आईये आज गोस्वामी तुलसीदास कृत " हनुमान चालीसा " के मूल रहस्य की बात करते हैं । क्योंकि इसको ( किसी साधारण कवि ने नहीं ) तुलसीदास ने लिखा है । और इसका योग साधना से गहरा सम्बन्ध है । इसमें जो मुख्य पात्र हनुमान है । उसका अर्थ ही ऐसे साधक या भक्त से है - जो पूर्णतया मान रहित होकर भक्त हो गया हो । मैंने कल के ( शंकर का धनुष तोङने वाले ) लेख में कहा था । आपको आध्यात्म में प्रत्येक पात्र का नाम विशेष अर्थ लिये मिलेगा । यही बात हनुमान पवन सुत आदि नाम में भी है । एक और बात भी है । ये विशेष प्रकार के भक्ति पद 40 दोहों में क्यों होते हैं ? मेरे विचार से - 5 तत्वों का शरीर + 5 ज्ञानेन्द्रियां + 5 कर्मेन्द्रियां + शरीर की 25 प्रकृतियां = 40 इसलिये ये इसी मनुष्य शरीर की ज्ञान अज्ञान भक्ति आदि का वर्णन है । तब आईये । हनुमान चालीसा का सही अर्थ समझने की कोशिश करें ।
श्री गुरु चरण सरोज रज । निज मनु मुकुर सुधारि ।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु । जो दायकु फल चारि ।
( श्री ) का अर्थ सम्पदा या ऐश्वर्य से है । ये जिसके भी आगे लगा है । उसके ऐश्वर्य का प्रतीक है । ये जिस अस्तित्व के साथ जुङा हो । उसके वैभव को दर्शाता है । अतः इसको हमेशा इसी अन्दाज में समझें ।
( गुरु ) शब्द में गु और रु दो अक्षर हैं । गु अंधकार और रु प्रकाश का द्योतक है । और संयुक्त गुरु शब्द ज्ञान का पर्याय है । यानी एक ऐसा अस्तित्व..जो आत्मा से जीवात्मा के बीच में ज्ञान अज्ञान और प्रकाश अंधकार का अंतर या बोध कराये । एक दूसरे भाव में गुरु को अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाला भी कहते हैं । कुल मिलाकर बात एक ही है ।
( चरन सरोज रज ) अब यहाँ मैं सनातन धर्म जो आजकल हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रचलित हो गया है पर एक विशेष बात कहना चाहूँगा । जो इस धर्म को सर्वोच्च और सबसे अलग खास श्रेणी में ले जाती है । देखिये - सिर्फ़ गुरु के चरण ( सरोज ) कमल ( रज..की ) धूल की ही बात कही गयी है । गुरु के पूर्ण अस्तित्व को तो
छोङिये । अभी चरणों की भी बात नही है । अभी तो चरण रज में ही इतनी शक्ति है कि ( निज मनु मुकुर सुधारि ) मेरे ( भक्त के ) मन ( अंतःकरण ) रूपी दर्पण को स्वच्छ कर देती है ।
( बरनऊँ रघुबर बिमल जसु ) बरनउँ ( वर्णन करना ) चेतन पुरुष ( रघुवर ) विमल ( निर्विकारी ) जसु ( यश या प्रकाश )
( जो दायकु फल चारि ) यानी धर्म अर्थ काम मोक्ष । ये चार फ़ल देने वाला है । सिर्फ़ धूल में ये ताकत है कि धर्म ( तत्व ज्ञान ) अर्थ ( लाभ या सार्थक कर्म या सार्थक जीवन ) काम ( विभिन्न सात्विक वृतियां ) और एक सम्पूर्ण खुशहाल जीवन के बाद मोक्ष ( मुक्त होना ) यानी कोई कर्म बेङी भी नहीं बनी । न पाप की । न पुण्य की ।
अब जरा गौर करें । विश्व के किसी भी धर्म ( वाणी ) में ये हिम्मत या ताकत है कि इतनी बङी बात कह सके ? ईसाई और इस्लाम धर्म सभी प्राप्ति मरणोपरांत और भक्ति का फ़ल जन्नत या स्वर्ग बताते हैं । जबकि देखिये - यही तुलसीदास कितनी सरलता से स्वर्ग को अत्यन्त तुच्छ बता रहे हैं -
एहि तन कर फल बिषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ।
हे भाई ! इस शरीर के फल विषय कर्म नहीं है । क्योंकि इस जगत के भोगों की तो बात ही क्या ( यदि तुम्हें स्वर्ग भी मिल जाये ) तो वह स्वर्ग भी थोङे समय का ही है । और 84 लाख योनियों के दुःखदायी अन्त को ही प्राप्त होता है ।
तो देखा आपने । सिर्फ़ दो लाइनों में ही अपार महिमा छुपी है ।
बुद्धि हीन तनु जानि के । सुमिरौ पवन कुमार ।
बल बुधि विद्या देहु मोहि । हरहु कलेस विकार ।
- स्वयं को बुद्धि हीन स्वीकार करते हुए । यानी किसी भी अहं भाव से रहित । पूर्ण समर्पण से । ( सुमिरौ पवन कुमार ) सुमिरौ ( भावपूर्ण स्मरण ) कौन करता है - पवन कुमार ? अधिकांश लोग ये समझते हैं कि ये चालीसा पढने वाले द्वारा " हनुमान " के सुमिरन की बात है । नहीं । आपकी स्वांस क्या है ? पवन यानी वायु । और इससे जो जीव रूपी पुत्र उत्पन्न हुआ । वही कुमार है । यानी भक्त । मान रहित भक्त - हनुमान ।
मुझे ( आत्म ) बल ( निश्चयात्मक ) बुद्धि ( और आध्यात्म ज्ञान ) विद्या दीजिये । जिससे मेरे कलेश और दोष दूर हों । गौर करें । ये सभी प्रार्थना भक्त ने गुरु से की है ।
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर । जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ।
राम दूत अतुलित बल धामा । अंजनि पुत्र पवन सुत नामा ।
- मान रहित भक्त ज्ञान और ( सद ) गुणों का समुद्र होकर तीनों लोकों में प्रकाशित हुआ जय पाता है । अब यहाँ कपीश शब्द के लिये समझना होगा । एक तो सभी गूढ ज्ञान संकेतात्मक है । दूसरे हनुमान के समान ही वानर कुल ( पुराने समय में बहुत से स्थानों पर पशु पक्षियों के नाम पर जातियों के नामकरण का रिवाज था । जैसे - गृद्ध । रिछ । वानर । सर्प ) में उत्पन्न भक्त । तीसरे रामायण प्रतीकात्मक है । और ये भी सच है कि - जहाँ यह
आंतरिक सूक्ष्म जगत के बारे में बताता है । वही जन सामान्य हेतु उसका स्थूल रूप भी प्रकट हुआ । गूढ का मतलब ही यह है कि - किसी भी चीज को रहस्यमय अन्दाज से बताना ।
राम दूत ( राम का सन्देश या जानकारी देता हुआ भक्त ) साधारण जीव की अपेक्षा अतुल्य ( आत्म ) बल से युक्त होता है ।
अंजनि पुत्र ( की व्याख्या करने पर बहुत विस्तार होगा । पर विकारी कामनाओं से उत्पन्न जीव समझा जा सकता है । वायु पुत्र की उपाधि ( क्यों ? ऊपर )
महावीर विक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ।
कंचन बरन बिराज सुबेसा । कानन कुंडल कुंचित केसा ।
- यानी राम भक्त कुमति को हटाकर सुमति को अपनाकर महावीर विक्रम ( शूरवीर ) बजरंगी आदि गुणों से युक्त हो जाता है । स्वर्ण के समान चमकती देह ( यानी रोगादि से ) निर्दोष सुन्दर वेशभूषा युक्त ।
हाथ वज्र औ ध्वजा बिराजै । काँधे मूँज जनेऊ साजै ।
शंकर सुवन केसरीनंदन । तेज प्रताप महा जग बंदन ।
- हाथ वज्र ( कर्मठता और मजबूती के साथ ) औ ध्वजा बिराजै ( कर्मक्षेत्र में विजय पताका फ़हराते हुये ) साधारण तपस्वी वेश में ।
शंकर के अंश और केसरी पुत्र ( यहाँ फ़िर से रूपक में सत्य घटित अंश जोङा गया है । जो कि ऐसी रचनाओं के लिये आवश्यक भी होता है । वैसे इसका अन्य रहस्य भी है । जो अति विस्तार की वजह से सम्भव नहीं है ) ऐसा महा तेजस्वी प्रतापी भक्त । जो संसार द्वारा वंदनीय है ।
विद्यावान गुनी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लषन सीता मन बसिया ।
- विद्यावान ( मूल ज्ञान को जानने वाले ) गुनी ( गुणवान ) अति चातुर ( साधुओं के लिये " सयाना " शब्द का प्रयोग भी किया जाता है - बुद्धि होय जो परम सयानी । अर्थात तभी वो सृष्टि और खुद के रहस्य को जान सकता है ) राम काज करिबे को आतुर ( अर्थात निष्काम कर्म । कोई ऐसा कर्म नहीं । जिसमें खुद की भावना जुङी हो । क्योंकि सृष्टि ही सिया राम मय है ) प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया ( शब्द नाम से जो सृष्टि रहस्य या चेतन रहस्य ध्यान भक्ति में अनुभव होते हैं । राम जनम के हेत अनेका । अति विचित्र एक ते एका । राम कथा जे सुनत अघाहीं । रस विशेष तिन जाना नाहीं ) राम लषन सीता मन बसिया ( चेतन जीव और माया तीनों को समझना । देखें लेख - शंकर के धनुष तोङने का रहस्य )
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा । विकट रूप धरि लंक जरावा ।
भीम रूप धरि असुर सँहारे । रामचंद्र के काज सँवारे ।
- अपने सूक्ष्म रूप । सुरति और माया को देखना । योग विशालता से असुर भूमि को नष्ट करना । योग बल से असुरत्व का विनाश । वास्तव में एक भक्त द्वारा चेतन ज्ञान में यह भक्ति कार्य ही है ।
लाय सजीवन लखन जियाये । श्री रघुबीर हरषि उर लाये ।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ।
लाय सजीवन लखन जियाये ( अहम से त्वम तक की साधना में स्वाभाविक ही कई स्थानों पर कृमशः प्राप्त होते योगबल से साधक में अक्सर अहम घटने के बजाय और भी अधिक होता है । पूर्ण ज्ञान न होने तक ये स्वाभाविक प्रक्रिया ही है । तब वह तमोगुण से प्रभावित शक्तिहीन अचेत हो जाता है । ऐसे में उसका ( अभि ) मान रहित भाव ( हनुमान ) फ़िर से उसके लिये संजीवनी ( पुनः जीवनदायी ) का कार्य करता है ) परमात्म सत्ता ऐसे भक्त को हर्षपूर्वक ह्रदय से लगाती है । यानी भरपूर नेह बरसाती है । तब प्रभु उसकी सराहना करते हैं कि - तुम मुझे ( किसी भी कार्य में ) भरण पोषण ( भरत ) करने वाले भाई के समान ही प्रिय हो ।
सहस बदन तुम्हरो जस गावै । अस कहि श्रीपति कंठ लगावै ।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ।
- हजारों जीव तुम्हारे यश ( भक्ति से जो मिला ) से भक्ति हेतु प्रेरित होंगे । ऐसा प्रभु का स्नेह आशीर्वाद होता है । सनक आदि ऋषि बृह्मा आदि देव मुनि नारद सरस्वती और शेषनाग..
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते । कबि कोविद कहि सके कहाँ ते ।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राज पद दीन्हा ।
यम कुबेर आदि दिग्पाल भी इस भक्त महिमा का बखान नहीं कर सकते हैं । फिर कवि और विद्वान कैसे कर पायेंगे । तुमने सुग्रीव पर उपकार करते हुये उसे राम से मिलाया । और राजपद दिलाया । ये फ़िर रूपक में सत्य कथानक जोङा गया है । हालांकि इसका भी रहस्य है । पर वो कम से कम इस लेख में बताना सम्भव नहीं )
तुम्हरो मंत्र विभीषन माना । लंकेश्वर भए सब जग जाना ।
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू । लील्यो ताहि मधुर फल जानू ।
- योग या भक्ति मार्ग में ( आंतरिक और बाह्य दोनों रूप से ) एक ही प्रकार में भी दो तरह के अच्छे और बुरे जीव ( आत्माओं ) से मिलना होता है । जैसे राक्षसों में भी क्रूर और सदभावना युक्त । ऐसे असुर प्रवृति भी " राम भक्त " से लाभ उठाकर अपने उद्धार का बीज बो देते हैं ।
जुग सहस्त्र जोजन..इसका अर्थ यही है कि योग क्रियाओं में ऐसी घटनायें राम भक्त के लिये महज खेल के समान हैं ।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं । जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं ।
दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।
- हँस की पांच मुद्रिकाओं में से एक जिसमें मुख के तालु में जीभ लगाकर अभ्यास किया जाता है । जिससे तालु कमजोर होकर वहाँ बहुत सूक्ष्म छेद हो जाता है । तब अभ्यास से इस मुद्रिका के सिद्ध होने पर कई ऋद्धि सिद्धि और विशेष साधक में उङने की क्षमता आ जाती है । संसार के जितने भी बेहद कठिन और असंभव से कार्य हैं । वो राम भक्त के लिये बहुत आसान हो जाते हैं । जो इच्छा करिहो मन माहीं । राम कृपा कुछ दुर्लभ नाहीं ।
राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रच्छक काहू को डरना ।
- एक मजेदार बात कही जाती है । यह आला ( अल्लाह ) का घर है । खाला ( मौसी ) का नहीं । शीश ( अभिमान ) उतार भूमि धरो । तब पैठो घर माहिं । यानी पूर्णतया मान रहित हुये बिना परमात्मा के दरवाजे में भी प्रवेश सम्भव नहीं । सभी सुख ऐसे राम भक्त की सेवा में हाजिर रहते हैं । और ये दूसरों को सुखी और निर्भय भी करता है ।
आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हाँक तें काँपै ।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ।
- इसका ( तप भक्ति योग ) तेज सहन करने की शक्ति वाला तीन लोक के दायरे में नहीं होता । भूत ( पूर्व जन्म के दुर्बल या पापी या दुष्ट संस्कार । ) पिशाच ( तमोगुण से आक्रामक होने वाली अति नीच वृतियां ) ये महावीर भक्त जब सत्य शब्द नाम से जुङता है । तो पास भी नहीं फ़टकते ।
नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरंतर हनुमत बीरा ।
संकट तें हनुमान छुडावैं । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ।
- सभी ( भव ) रोगों का और सभी कलेशों का वीर हनुमान द्वारा किये जाने वाले निरंतर जप ( अखंड अजपा ) से समूल नाश हो जाता है । यहाँ विशेश सोचने वाली बात है कि हनुमान अगर निरंतर ..राम राम ? जपते रहते थे । फ़िर वो अन्य तमाम सेवा कार्य कैसे करते थे ? जाहिर है । वह कोई गूढ ( अजपा ) जप ही है । ऐसा भक्त ( पूर्व संस्कारवश आये ) संकटो से आसानी से मुक्त हो जाता है । बस उसे मन वचन और कर्म से भक्ति युक्त होना होगा ।
सब पर राम तपस्वी राजा । तिन के काज सकल तुम साजा ।
और मनोरथ जो कोई लावै । सोइ अमित जीवन फल पावै ।
- निर्लेप प्रभु के सभी कार्य वास्तव में उनके ऐसे ही भक्तों से संपन्न होते हैं । प्रभु की कृपा दृष्टि मात्र से । ऐसे भक्त को सभी इच्छाओं के साथ अनन्त और अमर जीवन रूपी फ़ल प्राप्त होता है ।
चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्ध जगत उजियारा ।
साधु संत के तुम रखवारे । असुर निकंदन राम दुलारे ।
आपका प्रताप चारों युगों में विद्यमान रहता है । आपका प्रकाश सारे जगत में प्रसिद्ध है । मान रहित होना साधु संतों की रक्षा करता है । ऐसा असुरता का नाश करने वाला भक्त प्रभु को प्रिय है ।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन जानकी माता ।
राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ।
आठ सिद्धियां और नौ निधियां ऐसे भक्त को सहज प्राप्त हैं । ऐसे नियम का अनुभव ( जानकी ) वही स्वांस द्वारा सुरति शब्द योग । जान क्या है ? स्वांस का चलना ही तो है । भक्त के ज्ञान में आता है । राम रसायन ( शब्द नाम से उत्पन्न रस विशेष । जिससे सभी रसों की उत्पत्ति हुयी है । देखें - सबहिं रसायन हम किये नहिं नाम सम कोय । रंचक तन में संचरे सब तन कंचन होय ) ऐसे भक्त को प्राप्त है । जिससे वह सदा भक्ति में सलंग्न रहता है ।
तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ।
अंत काल रघुबर पुर जाई । जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई ।
- अधिकांश लोग सोचते हैं कि हनुमान का भजन या सुमरण करने से राम ( परमात्मा ) की प्राप्ति हो सकती है ? यह एकदम गलत है । दरअसल इसका मतलब है ( तुम्हरे भजन ) यानी हनुमान जो भजन ध्यान करते हैं । उससे ही राम की प्राप्ति होती है । रामचरित मानस में भी आया है - महामंत्र जोई जपत महेशू । काशी मुक्ति हेतु उपदेशू । यानी शंकर जिस महामंत्र का भजन करते हैं । वही काशी ( शरीर ) ..मन मथुरा दिल द्वारिका काया काशी जान । के मुक्त करने हेतु उपदेश है । और राम को पा लेने के बाद जन्म जन्म ( वास्तव में कर्म फ़ल संस्कार और गर्भ योनियों से छुटकारा होना ) के दुःख नष्ट हो जाते हैं । वह कोई नई बात नहीं है । इस शरीर का परम लक्ष्य यानी अपने मूल को प्राप्त ( रघुवर पुर ) कर हरि भक्त ( अनन्त चेतना से जुङना ) हो जाता है ।
और देवता चित न धरई । हनुमत से हि सर्व सुख करई ।
संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ।
- और देवताओं में उलझने की आवश्यकता ही नहीं है । हनुमत ( इसी भक्ति से ) से ही सभी सुख प्राप्त हो जाते हैं । देखें - भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी । बिनु सतसंग न पावहि प्राणी । सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिमि हरि शरन न एक हू बाधा । कर्म संस्कार रूपी संकट कटकर सभी दुःख दर्द दूर हो जाते हैं । यदि बलबीर हनुमान वाला भजन ध्यान आप करते हैं ।
जै जै जै हनुमान गोसाई । कृपा करहु गुरुदेव की नाई ।
जो सत बार पाठ कर कोई । छूटहि बंदि महा सुख होई ।
- यहाँ तुलसीदास एक भक्त भाव में इसी मानरहित भक्त की योग स्थिति की विनय करते हैं कि - जिस प्रकार गुरु की असीम कृपा होती है । वैसे ही मेरा यह मानरहित भाव हमेशा जयी हो । अर्थात भाव गिरे नहीं । जो इस ( शब्द नाम ) का सौ बार पाठ करता है । वह प्रत्येक भव बन्धन से छूटकर महासुख को प्राप्त होता है । देखें - कहे हू कह जात हू कहूँ बजाकर ढोल स्वांसा खाली जात है..तीन लोक का मोल ? और - जासु नाम सुमरत एक बारा । उतरहिं नर भव सिंधु अपारा । राम एक तापस तिय ( अहिल्या ) तारी । नाम कोटि खल सुमति सुधारी ।
जो यह पढ़ै हनुमान चलीसा । होय सिद्धि साखी गौरीसा ।
तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ ह्रदय महँ डेरा ।
- अतः जो इन चालीस पदों में छिपे सत्य को समझकर अपना लेता है । तो शंकर साक्षी है । उसका ज्ञान सिद्ध होने में कोई संशय नहीं है । इसलिये तुलसीदास इस सत्य को जानकार सदा के लिये ही हरि ( चेतन राम ) का दास हो गया । हे प्रभु ! सिर्फ़ आप ही मेरे ह्रदय में रहें । दूसरा कोई असत्य भाव या अस्तित्व न आये ।
पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप ।
राम लषन सीता सहित ह्रदय बसहु सुर भूप ।
पवन तनय ( तो सभी हैं । पर जो जान गया ऐसा भक्त जीव । हर घट तेरा साईयां सेज न सूनी कोय । बलिहारी उन घटन की जिन घट प्रकट होय । ) संकट दूर होना । मंगल मूर्ति यानी स्वयं का अमंगल रहित अस्तित्व । राम लषन सीता सहित ( इस आत्मा और चेतन माया जीव सृष्टि ज्ञान सहित ) सभी देवताओं के स्वामी मेरे ह्रदय में वास करें । अर्थात मेरा भाव इससे कभी हटे नहीं ।
सार विशेष - आपने देखा होगा । ज्ञान लेखन आदि विधाओं की अलग अलग गूढ सी शैलियां हैं । जो व्यक्ति के चिंतन मनन विकास आदि के लिये हैं । और जो सृष्टि को चलाये रखने के लिये आवश्यक है । अगर ऐसा नहीं होता । तो भगवान को मनुष्य की रोटी दाल वस्त्र आदि की पूर्ति के लिये इतने घुमावदार प्रपंच की क्या आवश्यकता थी । वो सीधे ऐसे वृक्ष ( या अन्य माध्यम ) बना सकता था । जिन पर दाल रोटी वस्त्र आदि सभी लगते । और कोई झंझट ही न होता । और सोचिये बिना झंझटों के जिन्दगी का क्या अर्थ होता - मनुष्य या मशीन ? इसी नजरिये से आप आध्यात्म ज्ञान को जानेंगे । तभी वास्तविक रहस्यों से अवगत होंगे । वही बात इस चालीसा में भी है ।
श्री गुरु चरण सरोज रज । निज मनु मुकुर सुधारि ।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु । जो दायकु फल चारि ।
( श्री ) का अर्थ सम्पदा या ऐश्वर्य से है । ये जिसके भी आगे लगा है । उसके ऐश्वर्य का प्रतीक है । ये जिस अस्तित्व के साथ जुङा हो । उसके वैभव को दर्शाता है । अतः इसको हमेशा इसी अन्दाज में समझें ।
( गुरु ) शब्द में गु और रु दो अक्षर हैं । गु अंधकार और रु प्रकाश का द्योतक है । और संयुक्त गुरु शब्द ज्ञान का पर्याय है । यानी एक ऐसा अस्तित्व..जो आत्मा से जीवात्मा के बीच में ज्ञान अज्ञान और प्रकाश अंधकार का अंतर या बोध कराये । एक दूसरे भाव में गुरु को अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाला भी कहते हैं । कुल मिलाकर बात एक ही है ।
( चरन सरोज रज ) अब यहाँ मैं सनातन धर्म जो आजकल हिन्दू धर्म के नाम से अधिक प्रचलित हो गया है पर एक विशेष बात कहना चाहूँगा । जो इस धर्म को सर्वोच्च और सबसे अलग खास श्रेणी में ले जाती है । देखिये - सिर्फ़ गुरु के चरण ( सरोज ) कमल ( रज..की ) धूल की ही बात कही गयी है । गुरु के पूर्ण अस्तित्व को तो
छोङिये । अभी चरणों की भी बात नही है । अभी तो चरण रज में ही इतनी शक्ति है कि ( निज मनु मुकुर सुधारि ) मेरे ( भक्त के ) मन ( अंतःकरण ) रूपी दर्पण को स्वच्छ कर देती है ।
( बरनऊँ रघुबर बिमल जसु ) बरनउँ ( वर्णन करना ) चेतन पुरुष ( रघुवर ) विमल ( निर्विकारी ) जसु ( यश या प्रकाश )
( जो दायकु फल चारि ) यानी धर्म अर्थ काम मोक्ष । ये चार फ़ल देने वाला है । सिर्फ़ धूल में ये ताकत है कि धर्म ( तत्व ज्ञान ) अर्थ ( लाभ या सार्थक कर्म या सार्थक जीवन ) काम ( विभिन्न सात्विक वृतियां ) और एक सम्पूर्ण खुशहाल जीवन के बाद मोक्ष ( मुक्त होना ) यानी कोई कर्म बेङी भी नहीं बनी । न पाप की । न पुण्य की ।
अब जरा गौर करें । विश्व के किसी भी धर्म ( वाणी ) में ये हिम्मत या ताकत है कि इतनी बङी बात कह सके ? ईसाई और इस्लाम धर्म सभी प्राप्ति मरणोपरांत और भक्ति का फ़ल जन्नत या स्वर्ग बताते हैं । जबकि देखिये - यही तुलसीदास कितनी सरलता से स्वर्ग को अत्यन्त तुच्छ बता रहे हैं -
एहि तन कर फल बिषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ।
हे भाई ! इस शरीर के फल विषय कर्म नहीं है । क्योंकि इस जगत के भोगों की तो बात ही क्या ( यदि तुम्हें स्वर्ग भी मिल जाये ) तो वह स्वर्ग भी थोङे समय का ही है । और 84 लाख योनियों के दुःखदायी अन्त को ही प्राप्त होता है ।
तो देखा आपने । सिर्फ़ दो लाइनों में ही अपार महिमा छुपी है ।
बुद्धि हीन तनु जानि के । सुमिरौ पवन कुमार ।
बल बुधि विद्या देहु मोहि । हरहु कलेस विकार ।
- स्वयं को बुद्धि हीन स्वीकार करते हुए । यानी किसी भी अहं भाव से रहित । पूर्ण समर्पण से । ( सुमिरौ पवन कुमार ) सुमिरौ ( भावपूर्ण स्मरण ) कौन करता है - पवन कुमार ? अधिकांश लोग ये समझते हैं कि ये चालीसा पढने वाले द्वारा " हनुमान " के सुमिरन की बात है । नहीं । आपकी स्वांस क्या है ? पवन यानी वायु । और इससे जो जीव रूपी पुत्र उत्पन्न हुआ । वही कुमार है । यानी भक्त । मान रहित भक्त - हनुमान ।
मुझे ( आत्म ) बल ( निश्चयात्मक ) बुद्धि ( और आध्यात्म ज्ञान ) विद्या दीजिये । जिससे मेरे कलेश और दोष दूर हों । गौर करें । ये सभी प्रार्थना भक्त ने गुरु से की है ।
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर । जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ।
राम दूत अतुलित बल धामा । अंजनि पुत्र पवन सुत नामा ।
- मान रहित भक्त ज्ञान और ( सद ) गुणों का समुद्र होकर तीनों लोकों में प्रकाशित हुआ जय पाता है । अब यहाँ कपीश शब्द के लिये समझना होगा । एक तो सभी गूढ ज्ञान संकेतात्मक है । दूसरे हनुमान के समान ही वानर कुल ( पुराने समय में बहुत से स्थानों पर पशु पक्षियों के नाम पर जातियों के नामकरण का रिवाज था । जैसे - गृद्ध । रिछ । वानर । सर्प ) में उत्पन्न भक्त । तीसरे रामायण प्रतीकात्मक है । और ये भी सच है कि - जहाँ यह
आंतरिक सूक्ष्म जगत के बारे में बताता है । वही जन सामान्य हेतु उसका स्थूल रूप भी प्रकट हुआ । गूढ का मतलब ही यह है कि - किसी भी चीज को रहस्यमय अन्दाज से बताना ।
राम दूत ( राम का सन्देश या जानकारी देता हुआ भक्त ) साधारण जीव की अपेक्षा अतुल्य ( आत्म ) बल से युक्त होता है ।
अंजनि पुत्र ( की व्याख्या करने पर बहुत विस्तार होगा । पर विकारी कामनाओं से उत्पन्न जीव समझा जा सकता है । वायु पुत्र की उपाधि ( क्यों ? ऊपर )
महावीर विक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ।
कंचन बरन बिराज सुबेसा । कानन कुंडल कुंचित केसा ।
- यानी राम भक्त कुमति को हटाकर सुमति को अपनाकर महावीर विक्रम ( शूरवीर ) बजरंगी आदि गुणों से युक्त हो जाता है । स्वर्ण के समान चमकती देह ( यानी रोगादि से ) निर्दोष सुन्दर वेशभूषा युक्त ।
हाथ वज्र औ ध्वजा बिराजै । काँधे मूँज जनेऊ साजै ।
शंकर सुवन केसरीनंदन । तेज प्रताप महा जग बंदन ।
- हाथ वज्र ( कर्मठता और मजबूती के साथ ) औ ध्वजा बिराजै ( कर्मक्षेत्र में विजय पताका फ़हराते हुये ) साधारण तपस्वी वेश में ।
शंकर के अंश और केसरी पुत्र ( यहाँ फ़िर से रूपक में सत्य घटित अंश जोङा गया है । जो कि ऐसी रचनाओं के लिये आवश्यक भी होता है । वैसे इसका अन्य रहस्य भी है । जो अति विस्तार की वजह से सम्भव नहीं है ) ऐसा महा तेजस्वी प्रतापी भक्त । जो संसार द्वारा वंदनीय है ।
विद्यावान गुनी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लषन सीता मन बसिया ।
- विद्यावान ( मूल ज्ञान को जानने वाले ) गुनी ( गुणवान ) अति चातुर ( साधुओं के लिये " सयाना " शब्द का प्रयोग भी किया जाता है - बुद्धि होय जो परम सयानी । अर्थात तभी वो सृष्टि और खुद के रहस्य को जान सकता है ) राम काज करिबे को आतुर ( अर्थात निष्काम कर्म । कोई ऐसा कर्म नहीं । जिसमें खुद की भावना जुङी हो । क्योंकि सृष्टि ही सिया राम मय है ) प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया ( शब्द नाम से जो सृष्टि रहस्य या चेतन रहस्य ध्यान भक्ति में अनुभव होते हैं । राम जनम के हेत अनेका । अति विचित्र एक ते एका । राम कथा जे सुनत अघाहीं । रस विशेष तिन जाना नाहीं ) राम लषन सीता मन बसिया ( चेतन जीव और माया तीनों को समझना । देखें लेख - शंकर के धनुष तोङने का रहस्य )
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा । विकट रूप धरि लंक जरावा ।
भीम रूप धरि असुर सँहारे । रामचंद्र के काज सँवारे ।
- अपने सूक्ष्म रूप । सुरति और माया को देखना । योग विशालता से असुर भूमि को नष्ट करना । योग बल से असुरत्व का विनाश । वास्तव में एक भक्त द्वारा चेतन ज्ञान में यह भक्ति कार्य ही है ।
लाय सजीवन लखन जियाये । श्री रघुबीर हरषि उर लाये ।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ।
लाय सजीवन लखन जियाये ( अहम से त्वम तक की साधना में स्वाभाविक ही कई स्थानों पर कृमशः प्राप्त होते योगबल से साधक में अक्सर अहम घटने के बजाय और भी अधिक होता है । पूर्ण ज्ञान न होने तक ये स्वाभाविक प्रक्रिया ही है । तब वह तमोगुण से प्रभावित शक्तिहीन अचेत हो जाता है । ऐसे में उसका ( अभि ) मान रहित भाव ( हनुमान ) फ़िर से उसके लिये संजीवनी ( पुनः जीवनदायी ) का कार्य करता है ) परमात्म सत्ता ऐसे भक्त को हर्षपूर्वक ह्रदय से लगाती है । यानी भरपूर नेह बरसाती है । तब प्रभु उसकी सराहना करते हैं कि - तुम मुझे ( किसी भी कार्य में ) भरण पोषण ( भरत ) करने वाले भाई के समान ही प्रिय हो ।
सहस बदन तुम्हरो जस गावै । अस कहि श्रीपति कंठ लगावै ।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ।
- हजारों जीव तुम्हारे यश ( भक्ति से जो मिला ) से भक्ति हेतु प्रेरित होंगे । ऐसा प्रभु का स्नेह आशीर्वाद होता है । सनक आदि ऋषि बृह्मा आदि देव मुनि नारद सरस्वती और शेषनाग..
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते । कबि कोविद कहि सके कहाँ ते ।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राज पद दीन्हा ।
यम कुबेर आदि दिग्पाल भी इस भक्त महिमा का बखान नहीं कर सकते हैं । फिर कवि और विद्वान कैसे कर पायेंगे । तुमने सुग्रीव पर उपकार करते हुये उसे राम से मिलाया । और राजपद दिलाया । ये फ़िर रूपक में सत्य कथानक जोङा गया है । हालांकि इसका भी रहस्य है । पर वो कम से कम इस लेख में बताना सम्भव नहीं )
तुम्हरो मंत्र विभीषन माना । लंकेश्वर भए सब जग जाना ।
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू । लील्यो ताहि मधुर फल जानू ।
- योग या भक्ति मार्ग में ( आंतरिक और बाह्य दोनों रूप से ) एक ही प्रकार में भी दो तरह के अच्छे और बुरे जीव ( आत्माओं ) से मिलना होता है । जैसे राक्षसों में भी क्रूर और सदभावना युक्त । ऐसे असुर प्रवृति भी " राम भक्त " से लाभ उठाकर अपने उद्धार का बीज बो देते हैं ।
जुग सहस्त्र जोजन..इसका अर्थ यही है कि योग क्रियाओं में ऐसी घटनायें राम भक्त के लिये महज खेल के समान हैं ।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं । जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं ।
दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।
- हँस की पांच मुद्रिकाओं में से एक जिसमें मुख के तालु में जीभ लगाकर अभ्यास किया जाता है । जिससे तालु कमजोर होकर वहाँ बहुत सूक्ष्म छेद हो जाता है । तब अभ्यास से इस मुद्रिका के सिद्ध होने पर कई ऋद्धि सिद्धि और विशेष साधक में उङने की क्षमता आ जाती है । संसार के जितने भी बेहद कठिन और असंभव से कार्य हैं । वो राम भक्त के लिये बहुत आसान हो जाते हैं । जो इच्छा करिहो मन माहीं । राम कृपा कुछ दुर्लभ नाहीं ।
राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रच्छक काहू को डरना ।
- एक मजेदार बात कही जाती है । यह आला ( अल्लाह ) का घर है । खाला ( मौसी ) का नहीं । शीश ( अभिमान ) उतार भूमि धरो । तब पैठो घर माहिं । यानी पूर्णतया मान रहित हुये बिना परमात्मा के दरवाजे में भी प्रवेश सम्भव नहीं । सभी सुख ऐसे राम भक्त की सेवा में हाजिर रहते हैं । और ये दूसरों को सुखी और निर्भय भी करता है ।
आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हाँक तें काँपै ।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ।
- इसका ( तप भक्ति योग ) तेज सहन करने की शक्ति वाला तीन लोक के दायरे में नहीं होता । भूत ( पूर्व जन्म के दुर्बल या पापी या दुष्ट संस्कार । ) पिशाच ( तमोगुण से आक्रामक होने वाली अति नीच वृतियां ) ये महावीर भक्त जब सत्य शब्द नाम से जुङता है । तो पास भी नहीं फ़टकते ।
नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरंतर हनुमत बीरा ।
संकट तें हनुमान छुडावैं । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ।
- सभी ( भव ) रोगों का और सभी कलेशों का वीर हनुमान द्वारा किये जाने वाले निरंतर जप ( अखंड अजपा ) से समूल नाश हो जाता है । यहाँ विशेश सोचने वाली बात है कि हनुमान अगर निरंतर ..राम राम ? जपते रहते थे । फ़िर वो अन्य तमाम सेवा कार्य कैसे करते थे ? जाहिर है । वह कोई गूढ ( अजपा ) जप ही है । ऐसा भक्त ( पूर्व संस्कारवश आये ) संकटो से आसानी से मुक्त हो जाता है । बस उसे मन वचन और कर्म से भक्ति युक्त होना होगा ।
सब पर राम तपस्वी राजा । तिन के काज सकल तुम साजा ।
और मनोरथ जो कोई लावै । सोइ अमित जीवन फल पावै ।
- निर्लेप प्रभु के सभी कार्य वास्तव में उनके ऐसे ही भक्तों से संपन्न होते हैं । प्रभु की कृपा दृष्टि मात्र से । ऐसे भक्त को सभी इच्छाओं के साथ अनन्त और अमर जीवन रूपी फ़ल प्राप्त होता है ।
चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्ध जगत उजियारा ।
साधु संत के तुम रखवारे । असुर निकंदन राम दुलारे ।
आपका प्रताप चारों युगों में विद्यमान रहता है । आपका प्रकाश सारे जगत में प्रसिद्ध है । मान रहित होना साधु संतों की रक्षा करता है । ऐसा असुरता का नाश करने वाला भक्त प्रभु को प्रिय है ।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन जानकी माता ।
राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ।
आठ सिद्धियां और नौ निधियां ऐसे भक्त को सहज प्राप्त हैं । ऐसे नियम का अनुभव ( जानकी ) वही स्वांस द्वारा सुरति शब्द योग । जान क्या है ? स्वांस का चलना ही तो है । भक्त के ज्ञान में आता है । राम रसायन ( शब्द नाम से उत्पन्न रस विशेष । जिससे सभी रसों की उत्पत्ति हुयी है । देखें - सबहिं रसायन हम किये नहिं नाम सम कोय । रंचक तन में संचरे सब तन कंचन होय ) ऐसे भक्त को प्राप्त है । जिससे वह सदा भक्ति में सलंग्न रहता है ।
तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ।
अंत काल रघुबर पुर जाई । जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई ।
- अधिकांश लोग सोचते हैं कि हनुमान का भजन या सुमरण करने से राम ( परमात्मा ) की प्राप्ति हो सकती है ? यह एकदम गलत है । दरअसल इसका मतलब है ( तुम्हरे भजन ) यानी हनुमान जो भजन ध्यान करते हैं । उससे ही राम की प्राप्ति होती है । रामचरित मानस में भी आया है - महामंत्र जोई जपत महेशू । काशी मुक्ति हेतु उपदेशू । यानी शंकर जिस महामंत्र का भजन करते हैं । वही काशी ( शरीर ) ..मन मथुरा दिल द्वारिका काया काशी जान । के मुक्त करने हेतु उपदेश है । और राम को पा लेने के बाद जन्म जन्म ( वास्तव में कर्म फ़ल संस्कार और गर्भ योनियों से छुटकारा होना ) के दुःख नष्ट हो जाते हैं । वह कोई नई बात नहीं है । इस शरीर का परम लक्ष्य यानी अपने मूल को प्राप्त ( रघुवर पुर ) कर हरि भक्त ( अनन्त चेतना से जुङना ) हो जाता है ।
और देवता चित न धरई । हनुमत से हि सर्व सुख करई ।
संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ।
- और देवताओं में उलझने की आवश्यकता ही नहीं है । हनुमत ( इसी भक्ति से ) से ही सभी सुख प्राप्त हो जाते हैं । देखें - भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी । बिनु सतसंग न पावहि प्राणी । सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिमि हरि शरन न एक हू बाधा । कर्म संस्कार रूपी संकट कटकर सभी दुःख दर्द दूर हो जाते हैं । यदि बलबीर हनुमान वाला भजन ध्यान आप करते हैं ।
जै जै जै हनुमान गोसाई । कृपा करहु गुरुदेव की नाई ।
जो सत बार पाठ कर कोई । छूटहि बंदि महा सुख होई ।
- यहाँ तुलसीदास एक भक्त भाव में इसी मानरहित भक्त की योग स्थिति की विनय करते हैं कि - जिस प्रकार गुरु की असीम कृपा होती है । वैसे ही मेरा यह मानरहित भाव हमेशा जयी हो । अर्थात भाव गिरे नहीं । जो इस ( शब्द नाम ) का सौ बार पाठ करता है । वह प्रत्येक भव बन्धन से छूटकर महासुख को प्राप्त होता है । देखें - कहे हू कह जात हू कहूँ बजाकर ढोल स्वांसा खाली जात है..तीन लोक का मोल ? और - जासु नाम सुमरत एक बारा । उतरहिं नर भव सिंधु अपारा । राम एक तापस तिय ( अहिल्या ) तारी । नाम कोटि खल सुमति सुधारी ।
जो यह पढ़ै हनुमान चलीसा । होय सिद्धि साखी गौरीसा ।
तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ ह्रदय महँ डेरा ।
- अतः जो इन चालीस पदों में छिपे सत्य को समझकर अपना लेता है । तो शंकर साक्षी है । उसका ज्ञान सिद्ध होने में कोई संशय नहीं है । इसलिये तुलसीदास इस सत्य को जानकार सदा के लिये ही हरि ( चेतन राम ) का दास हो गया । हे प्रभु ! सिर्फ़ आप ही मेरे ह्रदय में रहें । दूसरा कोई असत्य भाव या अस्तित्व न आये ।
पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप ।
राम लषन सीता सहित ह्रदय बसहु सुर भूप ।
पवन तनय ( तो सभी हैं । पर जो जान गया ऐसा भक्त जीव । हर घट तेरा साईयां सेज न सूनी कोय । बलिहारी उन घटन की जिन घट प्रकट होय । ) संकट दूर होना । मंगल मूर्ति यानी स्वयं का अमंगल रहित अस्तित्व । राम लषन सीता सहित ( इस आत्मा और चेतन माया जीव सृष्टि ज्ञान सहित ) सभी देवताओं के स्वामी मेरे ह्रदय में वास करें । अर्थात मेरा भाव इससे कभी हटे नहीं ।
सार विशेष - आपने देखा होगा । ज्ञान लेखन आदि विधाओं की अलग अलग गूढ सी शैलियां हैं । जो व्यक्ति के चिंतन मनन विकास आदि के लिये हैं । और जो सृष्टि को चलाये रखने के लिये आवश्यक है । अगर ऐसा नहीं होता । तो भगवान को मनुष्य की रोटी दाल वस्त्र आदि की पूर्ति के लिये इतने घुमावदार प्रपंच की क्या आवश्यकता थी । वो सीधे ऐसे वृक्ष ( या अन्य माध्यम ) बना सकता था । जिन पर दाल रोटी वस्त्र आदि सभी लगते । और कोई झंझट ही न होता । और सोचिये बिना झंझटों के जिन्दगी का क्या अर्थ होता - मनुष्य या मशीन ? इसी नजरिये से आप आध्यात्म ज्ञान को जानेंगे । तभी वास्तविक रहस्यों से अवगत होंगे । वही बात इस चालीसा में भी है ।
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