बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा ।
गगन सिषर महि बालक बोले ताका नांव धरहुगे कैसा ।
बसती न सुन्यं..।
न तो हम कह सकते हैं - परमात्मा है । और न कह सकते हैं - नहीं है । सोचना, विचारना । परमात्मा नहीं और है, दोनों का जोड़ है । इसलिये दोनों के पार है । न तो आस्तिक जानता है उसे । न नास्तिक जानता है उसे । न तो आस्तिक धार्मिक है । न नास्तिक । स्वभावत: नास्तिक तो धार्मिक है ही नहीं । तुम जिसे आस्तिक कहते हो । वह भी धार्मिक नहीं है । तुम्हारे आस्तिक और नास्तिक 1 ही सिक्के के 2 पहलू हैं । आस्तिक कहता है - है । नास्तिक कहता है - नहीं है । दोनों ने आधा आधा चुना है । परमात्मा है और नहीं है । दोनों साथ साथ । एक साथ, युगपत । उसके होने का ढंग । नहीं होने का ढंग है । उसकी पूर्णता शून्य की पूर्णता है । उसकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है । परमात्मा में सारे विरोध, सारे विरोधाभास समाहित होते हैं । और यह सबसे बुनियादी विरोध है - है या नहीं ? अगर कहो - है । तो आधा ही रह जायेगा । फिर जब चीजें नहीं हो जाती हैं । तो कहां जाती हैं ? नहीं होकर भी तो कहीं होती होंगी । नहीं होकर भी तो कहीं बनी रहती होंगी । एक वृक्ष है । बडा वृक्ष है । उस पर 1 बीज लगा है । वृक्ष मर जायेगा । अब तुम बीज को बो दो । फिर वृक्ष हो जायेगा । बीज क्या था ? वृक्ष का नहीं होना था । वृक्ष का नहीं रूप था । अगर तुम बीज को तोड़ते । और खोजते । तो वृक्ष तुम्हें मिलने वाला नहीं था । तुम कितनी ही खोज करो । बीज में वृक्ष नहीं मिलेगा । वृक्ष कहां गया ? लेकिन किसी न किसी अर्थ में बीज में वृक्ष छिपा है । अब अनुपस्थित होकर छिपा है । तब उपस्थित होकर प्रगट हुआ था । अब अनुपस्थित होकर छिपा है । बीज को फिर बो दो जमीन में । फिर सम्यक सुविधा जुटा दो । फिर वृक्ष हो जायेगा । और ध्यान रखना । जब वृक्ष होगा । तो बीज खो जायेगा । दोनों साथ नहीं होंगे । वृक्ष खोता है । बीज हो जाता है । बीज खोता है । वृक्ष हो जाता है । ये 1 ही सिक्के के 2 पहलू हैं । तुम दोनों पहलू 1 साथ नहीं देख सकते । या कि देख सकते हो ?
तुम कोशिश करना । सिक्का तो छोटी सी चीज है । हाथ में रखा जा सकता है । दोनों पहलू पूरे पूरे एक साथ देखने की कोशिश करना । तुम मुश्किल में पड़ जाओगे । जब 1 पहलू देखोगे । दूसरा नहीं दिखाई पड़ेगा । जब दूसरा देखोगे । पहला खो जायेगा । लेकिन पहले के खो जाने से क्या तुम कहोगे कि नहीं है ?
सृष्टि भी परमात्मा का रूप है । प्रलय भी । उसका 1 रूप है - अभिव्यक्ति । और 1 रूप है - अनभिव्यक्ति । जब तुम तार छेड़ देते हो वीणा के । संगीत जगता है । अभी अभी कहां था । क्षण भर पहले कहां था ? शून्य में था । था तो जरूर । न होता । तो पैदा नहीं हो सकता था । छिपा पड़ा था । किसी गहन गुफा में । तुमने तार क्या छेडे । पुकार दे दी । तुमने तार छेड़कर प्रेरणा दे दी । गीत तो सोया पड़ा था । जाग उठा । संगीतज्ञ स्वर पैदा नहीं करता । सिर्फ जगाता है । सोये को जगाता है । कौन स्वर पैदा करेगा ? स्वर पैदा करने का कोई उपाय नहीं है ।
इस जगत में न तो कोई चीज बनाई जा सकती है । और न मिटाई जा सकती है । अब तो विज्ञान भी इस बात से सहमत है । तुम रेत के 1 छोटे से कण को भी मिटा नहीं सकते । और न बना सकते हो । न तो कुछ बनाया जा सकता है । न कुछ घटाया जा सकता है । जगत उतना ही है । जितना है । लेकिन फिर भी चीजें बनती और मिटती हैं । तो इसका अर्थ हुआ । जैसे पर्दे के पीछे चले जाते हैं रामलीला के खेल करने वाले लोग । फिर पर्दे के बाहर आ जाते हैं । पर्दा उठा । और पर्दा गिरा । वृक्ष विदा हो गया । पर्दा गिर गया । वृक्ष पर्दे की ओट चला गया । बीज हो गया । पर्दा उठा । बीज फिर वृक्ष हुआ ।
जब तुम 1 व्यक्ति को मरते देखते हो । तो तुम क्या देख रहे हो ? परमात्मा का 'नहीं' रूप, अभी था । अब नहीं है । तो जो था । वही नहीं हो जाता है । और जो 'नहीं' है । वह फिर 'है' हो जायेगा । आस्तिक भी आधे को चुनता है । नास्तिक भी आधे को चुनता है । दोनों में कुछ फर्क नहीं । तराजू के 1-1 पलड़े को चुन लिया है दोनों ने । दोनों ने तराजू तोड़ डाला है । तराजू के दोनों पलड़े चाहिए । तराजू दोनों पलड़ों का जोड़ है । और जोड़ से कुछ ज्यादा भी है । परमात्मा है और नहीं का जोड़ है । और दोनों से कुछ ज्यादा भी है ।
आस्तिक भी भयभीत है । नास्तिक भी भयभीत है । तुम आस्तिक और नास्तिक के भय को अगर समझोगे । तो तुम्हें 1 बड़ी हैरानी की बात पता चलेगी कि दोनों में जरा भी भेद नहीं है । दोनों की बुनियादी आधारशिला भय है । आस्तिक भयभीत है कि पता नहीं मरने के बाद क्या हो ? पता नहीं जन्म के पहले क्या था । पता नहीं, अकेला रह जाऊंगा । पत्नी छूट जायेगी । मित्र छूट जायेंगे । पिता छूट जायेंगे । मां छूट जायेगी । परिवार छूट जायेगा । सब बसाया था । सब छूट जायेगा । अकेला रह जाऊंगा - निर्जन की यात्रा पर । कौन मेरा संगी, कौन मेरा साथी । परमात्मा को मान लो । उसका भरोसा साथ देगा । वह तो साथ होगा ।
आस्तिक भी डर के कारण परमात्मा को मान रहा है । मंदिर मस्जिदों में जो लोग झुके हैं घुटनों के बल । और प्रार्थना कर रहे हैं । उनकी प्रार्थनाएं भय से निकल रही हैं । और जब भी प्रार्थना भय से निकलती है । गंदी हो जाती है । तुम्हारी प्रार्थना के कारण मंदिर भी गंदे हो गये हैं । तुम्हारी प्रार्थनाओं की गंदगी के कारण मंदिर भी राजनीति के अड्डे हो गये हैं । वहां भी लड़ाई झगड़ा है । हिंसा वैमनस्य है । प्रतिस्पर्धा है । मंदिर और मस्जिद सिवाय लड़ाने के और कोई काम करते ही नहीं हैं । आस्तिक भयभीत है । नास्तिक भी, मैं कहता हूं भयभीत है । तो तुम थोड़ा चौंकोगे । क्योंकि आमतौर से लोग सोचते हैं कि नास्तिक भयभीत होता । तो परमात्मा को मान लेता । लोग कोशिश करके हार चुके हैं उसे डरा डरा कर । उसको डरवाते हैं नर्क से । वहां के बड़े दृश्य खींचते हैं -बड़े विहंगम दृश्य । बिलकुल तस्वीर खड़ी कर देते हैं - नरक की । आग की लपटें । जलते हुए कडाहे । वीभत्स शैतान । सतायेंगे बुरी तरह । मारेंगे बुरी तरह । आग में जलायेंगे बुरी तरह । इतना डरवाते हैं । फिर भी नास्तिक मानता नहीं है - ईश्वर को । तो लोग सोचते हैं । शायद नास्तिक बहुत निर्भय है । बात गलत है ।
जो मनस की खोज में गहरे जायेंगे । वे पायेंगे कि नास्तिक भी ईश्वर को इसलिए इनकार कर रहा है कि वह भयभीत है । उसका इनकार भय से ही निकल रहा है । अगर ईश्वर है । तो वह डरता है । तो फिर नर्क भी होगा । तो फिर स्वर्ग भी होगा । तो फिर पाप भी होगा । पुण्य भी होगा । अगर ईश्वर है । तो फिर किसी दिन जवाब भी देना होगा । अगर ईश्वर है । तो फिर कोई आंख हमें देख रही है । कोई हमें परख रहा है । कहीं हमारे जीवन का लेखा जोखा रखा जा रहा है । और हम किसी के सामने उत्तरदायी हैं । और हम ऐसे ही बच न निकलेंगे । अगर ईश्वर है । तो फिर हमें अपने को बदलना पड़ेगा । फिर हमें इस ढंग से जीना होगा कि हम उसके सामने सिर उठाकर खड़े हो सकें ।
और अगर ईश्वर है । तो 1 और घबराहट पकड़ती है, नास्तिक को । अगर ईश्वर है । तो मुझे उसे खोजना भी होगा । जीवन दाव पर लगाना होगा । यह सस्ता सौदा नहीं है । अच्छा यही हो कि ईश्वर न हो । तो छुटकारा हुआ । ईश्वर के साथ ही छुटकारा हो गया - स्वर्ग से भी । नर्क से भी । न नर्क का डर रहा । न स्वर्ग खोने का डर रहा । न यह भय रहा कि जो मंदिर में पूजा कर रहे हैं । ये स्वर्ग चले जायेंगे । है ही नहीं । कौन स्वर्ग गया है । कौन जायेगा । कहां जायेगा । आदमी बचता ही नहीं मरने के बाद । इसलिए कैसा पुण्य । कैसा पाप ।
चार्वाकों ने जो कि नास्तिक परंपरा के मूल स्रोत हैं । उन्होंने कहा - फिक्र मत करो, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत । पियो, अगर ऋण लेकर भी घी पीना पड़े । तो पियो । बेफिक्री से पियो । चुकाने की चिंता ही मत करो । कौन लेना । कौन देना । मर गये । सब पड़ा रह जायेगा । तुम्हारा भी । और उसका भी । और पीछे कुछ बचता ही नहीं है । जब कोई बचता ही नहीं है । तो भय क्या ? फिर पाप करना है । पाप करो । बुरा करना है । बुरा करो । जैसे जीना हो । मौज से जियो । 2 दिन की जिंदगी है । ठाठ से जियो । फिक्र छोड़ो । दूसरे को चोट भी पहुंचती हो । दूसरे की हिंसा भी होती हो । तो चिंता न लो । कैसी हिंसा । कैसी चोट ? सब पुरोहितों का जाल है । तुम्हें डराने के लिये ।
मगर अगर हम चार्वाक चित्त के भीतर भी प्रवेश करें । तो वही डर है । वह परमात्मा को इनकार कर रहा है - डर के कारण । ओशो
गगन सिषर महि बालक बोले ताका नांव धरहुगे कैसा ।
बसती न सुन्यं..।
न तो हम कह सकते हैं - परमात्मा है । और न कह सकते हैं - नहीं है । सोचना, विचारना । परमात्मा नहीं और है, दोनों का जोड़ है । इसलिये दोनों के पार है । न तो आस्तिक जानता है उसे । न नास्तिक जानता है उसे । न तो आस्तिक धार्मिक है । न नास्तिक । स्वभावत: नास्तिक तो धार्मिक है ही नहीं । तुम जिसे आस्तिक कहते हो । वह भी धार्मिक नहीं है । तुम्हारे आस्तिक और नास्तिक 1 ही सिक्के के 2 पहलू हैं । आस्तिक कहता है - है । नास्तिक कहता है - नहीं है । दोनों ने आधा आधा चुना है । परमात्मा है और नहीं है । दोनों साथ साथ । एक साथ, युगपत । उसके होने का ढंग । नहीं होने का ढंग है । उसकी पूर्णता शून्य की पूर्णता है । उसकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है । परमात्मा में सारे विरोध, सारे विरोधाभास समाहित होते हैं । और यह सबसे बुनियादी विरोध है - है या नहीं ? अगर कहो - है । तो आधा ही रह जायेगा । फिर जब चीजें नहीं हो जाती हैं । तो कहां जाती हैं ? नहीं होकर भी तो कहीं होती होंगी । नहीं होकर भी तो कहीं बनी रहती होंगी । एक वृक्ष है । बडा वृक्ष है । उस पर 1 बीज लगा है । वृक्ष मर जायेगा । अब तुम बीज को बो दो । फिर वृक्ष हो जायेगा । बीज क्या था ? वृक्ष का नहीं होना था । वृक्ष का नहीं रूप था । अगर तुम बीज को तोड़ते । और खोजते । तो वृक्ष तुम्हें मिलने वाला नहीं था । तुम कितनी ही खोज करो । बीज में वृक्ष नहीं मिलेगा । वृक्ष कहां गया ? लेकिन किसी न किसी अर्थ में बीज में वृक्ष छिपा है । अब अनुपस्थित होकर छिपा है । तब उपस्थित होकर प्रगट हुआ था । अब अनुपस्थित होकर छिपा है । बीज को फिर बो दो जमीन में । फिर सम्यक सुविधा जुटा दो । फिर वृक्ष हो जायेगा । और ध्यान रखना । जब वृक्ष होगा । तो बीज खो जायेगा । दोनों साथ नहीं होंगे । वृक्ष खोता है । बीज हो जाता है । बीज खोता है । वृक्ष हो जाता है । ये 1 ही सिक्के के 2 पहलू हैं । तुम दोनों पहलू 1 साथ नहीं देख सकते । या कि देख सकते हो ?
तुम कोशिश करना । सिक्का तो छोटी सी चीज है । हाथ में रखा जा सकता है । दोनों पहलू पूरे पूरे एक साथ देखने की कोशिश करना । तुम मुश्किल में पड़ जाओगे । जब 1 पहलू देखोगे । दूसरा नहीं दिखाई पड़ेगा । जब दूसरा देखोगे । पहला खो जायेगा । लेकिन पहले के खो जाने से क्या तुम कहोगे कि नहीं है ?
सृष्टि भी परमात्मा का रूप है । प्रलय भी । उसका 1 रूप है - अभिव्यक्ति । और 1 रूप है - अनभिव्यक्ति । जब तुम तार छेड़ देते हो वीणा के । संगीत जगता है । अभी अभी कहां था । क्षण भर पहले कहां था ? शून्य में था । था तो जरूर । न होता । तो पैदा नहीं हो सकता था । छिपा पड़ा था । किसी गहन गुफा में । तुमने तार क्या छेडे । पुकार दे दी । तुमने तार छेड़कर प्रेरणा दे दी । गीत तो सोया पड़ा था । जाग उठा । संगीतज्ञ स्वर पैदा नहीं करता । सिर्फ जगाता है । सोये को जगाता है । कौन स्वर पैदा करेगा ? स्वर पैदा करने का कोई उपाय नहीं है ।
इस जगत में न तो कोई चीज बनाई जा सकती है । और न मिटाई जा सकती है । अब तो विज्ञान भी इस बात से सहमत है । तुम रेत के 1 छोटे से कण को भी मिटा नहीं सकते । और न बना सकते हो । न तो कुछ बनाया जा सकता है । न कुछ घटाया जा सकता है । जगत उतना ही है । जितना है । लेकिन फिर भी चीजें बनती और मिटती हैं । तो इसका अर्थ हुआ । जैसे पर्दे के पीछे चले जाते हैं रामलीला के खेल करने वाले लोग । फिर पर्दे के बाहर आ जाते हैं । पर्दा उठा । और पर्दा गिरा । वृक्ष विदा हो गया । पर्दा गिर गया । वृक्ष पर्दे की ओट चला गया । बीज हो गया । पर्दा उठा । बीज फिर वृक्ष हुआ ।
जब तुम 1 व्यक्ति को मरते देखते हो । तो तुम क्या देख रहे हो ? परमात्मा का 'नहीं' रूप, अभी था । अब नहीं है । तो जो था । वही नहीं हो जाता है । और जो 'नहीं' है । वह फिर 'है' हो जायेगा । आस्तिक भी आधे को चुनता है । नास्तिक भी आधे को चुनता है । दोनों में कुछ फर्क नहीं । तराजू के 1-1 पलड़े को चुन लिया है दोनों ने । दोनों ने तराजू तोड़ डाला है । तराजू के दोनों पलड़े चाहिए । तराजू दोनों पलड़ों का जोड़ है । और जोड़ से कुछ ज्यादा भी है । परमात्मा है और नहीं का जोड़ है । और दोनों से कुछ ज्यादा भी है ।
आस्तिक भी भयभीत है । नास्तिक भी भयभीत है । तुम आस्तिक और नास्तिक के भय को अगर समझोगे । तो तुम्हें 1 बड़ी हैरानी की बात पता चलेगी कि दोनों में जरा भी भेद नहीं है । दोनों की बुनियादी आधारशिला भय है । आस्तिक भयभीत है कि पता नहीं मरने के बाद क्या हो ? पता नहीं जन्म के पहले क्या था । पता नहीं, अकेला रह जाऊंगा । पत्नी छूट जायेगी । मित्र छूट जायेंगे । पिता छूट जायेंगे । मां छूट जायेगी । परिवार छूट जायेगा । सब बसाया था । सब छूट जायेगा । अकेला रह जाऊंगा - निर्जन की यात्रा पर । कौन मेरा संगी, कौन मेरा साथी । परमात्मा को मान लो । उसका भरोसा साथ देगा । वह तो साथ होगा ।
आस्तिक भी डर के कारण परमात्मा को मान रहा है । मंदिर मस्जिदों में जो लोग झुके हैं घुटनों के बल । और प्रार्थना कर रहे हैं । उनकी प्रार्थनाएं भय से निकल रही हैं । और जब भी प्रार्थना भय से निकलती है । गंदी हो जाती है । तुम्हारी प्रार्थना के कारण मंदिर भी गंदे हो गये हैं । तुम्हारी प्रार्थनाओं की गंदगी के कारण मंदिर भी राजनीति के अड्डे हो गये हैं । वहां भी लड़ाई झगड़ा है । हिंसा वैमनस्य है । प्रतिस्पर्धा है । मंदिर और मस्जिद सिवाय लड़ाने के और कोई काम करते ही नहीं हैं । आस्तिक भयभीत है । नास्तिक भी, मैं कहता हूं भयभीत है । तो तुम थोड़ा चौंकोगे । क्योंकि आमतौर से लोग सोचते हैं कि नास्तिक भयभीत होता । तो परमात्मा को मान लेता । लोग कोशिश करके हार चुके हैं उसे डरा डरा कर । उसको डरवाते हैं नर्क से । वहां के बड़े दृश्य खींचते हैं -बड़े विहंगम दृश्य । बिलकुल तस्वीर खड़ी कर देते हैं - नरक की । आग की लपटें । जलते हुए कडाहे । वीभत्स शैतान । सतायेंगे बुरी तरह । मारेंगे बुरी तरह । आग में जलायेंगे बुरी तरह । इतना डरवाते हैं । फिर भी नास्तिक मानता नहीं है - ईश्वर को । तो लोग सोचते हैं । शायद नास्तिक बहुत निर्भय है । बात गलत है ।
जो मनस की खोज में गहरे जायेंगे । वे पायेंगे कि नास्तिक भी ईश्वर को इसलिए इनकार कर रहा है कि वह भयभीत है । उसका इनकार भय से ही निकल रहा है । अगर ईश्वर है । तो वह डरता है । तो फिर नर्क भी होगा । तो फिर स्वर्ग भी होगा । तो फिर पाप भी होगा । पुण्य भी होगा । अगर ईश्वर है । तो फिर किसी दिन जवाब भी देना होगा । अगर ईश्वर है । तो फिर कोई आंख हमें देख रही है । कोई हमें परख रहा है । कहीं हमारे जीवन का लेखा जोखा रखा जा रहा है । और हम किसी के सामने उत्तरदायी हैं । और हम ऐसे ही बच न निकलेंगे । अगर ईश्वर है । तो फिर हमें अपने को बदलना पड़ेगा । फिर हमें इस ढंग से जीना होगा कि हम उसके सामने सिर उठाकर खड़े हो सकें ।
और अगर ईश्वर है । तो 1 और घबराहट पकड़ती है, नास्तिक को । अगर ईश्वर है । तो मुझे उसे खोजना भी होगा । जीवन दाव पर लगाना होगा । यह सस्ता सौदा नहीं है । अच्छा यही हो कि ईश्वर न हो । तो छुटकारा हुआ । ईश्वर के साथ ही छुटकारा हो गया - स्वर्ग से भी । नर्क से भी । न नर्क का डर रहा । न स्वर्ग खोने का डर रहा । न यह भय रहा कि जो मंदिर में पूजा कर रहे हैं । ये स्वर्ग चले जायेंगे । है ही नहीं । कौन स्वर्ग गया है । कौन जायेगा । कहां जायेगा । आदमी बचता ही नहीं मरने के बाद । इसलिए कैसा पुण्य । कैसा पाप ।
चार्वाकों ने जो कि नास्तिक परंपरा के मूल स्रोत हैं । उन्होंने कहा - फिक्र मत करो, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत । पियो, अगर ऋण लेकर भी घी पीना पड़े । तो पियो । बेफिक्री से पियो । चुकाने की चिंता ही मत करो । कौन लेना । कौन देना । मर गये । सब पड़ा रह जायेगा । तुम्हारा भी । और उसका भी । और पीछे कुछ बचता ही नहीं है । जब कोई बचता ही नहीं है । तो भय क्या ? फिर पाप करना है । पाप करो । बुरा करना है । बुरा करो । जैसे जीना हो । मौज से जियो । 2 दिन की जिंदगी है । ठाठ से जियो । फिक्र छोड़ो । दूसरे को चोट भी पहुंचती हो । दूसरे की हिंसा भी होती हो । तो चिंता न लो । कैसी हिंसा । कैसी चोट ? सब पुरोहितों का जाल है । तुम्हें डराने के लिये ।
मगर अगर हम चार्वाक चित्त के भीतर भी प्रवेश करें । तो वही डर है । वह परमात्मा को इनकार कर रहा है - डर के कारण । ओशो
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