटती है । फिर दुबारा आना न हो सकेगा । लेकिन वह महामृत्यु भी सिर्फ हमें महामृत्यु मालूम होती है । इसलिए उसको मीठा कह रहे हैं ।
मरौ वे जोगी मरौ । मरौ मरन है मीठा ।
तिस मरणी मरौ । जिस मरणी गोरष मरि दीठा ।
ऐसी मृत्यु तुम्हें सिखाता हूं । गोरख कहते हैं - जिस मृत्यु से गुजर कर मैं जागा । सोने की मृत्यु हुई है । मेरी नहीं । अहंकार मरा । मैं नहीं । द्वैत मरा । मैं नहीं । द्वैत मरा । तो अद्वैत का जन्म हुआ । समय मरा । तो शाश्वतता मिली । वह जो क्षुद्र सीमित जीवन था । टूटा । तो बूंद सागर हो गयी । निश्चित ही जब बूंद सागर में गिरती है । तो 1 अर्थ में मर जाती है । बूंद की तरह मर जाती है । और 1 अर्थ में पहली बार महाजीवन उपलब्ध होता है - सागर की भांति जीती है ।
रहीम का वचन है -
बिंदु भी सिंधु समान, को अचरज कासों कहें ।
हेरनहार हैरान, रहिमन अपने आपने ।
रहीम कहते हैं - बिंदु भी सिंधु के समान है । को अचरज कासों कहें । किससे कहें । कौन मानेगा । बात इतनी विस्मयकारी है । कौन स्वीकार करेगा कि बिंदु और सिंधु के समान है कि बूंद सागर है कि अणु में परमात्मा विराजमान है कि क्षुद्र यहां कुछ भी नहीं है कि सभी में विराट समाविष्ट है ।
बिंदु भी सिंधु समान, को अचरज कासों कहें ।
ऐसे अचरज की बात है । किसी से कहो । कोई मानता नहीं । अचरज की बात ऐसी है । जब पहली दफा खुद भी जाना था । तो मानने का मन न हुआ था - हेरनहार हैरान ।
जब पहली दफा खुद देखा था । तो मैं खुद ही हैरान रह गया था । हेरनहार हैरान । रहिमन अपने आपने ।
देखता था खुद को । और हैरान होता था । क्योंकि मैंने तो सदा यही जाना था कि क्षुद्र हूं । लेकिन स्वयं का विराट तभी अनुभव में आता है । जब क्षुद्र की सीमाएं कोई तोड़ देता है । क्षुद्र का अतिक्रमण करता है जब कोई ।
अहंकार होकर तुमने कुछ कमाया नहीं । गंवाया है । अहंकार निर्मित करके तुमने कुछ पाया नहीं । सब खोया है । बूंद रह गये हो । बड़ी छोटी बूंद रह गये हो । जितने अकड़ते हो । उतने छोटे होते जाते हो ।
अकड़ना और और अहंकार को मजबूत करता है । जितने गलोगे । उतने बड़े हो जाओगे । जितने पिघलोगे । उतने बड़े हो जाओगे । अगर बिलकुल पिघल जाओ । वाष्पीभूत हो जाओ । तो सारा आकाश तुम्हारा है । गिरो सागर में तो तुम सागर हो जाओ । उठो आकाश में वाष्पीभूत होकर । तो तुम आकाश हो जाओ । तुम्हारा होना । और परमात्मा का होना 1 ही है ।
बिंदु भी सिंधु समान, को अचरज कासों कहें ।
लेकिन जब पहली दफे तुम्हें भी अनुभव होगा । तुम भी एकदम गूंगे हो जाओगे । गूंगे केरी सरकस. अनुभव तो होने लगेगा । स्वाद तो आने लगेगा । अमृत तो भीतर झरने लगेगा कंठ में । मगर कहने के लिये शब्द न मिलेंगे । को अचरज कासों कहें ! कैसे कहें बात इतने अचरज की है ? जिन्होंने हिम्मत करके कहा - अहं ब्रह्मास्मि । सोचते हो । कोई मानता है ?
मंसूर ने कहा - अनलहक ! मैं परमात्मा हूं । सूली पर चढ़ा दिया लोगों ने । जीसस को मार डाला । क्योंकि जीसस ने यह कहा कि वह जो आकाश में है - मेरा पिता और मैं । हम दोनों 1 ही हैं । पिता और बेटा 2 नहीं हैं । यहूदी क्षमा न कर सके । जब भी किसी ने घोषणा की है भगवत्ता की । तभी लोग क्षमा नहीं कर सके । बात ही ऐसी है । को अचरज कासों कहें । किससे कहने जाओ ? जिससे कहोगे । वही इनकार करने लगेगा । ओशो
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