09 अगस्त 2013

बन्दर मामा है या दादा परदादा ?


मानव की उत्पत्ति से सम्बंधित सिद्धान्त - चार्ल्स डार्विन की " ओरिजिन ऑव स्पीशीज़ " नामक पुस्तक के पूर्व साधारण धारणा यह थी कि सभी जीवधारियों को किसी दैवी शक्ति ( ईश्वर ) ने उत्पन्न किया है । तथा उनकी संख्या, रूप और आकृति सदा से ही निश्चित रही है । परंतु उक्त पुस्तक के प्रकाशन ( सन 1859) के पश्चात विकासवाद ने इस धारणा का स्थान ग्रहण कर लिया । और फिर अन्य जंतुओं की भाँति मनुष्य के लिये भी यह प्रश्न साधारणतया पूछा जाने लगा कि - उसका विकास कब और किस जंतु अथवा जंतु समूह से हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर भी डार्विन ने अपनी दूसरी पुस्तक " डिसेंट ऑव मैन " ( सन 1871 ) द्वारा देने की चेष्टा करते हुए बताया कि केवल वानर ( विशेषकर मानवाकार ) ही मनुष्य के पूर्वजों के समीप आ सकते हैं । दुर्भाग्यवश धार्मिक प्रवृत्तियों 

वाले लोगों ने डार्विन के उक्त कथन का त्रुटि पूर्ण अर्थ ( कि वानर स्वयं ही मानव का पूर्वज है ) लगाकर, न केवल उसका विरोध किया । वरन जनसाधारण में बंदरों को ही मनुष्य का पूर्वज होने की धारणा को प्रचलित कर दिया । जो आज भी अपना स्थान बनाए हुए है । यद्यपि डार्विन मनुष्य विकास के प्रश्न का समाधान न कर सके । तथापि इन्होंने दो गूढ़ तथ्यों की ओर प्राणी विज्ञानियों का ध्यान आकर्षित किया ।
1 मानवाकार कपि ही मनुष्य के पूर्वजों के संबंधी हो सकते हैं । और
2 मानवाकार कपियों तथा मनुष्य के विकास के बीच में एक बड़ी खाईं है । जिसे लुप्त जीवाश्मों ( fossils ) की खोज करके ही कम किया जा सकता है ।
- चार्ल्स डार्विन के समय ( या पूर्व ) से ही चली आ रही ये टेंशन भी मुझे आधुनिक भारतीय अंग्रेज साहिल मियां ने ही भेजी है । लेकिन जहाँ तक मेरा ख्याल है कि वह चार्ल्स डार्विन हों या प्रिंस चार्ल्स । ये अंग्रेज , फ़ारसी या पारसी कभी भी इस गुत्थी को नहीं सुलझा सकते । चाहे वो कितनी ही परखनलियों में बन्दर का DNA टेस्ट करें या बिल्ली का या उल्लू का । क्योंकि बात वही कल वाली है । किसी भी चीज की सही और समग्र जानकारी हेतु एक समृद्ध भाषा की परम आवश्यकता है । और आप आश्चर्य करेंगे कि सभी भाषाओं की जननी संस्कृत और उसकी योग्य पुत्री हिन्दी के अलावा विश्व की सभी भाषायें समृद्धता के बिन्दु पर कहीं न कहीं अंधी बहरी लूली लंगङी कानी कुरूप हैं । इसीलिये मनुष्य स्तर पर ( अन्य भाषा भाषियों द्वारा ) पहले तो इनके पास किसी भी पदार्थ की गहराई में उतरने का कोई तरीका ही नहीं है । और यदि किसी अज्ञात प्रेरणा शक्ति से वह अज्ञात अलौकिक चीज उन्हें अनुभव में भी आये । तो ( आ गयी न वही बात ) वह सिर्फ़ मोटे अन्दाज में ही उसको दूसरे से अभिव्यक्त कर पायेंगे । जैसे - वह कुछ अलौकिक सा था । कुछ दिव्य सा था । सुपर नेचुरल था । एक प्रसिद्ध और मजे की बात उदाहरण के लिये बताऊँ कि भारतीय धर्म ग्रन्थों में पुष्पक आदि कई दिव्य विमानों और सूक्ष्म शरीरियों का बेहद महत्वहीन अन्दाज में जिक्र आता है । पर इसी को भाषा के अभाव में वे एलियंस और उङनतश्तरी जैसे शब्द देते हैं । अब इसको समझने की कोशिश करें । मेरी समझ से एलियंस का अर्थ उनके अनुसार परग्रही जीव हैं । और उङनतश्तरी का मतलव उनका हमसे बहुत आगे तक विकसित विज्ञान द्वारा बनाया गया विमान । अब है ये भाषा और जानकारी का अभाव । कोई भी भारतीय धर्मविज्ञानी परग्रही जीव जैसे घटिया शब्द का इस्तेमाल कभी नहीं करेगा । और न उसे खोजने में समय बरबाद करेगा । बशर्ते वह भारतीय धर्म ज्ञान को सही तरीके से समझकर आगे बढ रहा हो । उङनतश्तरी या अन आइडेंटीफ़ाइड फ़्लाइंग आवजेक्ट जैसा मूर्ख शब्द बीसियों साल तक ( जैसा कि विदेशी विज्ञानी करते हैं ) इस्तेमाल नहीं करेगा । पहले मेरी बात को ठीक से समझें । हम उनके परग्रही जीव को दृणता से अदृष्य सूक्ष्म शरीरी जीव कहते हैं । जो अन्य लोकों से हैं । हम उनके अन आइडेंटीफ़ाइड फ़्लाइंग आवजेक्ट को दिव्य या अलौकिक विमान ही कहते हैं । अब देखिये भाषा का अन्तर । अदृष्य सूक्ष्म शरीरी और दिव्य शब्द हमारी तमाम आशंकाओं को खत्म कर देते हैं । और आगे भी ( यदि ये हमें अभी पहली बार ही पता चला है ) यदि हम इनको जानना चाहते हैं । तो बहुत बहुत आगे तक का समृद्ध विज्ञान मौजूद है । बहुत बारीकी से मेरी बात सोचिये । यदि कोई विदेशी अलौकिक रहस्यमय चीज को कभी अनुभव भी करता है । और उसे भाव अनुसार सटीक शब्द नहीं दे पाता । सिर्फ़ कामचलाऊ या भावना से ही व्यक्त करता है । तो वह सिद्ध नहीं हो पाती । और कोई भी खोज वहीं रुक जाती है । क्योंकि उसके शब्दकोष में इसके लिये शब्द ही नहीं है ।
दरअसल किसी भी चीज को यथार्थ रूप में समझने के लिये हमें उसकी तह या मूल में जाना होता है । जिसको साधारण भाव में जङें भी कहा जाता है । अब मूल या जङे शब्द को कतई हल्के भाव में नहीं लिया जा सकता । समझें - मूल यानी उत्पत्ति ( स्थान । बीज या कारण )
ये बात ( जो मैं कहना चाह रहा हूँ ) समझना कुछ जटिल है । अतः आपकी सरलता के लिये मैं एक उदाहरण देता हूँ । जैसे अश्व शब्द को हिन्दी में घोङा अंग्रेजी में HORSE और फ़िर हिन्दी में ही पर्याय के रूप में हय । बाजि आदि कहते हैं । अब कल्पना करिये । इस आकार बनावट रूप गुण स्वभाव आदि के पशु को सर्वप्रथम ? " अश्व " किसने क्यों और किस आधार पर कहा ? मैं बताता हूँ । दरअसल ये मनचाहे तरीके से नहीं कहा जाने लगा । बल्कि इसका रहस्य अक्षर धातु और शब्द व्याकरण में छिपा है । ( पूर्ण ) अश्व शब्द से ही इसका शरीर ( यानी सभी कुछ ) आवरण बना है । और अश्व शब्द में जो उसकी अक्षर धातुयें अ ( आधा ) श और व हैं । इनमें अश्व ( पशु ) के शरीरी प्रकृति पदार्थ निहित हुये । सोचिये । कभी तो पहला अश्व बना होगा । तब इसका नामकरण विचार कर नहीं । स्वतः स्फ़ुरण से प्रस्फ़ुटित हुआ । अब एक और मजे की बात समझिये । घोङे के लिये उसके मूल और यथार्थ को जानने हेतु सिर्फ़ " अश्व " शब्द से ही पता चलेगा । इसके अन्य भाषायी शब्द या घोङा HORSE हय । बाजि आदि इसके स्थितिजन्य रूपान्तर है । जिसमें धातुयें क्षीण हो जाती हैं । और ये नामकरण देश काल स्थान विशेष पर आधारित होते हैं । न कि उसके मूल पर । और समझिये । जैसे पण्डित किसी बालक का नामकरण जन्म कुण्डली अनुसार उसके कर्म गुण स्वभाव प्रकृति आदि के नियम अनुसार रखता है । जबकि घरवाले कुछ और रख देते हैं । मौहल्ले वाले कुछ और रख देते हैं । स्कूल वाले भी ( उच्चारण आदि में ) कुछ न कुछ परिवर्तन कर देते हैं । आफ़िस वाले । ससुराल वाले । लाङ प्यार करने वाले सम्बन्धी आदि एक ही जीव के कितने नामकरण अपने अपने अनुसार कर देते हैं । अब ऐसा नहीं है कि घोङा HORSE हय । बाजि आदि शब्दों की धातुयें नहीं हैं । क्योंकि जो भी अक्षर होगा । उसकी अक्षर धातु अवश्य होगी । लेकिन आपको आश्चर्य होगा यदि हम अश्व शब्द की धातुओं का घोङा HORSE हय । बाजि आदि शब्दों की धातुओं से मिलान करें । तो बहुत बङा अन्तर होगा । और आप और भी हैरान होंगे । अश्व तथा घोङा HORSE हय । बाजि आदि में ( गुणों में योग्यता में ) बहुत बङा अन्तर है । ध्यान दें । हिन्दू धर्म शास्त्रों में दिव्य रथ आदि में लगे घोङों के लिये अश्व शब्द का ही प्रयोग हुआ है । और इसीलिये उचित तरीके से चलने वाले हिन्दू धर्म विज्ञानी कभी भटकते नहीं । क्योंकि उन्हें मूल पता है । या मूल कहाँ है । वहाँ कैसे पहुँचेंगे । ये भी पता है । किसी भी DNA या जीवाश्म की जाँच करने से कभी पता नहीं चलेगा कि वास्तव में अश्व की सर्वप्रथम उत्पत्ति कब कहाँ और कैसे हुयी । इसके लिये चेतन समाधि ज्ञान में वे तरीके हैं । जो आदि सृष्टि से अब तक का कोई भी कुछ भी कार्य घटना बीज आदि सब ज्यों का त्यों उसी तरह बता देते हैं । बता देते हैं कहना गलत है । ये सब प्रत्यक्ष होता है ।
अब इस लेख की मूल बात पर आते हैं । लेकिन ध्यान रहे । मुझे वैज्ञानिक सोच और शोध के बारे में कोई अधिक जानकारी नहीं हैं ।  और न ही मैंने कभी गम्भीरता से ऐसी चीजों का अध्ययन किया । अतः इसे एक साधु के नजरिये से ही देखें ।
वैजानिक सिर्फ़ तीन कारण बिन्दु लेकर चलते हैं । कब क्यों और कैसे । और जब ये तीनों बिन्दु हल हो जाते हैं । तब उसको सिद्ध हुआ कहा जाता है । तो मानव उत्पत्ति से सम्बन्धित शोध को ( बन्दर से )  विकासवाद कहना ही बेवकूफ़ी है । क्यों ? विज्ञान की ही भाषा में समझें । जल का रासायनिक फ़ार्मूला H2O है । आक्सीजन का O2 है । अब जबसे ये खोज पूरी हुयी कि H2O हाइड्रोजन और आक्सीजन गैसों का निश्चित अनुपात में मिश्रण या आपसी विलय ही पानी बनाता है । क्या  तबसे इस H2O ने समय परिस्थिति या आवश्यकता के अनुरूप (  स्वतः ) कोई विकास या रूपान्तरण किया है । जैसे पानी का शरबत दूध पेप्सी शराब या पेट्रोल बन जाना । जबकि ये दोनों गैसे भी वातावरण में अन्य पदार्थों और गैसों के साथ सक्रिय हैं । कहने का मतलब विकास के लिये सभी चीजें मौजूद हैं । सोचिये फ़िर नीम के पेङ ने कभी विकास क्यों नहीं किया कि लोग मुझे कङवा कहते हैं । अतः विकास कर मैं आम जैसा मीठा बनूँगा । सोचिये खरपतवार श्रेणी के पौधे क्यों विकास नहीं पर पाये कि लोग उनकी उपेक्षा करते हैं । और उन पर अब गुलाब आदि जैसे सुन्दर पुष्प खिलें । अनगिनत चीजें हैं सृष्टि में । कितनों को गिनोगे आप । और ये अपनी उत्पत्ति से अब तक ज्यों की त्यों हैं । इनके मूल में कोई परिवर्तन न हुआ । न कभी होता है । तो फ़िर कोई  बन्दर भी कभी इंसान रूप में परिवर्तित नहीं हो सकता । इसलिये विकासवाद की धारणा ही मेरे हिसाब से व्यर्थ है । ये विकासवाद शब्द ही सारी वैज्ञानिकता ( खोज ) का अन्त कर देता है । इसकी जगह " उत्पत्ति " शब्द ही सटीक है । और आज मैं आपको इस प्रश्न का उत्तर भी दे दूँ । मनुष्य की उत्पत्ति " मन " से हुयी है । इसीलिये इसको मनुष्य कहा जाता है । और आपको एक और झटका दे दूँ । मनुष्य के ही अन्य रूपान्तरण नर और मानव आदि से मनुष्य में बहुत अन्तर है । मनुष्य मूल है । और ये उसके बाद में बने स्थिति रूपान्तरण ।
स्पष्टीकरण - अक्सर मेरे पास समय का अभाव भी होता है । और मैं जानबूझ कर कुछ बिन्दु आपके चिन्तन हेतु अधूरे छोङ देता हूँ । और आप स्वयं समझ सकते हैं । ये बङे गहन विषय हैं । जिनको थोङे शब्दों में समझाना सम्भव नहीं होता ।
आप सभी के अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।

कोई टिप्पणी नहीं:

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326