अभी लगभग 1 महीने पहले की बात है । जब एक व्यक्ति मेरे पास आया । और प्रत्येक दुनियावी इंसान के समान ही उसने लोभ लालच और संशय युक्त अन्दाज में कहा - मैं काफ़ी परेशान हूँ । कई कामों में हाथ डाला । धन लगाया । पर असफ़लता ही हाथ लगी । और ये कुछ समय से ही है । ऐसा भी नहीं कि मैं अनुभवहीन हूँ । पर अब समझ नहीं पा रहा । ऐसा क्यों हो रहा है ?
आपको शायद आश्चर्य होगा कि यदि परेशानियों के प्रकार और कारणों की विभिन्नता को न देखकर यदि किसी भी परेशान व्यक्ति के कामन भाव देखें जायें । तो कम से कम मेरे सामने यही होते हैं । मुझे एक आदत सी है कि - अब ये क्या कहेगा ।
और मैं हमेशा की तरह यही कहता हूँ - आप मुझसे क्या चाहते हैं ?
और याचना पूर्ण प्रतिक्रिया होती है - आपका आशीर्वाद मिल जाये । कुछ कृपा हो जाये । बस यही काफ़ी है हमारे लिये ।
पर मेरी साधुगीरी अलग ही तरह की है - आशीर्वाद अपनी जगह है । स्पष्ट बताओ । चाहते क्या हो ?
तब अक्सर इंसान संकोचवश कुछ कह नहीं पाते । दरअसल वे कहना चाहते हैं - हम धन दौलत स्वास्थय और परिवार के साथ सुखी हो जायें । और अन्त में ( सभी को ) कोई स्वर्ग वगैरह भी दिला दो । कोई कोई यह भी कह देता है - हमें तो बस प्रभु की भक्ति ( करें ) और दर्शन हो जायें बस । क्योंकि वे जानते हैं । प्रभु ने सबको मालामाल भी किया है । और अन्त में अपने धाम भी ले गये ।
और जब उनका सही समय था । तब वे सोचते भी यही थे कि - प्रभु की हम पर अपार कृपा है । और हम अपने कर्तव्य भक्ति पूजा आदि सभी कुछ सही कर रहें हैं । अतः वे अभी के लिये और मृत्यु बाद के लिये भी निश्चित थे । ये तो जब महामारी के दिन शुरू हुये । तब उन्हें सन्तों की याद आयी । और लगा कि कहीं कुछ गङबङ है । दुख में सुमिरन सब करें । सुख में करे न कोय ।
पर मैं भी अपनी ही तरह का साधु हूँ । मैं कहता हूँ - यदि एक तरफ़ आपको दस करोङ रुपया और दूसरी तरफ़ परमात्मा में.. से एक चुनने को दिया जाये । तो आपको क्या चाहिये । सोचकर गम्भीरता से बोलना । नगद का सौदा है । बाद में किन्तु परन्तु नहीं चलेगी ।
अब उत्तर सुनिये - पैसा भी अपनी जगह महत्वपूर्ण है । घर परिवार को भी देखना है । आप सब समझते ही हैं ।
कोशिश रहेगी कि - परमात्मा को प्राप्त किया जाये ।
अगर आपको इस उत्तर से हैरानी होती है । तो ये सिर्फ़ आपका अज्ञान ही है । ये पूर्णतया लोभ लालच से भरपूर । पूर्ण अज्ञान युक्त । लगभग सभी की ही धारणा है । एक मनचाहा सुखी जीवन । वो भी परमात्मा के वीसा कार्ड से बिल भर के । और मृत्यु के बाद उस धाम की प्राप्ति । जिसके बारे में सभी जाति धर्मों की धर्म पुस्तकें ऐसा मोहक वर्णन करती हैं कि मुँह से लार ही टपकने लगे । बस परमात्मा का ( से ) इतना ही मतलब है । इतनी ही जानकारी है । और उससे सम्बन्ध बनाये रखने हेतु यही कारण है ।
और मैं कहता हूँ - तुम अपने असमंजस को लेकर चूक गये । तुम्हें सन्तों से कैसे मिलें ? इसका अनुभव ही नहीं
है । अतः दुविधा में दोनों गये । माया मिली न राम । परमात्मा का मिल जाना ही अपने आप सब कुछ मिल जाना है । इतना सरल सा भेद भी तुम्हारी समझ में न आया । और धन को लेकर भी तुम संशय में थे । संकोच में थे । अन्यथा तुम्हें धन ही मिल जाता ।
इस एक उदाहरण के बाद अब समझिये । इन्हें निश्चय ही दस करोङ रुपया किसी न किसी माध्यम से ( गङा । पङा । खङा ) मिल जाता । लेकिन जिसके कानून से बाहर एक पत्ता नहीं हिल सकता । वहाँ यदि तुम्हारे द्वारा ही पैदा की गयी समस्यायें यदि ऐसे हल होने लगे । गुनाहों की माफ़ी मिलने लगे । और राम राम अल्लाह अल्लाह वाहेगुरु कहकर तुम उत्तम गति को भी प्राप्त हो जाओ । तो सोचो । फ़िर जीवन में समस्या नाम की चीज भी क्या रही ? जब प्रत्येक समस्या का एक सर्वोच्च स्तरीय हल अदृश्य भगवान के रूप में मौजूद है । अतः दस करोङ रुपया मिलता अवश्य । पर किसी सरकारी सहायता
जैसा नहीं । जिसे लौटाना नहीं पङता । और दूसरी तरफ़ परमात्मा मिलता अवश्य । पर उसके लिये भी जो करना निर्धारित है । उसके बगैर कभी नहीं । अतः हमारे सभी अज्ञानजनित दुःखों का कारण घोर अज्ञानता ही है । और वो अज्ञानता सिर्फ़ इतनी ही है कि - खुद को कर्ता मान लेना । खुद का अस्तित्व मान लेना । जबकि ये दोनों ही महा भृम हैं । न तुम कर्ता ही हो । और न ही तुम्हारा ये अस्तित्व ? है । दरअसल जैसे ही ये दोनों चीजें अहम स्तर पर प्रबल हो उठती हैं । तब तुम कर्ता के साथ साथ तुरन्त भोक्ता भी बन जाते हो । और फ़िर इस भोग से पीछा छुङाना इतना आसान नहीं है । जङ चेतन ग्रन्थि पर गयी । यधपि मृषा ( मिथ्या ) छूटत कठिनाई ।
इस सम्बन्ध में श्री महाराज जी कहते हैं - बन्धन मोक्ष मन के धर्म हैं । आत्मा के नहीं । आत्मा सदा सर्वदा मुक्त ही है । बन्धन में कभी आया ही नहीं । फ़िर मुक्त होना कैसा ? यानी तुम मन से ही बँधे हो । मन से ही मान भी रहे हो । और मन से ही भोगते भी हो ।
इस सम्बन्ध में एक प्रेरक और रोचक दृष्टांत भी श्री महाराज जी अक्सर सुनाते हैं ।
एक व्यक्ति के यहाँ कुछ गधे थे । एक शाम जब गधे काम से वापस आये । तो एक गधे के पैरों में बाँधने वाली पगही ( रस्सी ) कहीं खो गयी । तब उस व्यक्ति ने अपने पिता से कहा - एक गधे की रस्सी खो गयी है । इसे कैसे बाँधू ? उसके पिता ने कहा - झूठमूठ का बाँध दे । यानी उसके पैरों के साथ ऐसी ही क्रिया कर । जैसे वास्तव में उसे रस्सी से बाँध रहा हो । उसने ऐसा ही किया ।
सुबह उसने सारे गधे खोल दिये । और झूठमूठ का बँधा क्योंकि बँधा ही नहीं था । उसे नहीं खोला । सारे गधे आगे बढने लगे । पर वह ज्यों का त्यों ही खङा रहा । डण्डा मारा । फ़िर भी नहीं हिला । तब उसने पिता से कहा - ये गधा नहीं चल रहा ।
उसके पिता ने कहा - तूने चलाने से पहले उसे खोला था ।
वह हैरानी से बोला - वह बँधा ही कहाँ है । जो खोलूँ ।
उसका पिता बोला - जैसे कल बाँधा था । वैसे ही उसको खोल भी दे ।
उसने फ़िर उसके पैरों से वही झूठमूठ क्रिया की । जो खोलने पर करते हैं । और आश्चर्य की बात । गधा तुरन्त अपने स्थान से नित्य की तरह आगे बढ गया ।
बिलकुल ऐसा ही तुम्हारे साथ है । सारे बन्धन सारे दुःख तुम्हारे अज्ञानवश ही हैं । अगर इन झूठमूठ के बन्धनों से बाहर आ जाओ । तो एक आनन्दमय जीवन तुम्हारा इंतजार कर रहा है ।
- आप सभी के अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।
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वैदिक गणित सीखने के लिये भारती कृष्ण तीरथ जी की पुस्तक - Vedic Mathematics का लिंक
http://www.flipkart.com/vedic-mathematics-8120801644/p/itmdytehcpcjdhtb?pid=9788120801646&_l=j9Xfifej1tnSUjNow6B3Vw--&_r=8EIiwaUoH87BbdAmr+twIQ--&ref=faa51a98-9d38-4841-a76d-75e3a76df7bf
http://www.dhoopchhaon.com/2012/01/vedic-mathematics-multiplication-using.html
आपको शायद आश्चर्य होगा कि यदि परेशानियों के प्रकार और कारणों की विभिन्नता को न देखकर यदि किसी भी परेशान व्यक्ति के कामन भाव देखें जायें । तो कम से कम मेरे सामने यही होते हैं । मुझे एक आदत सी है कि - अब ये क्या कहेगा ।
और मैं हमेशा की तरह यही कहता हूँ - आप मुझसे क्या चाहते हैं ?
और याचना पूर्ण प्रतिक्रिया होती है - आपका आशीर्वाद मिल जाये । कुछ कृपा हो जाये । बस यही काफ़ी है हमारे लिये ।
पर मेरी साधुगीरी अलग ही तरह की है - आशीर्वाद अपनी जगह है । स्पष्ट बताओ । चाहते क्या हो ?
तब अक्सर इंसान संकोचवश कुछ कह नहीं पाते । दरअसल वे कहना चाहते हैं - हम धन दौलत स्वास्थय और परिवार के साथ सुखी हो जायें । और अन्त में ( सभी को ) कोई स्वर्ग वगैरह भी दिला दो । कोई कोई यह भी कह देता है - हमें तो बस प्रभु की भक्ति ( करें ) और दर्शन हो जायें बस । क्योंकि वे जानते हैं । प्रभु ने सबको मालामाल भी किया है । और अन्त में अपने धाम भी ले गये ।
और जब उनका सही समय था । तब वे सोचते भी यही थे कि - प्रभु की हम पर अपार कृपा है । और हम अपने कर्तव्य भक्ति पूजा आदि सभी कुछ सही कर रहें हैं । अतः वे अभी के लिये और मृत्यु बाद के लिये भी निश्चित थे । ये तो जब महामारी के दिन शुरू हुये । तब उन्हें सन्तों की याद आयी । और लगा कि कहीं कुछ गङबङ है । दुख में सुमिरन सब करें । सुख में करे न कोय ।
पर मैं भी अपनी ही तरह का साधु हूँ । मैं कहता हूँ - यदि एक तरफ़ आपको दस करोङ रुपया और दूसरी तरफ़ परमात्मा में.. से एक चुनने को दिया जाये । तो आपको क्या चाहिये । सोचकर गम्भीरता से बोलना । नगद का सौदा है । बाद में किन्तु परन्तु नहीं चलेगी ।
अब उत्तर सुनिये - पैसा भी अपनी जगह महत्वपूर्ण है । घर परिवार को भी देखना है । आप सब समझते ही हैं ।
कोशिश रहेगी कि - परमात्मा को प्राप्त किया जाये ।
अगर आपको इस उत्तर से हैरानी होती है । तो ये सिर्फ़ आपका अज्ञान ही है । ये पूर्णतया लोभ लालच से भरपूर । पूर्ण अज्ञान युक्त । लगभग सभी की ही धारणा है । एक मनचाहा सुखी जीवन । वो भी परमात्मा के वीसा कार्ड से बिल भर के । और मृत्यु के बाद उस धाम की प्राप्ति । जिसके बारे में सभी जाति धर्मों की धर्म पुस्तकें ऐसा मोहक वर्णन करती हैं कि मुँह से लार ही टपकने लगे । बस परमात्मा का ( से ) इतना ही मतलब है । इतनी ही जानकारी है । और उससे सम्बन्ध बनाये रखने हेतु यही कारण है ।
और मैं कहता हूँ - तुम अपने असमंजस को लेकर चूक गये । तुम्हें सन्तों से कैसे मिलें ? इसका अनुभव ही नहीं
है । अतः दुविधा में दोनों गये । माया मिली न राम । परमात्मा का मिल जाना ही अपने आप सब कुछ मिल जाना है । इतना सरल सा भेद भी तुम्हारी समझ में न आया । और धन को लेकर भी तुम संशय में थे । संकोच में थे । अन्यथा तुम्हें धन ही मिल जाता ।
इस एक उदाहरण के बाद अब समझिये । इन्हें निश्चय ही दस करोङ रुपया किसी न किसी माध्यम से ( गङा । पङा । खङा ) मिल जाता । लेकिन जिसके कानून से बाहर एक पत्ता नहीं हिल सकता । वहाँ यदि तुम्हारे द्वारा ही पैदा की गयी समस्यायें यदि ऐसे हल होने लगे । गुनाहों की माफ़ी मिलने लगे । और राम राम अल्लाह अल्लाह वाहेगुरु कहकर तुम उत्तम गति को भी प्राप्त हो जाओ । तो सोचो । फ़िर जीवन में समस्या नाम की चीज भी क्या रही ? जब प्रत्येक समस्या का एक सर्वोच्च स्तरीय हल अदृश्य भगवान के रूप में मौजूद है । अतः दस करोङ रुपया मिलता अवश्य । पर किसी सरकारी सहायता
जैसा नहीं । जिसे लौटाना नहीं पङता । और दूसरी तरफ़ परमात्मा मिलता अवश्य । पर उसके लिये भी जो करना निर्धारित है । उसके बगैर कभी नहीं । अतः हमारे सभी अज्ञानजनित दुःखों का कारण घोर अज्ञानता ही है । और वो अज्ञानता सिर्फ़ इतनी ही है कि - खुद को कर्ता मान लेना । खुद का अस्तित्व मान लेना । जबकि ये दोनों ही महा भृम हैं । न तुम कर्ता ही हो । और न ही तुम्हारा ये अस्तित्व ? है । दरअसल जैसे ही ये दोनों चीजें अहम स्तर पर प्रबल हो उठती हैं । तब तुम कर्ता के साथ साथ तुरन्त भोक्ता भी बन जाते हो । और फ़िर इस भोग से पीछा छुङाना इतना आसान नहीं है । जङ चेतन ग्रन्थि पर गयी । यधपि मृषा ( मिथ्या ) छूटत कठिनाई ।
इस सम्बन्ध में श्री महाराज जी कहते हैं - बन्धन मोक्ष मन के धर्म हैं । आत्मा के नहीं । आत्मा सदा सर्वदा मुक्त ही है । बन्धन में कभी आया ही नहीं । फ़िर मुक्त होना कैसा ? यानी तुम मन से ही बँधे हो । मन से ही मान भी रहे हो । और मन से ही भोगते भी हो ।
इस सम्बन्ध में एक प्रेरक और रोचक दृष्टांत भी श्री महाराज जी अक्सर सुनाते हैं ।
एक व्यक्ति के यहाँ कुछ गधे थे । एक शाम जब गधे काम से वापस आये । तो एक गधे के पैरों में बाँधने वाली पगही ( रस्सी ) कहीं खो गयी । तब उस व्यक्ति ने अपने पिता से कहा - एक गधे की रस्सी खो गयी है । इसे कैसे बाँधू ? उसके पिता ने कहा - झूठमूठ का बाँध दे । यानी उसके पैरों के साथ ऐसी ही क्रिया कर । जैसे वास्तव में उसे रस्सी से बाँध रहा हो । उसने ऐसा ही किया ।
सुबह उसने सारे गधे खोल दिये । और झूठमूठ का बँधा क्योंकि बँधा ही नहीं था । उसे नहीं खोला । सारे गधे आगे बढने लगे । पर वह ज्यों का त्यों ही खङा रहा । डण्डा मारा । फ़िर भी नहीं हिला । तब उसने पिता से कहा - ये गधा नहीं चल रहा ।
उसके पिता ने कहा - तूने चलाने से पहले उसे खोला था ।
वह हैरानी से बोला - वह बँधा ही कहाँ है । जो खोलूँ ।
उसका पिता बोला - जैसे कल बाँधा था । वैसे ही उसको खोल भी दे ।
उसने फ़िर उसके पैरों से वही झूठमूठ क्रिया की । जो खोलने पर करते हैं । और आश्चर्य की बात । गधा तुरन्त अपने स्थान से नित्य की तरह आगे बढ गया ।
बिलकुल ऐसा ही तुम्हारे साथ है । सारे बन्धन सारे दुःख तुम्हारे अज्ञानवश ही हैं । अगर इन झूठमूठ के बन्धनों से बाहर आ जाओ । तो एक आनन्दमय जीवन तुम्हारा इंतजार कर रहा है ।
- आप सभी के अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।
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वैदिक गणित सीखने के लिये भारती कृष्ण तीरथ जी की पुस्तक - Vedic Mathematics का लिंक
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http://www.dhoopchhaon.com/2012/01/vedic-mathematics-multiplication-using.html
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