आप लोग अक्सर बहुत से शब्द बोलते रहते होंगे । पर कभी ये ध्यान नहीं गया होगा कि आखिर इनको ऐसा क्यों कहते हैं ? और कहीं हम मूल को न जानकर थोथा थोथा स्थूल भाववाची ही तो नहीं कह रहे । ये कोई मामूली बात नहीं । बल्कि इससे आप ज्ञान के मूल या जङ से अलग हुये एक तरह से हमेशा असत्य में ही बरताव करते रहते हैं । किसी भी स्तुति , बन्दगी , जगत व्यवहार या ज्ञान विज्ञान में यही अज्ञानता अवैज्ञानिकता सत्य तक पहुँचने में बाधक होकर ज्ञान को सिद्ध ( प्रमाणित ) नहीं होने देती । और तब आप अपनी गलती को न समझकर ज्ञान की सत्यता पर ही मिथ्या दोषारोपण करने लगते हैं । आज मैं ऐसे ही दो महत्वपूर्ण शब्द " कमल " और " ईश्वर " के बारे में बात करूँगा ।
मैंने कमल शब्द का शब्दार्थ या भावार्थ तलाशने की काफ़ी कोशिश की । पर कामयाबी नहीं मिली । जैसे गति का अर्थ किसी भी चलन क्रिया से है । या मृत्यु का अर्थ मरने से है इस तरह । संस्कृत शब्दकोष में कमल का अर्थ पदम दिया हुआ है । और फ़िर पदम का कमल दिया हुआ है । यानी बात वहीं की वहीं । जहाँ तक मैं समझता हूँ । कमल नाम के इस पुष्प का मूल शब्द पदम ही है । एक और शब्द " कंज " भी इसके लिये प्रयुक्त होता है । पर उसके प्रति अभी मैं अनभिज्ञ ही हूँ । कमल और पदम शब्द हिन्दू अध्यात्म और धर्म शास्त्र में बहुतायत से प्रयोग होता है । इसका सबसे उचित उदाहरण " पदमासन " पर बैठे विभिन्न देवी देवता आदि हैं । पदमासन यानी कमलासन यानी कमल पर आसन । कमल पर आसन लगाये लक्ष्मी को कमला भी इसीलिये कहा जाता है । कमल के अनेकों पर्यायवाची ( जिनमें से कुछ निम्न हैं ) मेरे विचार से उसकी उपमा मात्र है । जैसे पंक कीचङ से कहते हैं । और ज का अर्थ जन्म या उत्पन्न से हैं । तो ये पंकज शब्द अपने आप में पूर्ण नहीं है । क्योंकि कीचङ से ( या में ) बहुत सी अन्य चीजें हो सकती हैं । यही बात इसकी अन्य उपमाओं पर भी लागू हो रही है । जानने हेतु नीचे देखें । सन्धि विच्छेद में + से पहले जो शब्द है । = के बाद उसी का अर्थ लिखा है ।
पदम ( अभी ज्ञात नहीं )
पंकज ( पंक + ज = कीचङ से जन्मा या उत्पन्न )
वारिज ( वारि + ज = जल से उत्पन्न )
नीरज ( नीर + ज = जल से उत्पन्न )
अम्बुज ( अम्बु + ज = जल से उत्पन्न )
जलज ( जल + ज = जल से उत्पन्न )
सरोज ( सरो + ज = तालाब से उत्पन्न )
राजीव ( शब्द का अर्थ भी कमल है । क्यों है ? अभी मुझे नहीं पता । संस्कृत शब्दकोष के अनुसार राजीव का अर्थ ऐसे व्यक्ति से भी है । जो राजा के यहाँ नौकरी करता हो । पर मेरे विचार से यह अर्थ गलत है । क्योंकि ये राज + जीव जैसा गलत विच्छेद करता है । यदि सिर्फ़ रा का अर्थ राज्य से हो । तो ये रा + जीव सही हो सकता है । लेकिन शास्त्रों आदि में देवी देवों भगवानों की आँखों की सुन्दरता वर्णन हेतु राजीव लोचन यानी कमल के समान नयन कहा गया है ।
सरोरूह ( सर को तालाब कहते हैं । ये तो मुझे ज्ञात है । पर सरो को तालाब किसलिये कहते हैं ? मैं नहीं जानता । और फ़िर यदि सरो + रूह ( या सर + ओरूह हो सकता है ) शब्द भी मानें । तो रूह उर्दू शब्द है । इसलिये कमल को सरोरूह किस आधार पर कहा जाता है । अभी मेरे लिये अज्ञात है । )
- इसके बाद आगे कमल के पर्याय के लिये लिखे जाने वाले शब्द - सरसिज । सरसीरूह । अम्भोज । अरविन्द । कमल । कंज ?? का सही अर्थ भी मेरे लिये अभी अज्ञात ही है ।
कमल शब्द से दी जाने वाली उपमा भी हैरान करती है । क्योंकि ये आँखों ( कमल नयन ) और पैरों ( चरण कमल ) दोनों के लिये प्रयुक्त होता है । नीचे कोष्ठक में तुलसी कृत रामचरित मानस से लिये कुछ उदाहरण है ।
( नील सरोरुह ) स्याम तरुन ( अरुन बारिज ) नयन ।
जो ( नील कमल ) के समान श्याम वर्ण हैं । पूर्ण खिले हुए ( लाल कमल ) के समान जिनके नेत्र हैं । बालकाण्ड
बंदउँ गुरु ( पद कंज ) कृपा सिंधु नररूप हरि ।
मैं उन गुरु के ( चरण कमल ) की वंदना करता हूँ । जो कृपा के समुद्र । और नर रूप में श्री हरि ही हैं । बालकाण्ड
बंदउँ मुनि ( पद कंजु ) रामायन जेहिं निरमयउ ।
मैं उन मुनि के ( चरण कमलों ) की वंदना करता हूँ ।
बंदऊँ गुरु ( पद पदुम ) परागा ।
मैं गुरु के ( चरण कमलों ) की रज की वन्दना करता हूँ ।
उपजहिं एक संग जग माहीं । ( जलज ) जोंक जिमि गुन बिलगाहीं ।
दोनों संत और असंत जगत में 1 साथ पैदा होते हैं । पर 1 साथ पैदा होने वाले ( कमल ) और जोंक की तरह उनके गुण अलग अलग होते हैं ।
चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे ।
मैं उन सब श्रेष्ठ कवियों के ( चरण कमलों ) में प्रणाम करता हूँ ।
राम ( चरन पंकज ) मन जासू ।
जिनका मन राम के ( चरण कमलों ) में
बंदउँ लछिमन ( पद जल जाता ) ।
मैं लक्ष्मण के ( चरण कमलों ) को प्रणाम करता हूँ ।
रिपु सूदन ( पद कमल ) नमामी ।
मैं शत्रुघन के ( चरण कमलों ) को प्रणाम करता हूँ ।
बंदउँ ( पद सरोज ) सब केरे ।
मैं उन सबके ( चरण कमलों ) की वंदना करता हूँ ।
जन मन मंजु ( कंज ) मधुकर से ।
भक्तों के मन रूपी सुंदर ( कमल ) में विहार करने वाले भौंरे के समान हैं ।
इसके बाद सर्वाधिक प्रसिद्ध ईश्वर शब्द की बात करते हैं । आप देखें कि इसमें ई + श + व + र अक्षरों का प्रयोग हुआ है । आज अलग अलग धर्मों के मनमुटाव और मतभेदों के चलते यह शब्द और इसका अर्थ विवादित सा हो चला है । पर कम से कम मैं इस शब्द के सही अर्थ के प्रति पूरा निश्चिंत हूँ । आपकी सुविधा के लिये मैंने संस्कृत हिन्दी शब्दकोष से प्रत्येक अक्षर का अर्थ चिन्तन हेतु लिखा है । देखें ।
ई - कामदेव । श - महादेव । व - वायु वरुण कल्याण समुद्र ।
र - अग्नि । जलना । ताप । प्रखर ।
दरअसल ईश्वर शब्द ईश + वर से मिलकर बना है । जिसमें ईश का सही मायनों में अर्थ स्वामी ही होता है । ये आगे कुछ उदाहरणों से सिद्ध हो जायेगा । सुरेश इन्द्र को कहा जाता है । सुरेश शब्द का सन्धि विच्छेद सुर + ईश है । सुर अर्थात देवताओं का अधिपति या स्वामी । इसी तरह उमेश शब्द उमा पति ( स्वामी ) शंकर के लिये प्रयुक्त होता है । उमेश का विच्छेद भी उमा + ईश होता है । इसी तरह गणेश शब्द का अर्थ गण ( छोटी श्रेणी के देवता या कोई समूह विशेष ) यानी देवताओं का स्वामी है । और गणेश का विच्छेद भी गण + ईश है । इसी तरह नरेश राजा को कहा जाता है । जैसे काशी के राजा को काशी नरेश कहेंगे । इस तरह किसी स्थान विशेष के नरों ( नर ) का स्वामी उनका नरेश कहलाता है । और नरेश का विच्छेद भी नर + ईश है । इसलिये कपीश खगेश दुर्गेश आदि आदि ईश शब्दों से ईश का अर्थ ईश से पूर्व जुङे शब्द का स्वामी ही सिद्ध होगा ।
इस तरह ईश का अर्थ जान लेने के बाद इसके शेष भाग " वर " को जानना रह जाता है । वर शब्द दो रूप में बहुत प्रसिद्ध है । एक तो किसी कन्या विवाह हेतु वर यानी दूल्हा । और दूसरा देवी देवता भगवान आदि दिया हुआ वर या वर - दान । ध्यान रहे । वर और वरण शब्द में बहुत गहरा रिश्ता है । दरअसल वर शब्द किसी - व्यक्ति । स्थान । स्थिति । गुण या भाव के साथ जुङता है । तो वह उसकी उस विशेष पूर्णता को ही दर्शाता है । जैसे भगवान कहते हैं कि - कोई वर माँगों । और भक्त ने कहा - मुझे राज्य चाहिये । और फ़िर उसे राज्य मिला । यानी उसने मिले राज्य का वरण किया । तो ये व्यक्ति । स्थान । स्थिति । गुण । इच्छा ( भाव ) आदि के सभी अंगो की पूर्णता हुयी कि नहीं । इसी तरह किसी लङकी की शादी हेतु " विवाह योग्य वर " की तलाश जैसे शब्द भाव क्या कहते हैं । विचार करें । यानी लङकी में जो योग्यता ( पूर्ण रूप में ) है । उसी के अनूरूप " सभी अंगों से पूर्ण वर " और फ़िर कहा जाता है । उसने ( उसको ) पति रूप में वरण किया ।
इसके लिये एक और बङा प्रसिद्ध और सरल शब्द है - ताकतवर । अब ये ताकत के कौन से अंग विशेष ( शरीर बल । धन बल । समूह बल आदि ) के लिये किस जगह प्रयोग होता है । वह अलग बात हो जाती है । पर ताकत शब्द ( उस भाववाचक शब्द के साथ ) में मिला वर शब्द जुङे शब्द के साथ उसकी पूर्णता दर्शाता है । इसके और उदाहरणों में विप्रवर पूर्ण ब्राह्मणत्व को । मान्यवर पूर्ण सम्मान को । नश्वर जुङी स्थिति के पूर्ण विनाश को । मुनिवर मुनि की सम्पूर्णता को । तरुवर वृक्ष की पूर्णता । जैसे तरुवर विशाल और समृद्ध व्रुक्ष के लिये आदरसूचक भाव में प्रयोग होता है । छोटे और किसी भी प्रकार ( अंग ) से कमजोर व्रुक्ष को तरु कहते हैं । सरोवर तालाव की पूर्णता । एक विशाल और सभी मानकों पर पूर्ण तालाब को सरोवर कहते हैं । अन्यथा सर कहा जाता है । जैसे आम भाषा में ताल ( तालाब ) और तलैया ( छोटा ताल ) प्रियवर हर तरह से प्यारे व्यक्ति को । ऋषिवर ऋषि की पूर्णता को दर्शाता है ।
इन अनेक विभिन्न उदाहरणों से आप " वर " शब्द के भावार्थ को आसानी से समझ जायेंगे ।
अब ईश और वर के शब्द अर्थों भाव अर्थों पर चिन्तन करने के बाद आप गौर करें कि ईश्वर शब्द त्रिगुणमयी सृष्टि ? के स्वामी के लिये प्रयुक्त होता है । यानी सृष्टि के सभी अंगो और स्थितियों का स्वामी ही ईश्वर है । सरल भाषा में सृष्टि के ऐश्वर्य का स्वामी ईश्वर कहलाता है । लेकिन इसको आप विराट का स्वामी हरगिज नहीं कह सकते । क्योंकि अखिल सृष्टि ( शब्द पर ध्यान दें ) के माडल में जो तीन एक के ऊपर एक खांचे या स्थान बनते हैं । उसमें ईश्वर सबसे नीचे है । सबसे ऊपर विराट । उसके अन्दर हिरण्यगर्भ । उसके अन्दर ईश्वर ।
चित्र को देखें । लाल रेखा से अंकित क्षेत्र विराट । नीली रेखा से अंकित क्षेत्र हिरण्यगर्भ क्षेत्र । और हरी रेखा से अंकित क्षेत्र ईश्वर क्षेत्र कहलाता है । इस तरह ईश्वर ( चेतन पुरुष ) के ऊपर बहुत कुछ है । जो कल्पना से बहुत परे ही है ।
तुलसी रामायण में " वर " शब्द के दो प्रयोग । इसका अर्थ श्रेष्ठ और सुन्दर भी किसी स्थिति की पूर्णता को ही दर्शाता है ।
जौं बरषइ ( बर ) बारि बिचारू ।
इसमें यदि ( श्रेष्ठ ) विचार रूपी जल बरसता है ।
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित ( बर ) ताग ।
युक्ति से बेध कर फिर राम चरित्र रूपी ( सुंदर ) तागे में पिरोकर ।
और इसीलिये तो कहते हैं ।
यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम ।
स्वजनो श्वजनो माऽभूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत ।
- पुत्र ! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन पाते हो । तो भी व्याकरण ( अवश्य ) पढ़ो । ताकि " स्वजन " " श्वजन " ( कुत्ता ) न बने । और " सकल " ( सम्पूर्ण ) " शकल " ( टूटा हुआ ) न बने । तथा " सकृत " ( किसी समय ) " शकृत " ( गोबर का घूरा ) न बन जाय। )
अब इस पर भी आप विचार करें कि - आँखों के लिये मूल शब्द नेत्र ही सही है ।
आप सभी के अंतर में विराजमान सर्वात्म प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।
मैंने कमल शब्द का शब्दार्थ या भावार्थ तलाशने की काफ़ी कोशिश की । पर कामयाबी नहीं मिली । जैसे गति का अर्थ किसी भी चलन क्रिया से है । या मृत्यु का अर्थ मरने से है इस तरह । संस्कृत शब्दकोष में कमल का अर्थ पदम दिया हुआ है । और फ़िर पदम का कमल दिया हुआ है । यानी बात वहीं की वहीं । जहाँ तक मैं समझता हूँ । कमल नाम के इस पुष्प का मूल शब्द पदम ही है । एक और शब्द " कंज " भी इसके लिये प्रयुक्त होता है । पर उसके प्रति अभी मैं अनभिज्ञ ही हूँ । कमल और पदम शब्द हिन्दू अध्यात्म और धर्म शास्त्र में बहुतायत से प्रयोग होता है । इसका सबसे उचित उदाहरण " पदमासन " पर बैठे विभिन्न देवी देवता आदि हैं । पदमासन यानी कमलासन यानी कमल पर आसन । कमल पर आसन लगाये लक्ष्मी को कमला भी इसीलिये कहा जाता है । कमल के अनेकों पर्यायवाची ( जिनमें से कुछ निम्न हैं ) मेरे विचार से उसकी उपमा मात्र है । जैसे पंक कीचङ से कहते हैं । और ज का अर्थ जन्म या उत्पन्न से हैं । तो ये पंकज शब्द अपने आप में पूर्ण नहीं है । क्योंकि कीचङ से ( या में ) बहुत सी अन्य चीजें हो सकती हैं । यही बात इसकी अन्य उपमाओं पर भी लागू हो रही है । जानने हेतु नीचे देखें । सन्धि विच्छेद में + से पहले जो शब्द है । = के बाद उसी का अर्थ लिखा है ।
पदम ( अभी ज्ञात नहीं )
पंकज ( पंक + ज = कीचङ से जन्मा या उत्पन्न )
वारिज ( वारि + ज = जल से उत्पन्न )
नीरज ( नीर + ज = जल से उत्पन्न )
अम्बुज ( अम्बु + ज = जल से उत्पन्न )
जलज ( जल + ज = जल से उत्पन्न )
सरोज ( सरो + ज = तालाब से उत्पन्न )
राजीव ( शब्द का अर्थ भी कमल है । क्यों है ? अभी मुझे नहीं पता । संस्कृत शब्दकोष के अनुसार राजीव का अर्थ ऐसे व्यक्ति से भी है । जो राजा के यहाँ नौकरी करता हो । पर मेरे विचार से यह अर्थ गलत है । क्योंकि ये राज + जीव जैसा गलत विच्छेद करता है । यदि सिर्फ़ रा का अर्थ राज्य से हो । तो ये रा + जीव सही हो सकता है । लेकिन शास्त्रों आदि में देवी देवों भगवानों की आँखों की सुन्दरता वर्णन हेतु राजीव लोचन यानी कमल के समान नयन कहा गया है ।
सरोरूह ( सर को तालाब कहते हैं । ये तो मुझे ज्ञात है । पर सरो को तालाब किसलिये कहते हैं ? मैं नहीं जानता । और फ़िर यदि सरो + रूह ( या सर + ओरूह हो सकता है ) शब्द भी मानें । तो रूह उर्दू शब्द है । इसलिये कमल को सरोरूह किस आधार पर कहा जाता है । अभी मेरे लिये अज्ञात है । )
- इसके बाद आगे कमल के पर्याय के लिये लिखे जाने वाले शब्द - सरसिज । सरसीरूह । अम्भोज । अरविन्द । कमल । कंज ?? का सही अर्थ भी मेरे लिये अभी अज्ञात ही है ।
कमल शब्द से दी जाने वाली उपमा भी हैरान करती है । क्योंकि ये आँखों ( कमल नयन ) और पैरों ( चरण कमल ) दोनों के लिये प्रयुक्त होता है । नीचे कोष्ठक में तुलसी कृत रामचरित मानस से लिये कुछ उदाहरण है ।
( नील सरोरुह ) स्याम तरुन ( अरुन बारिज ) नयन ।
जो ( नील कमल ) के समान श्याम वर्ण हैं । पूर्ण खिले हुए ( लाल कमल ) के समान जिनके नेत्र हैं । बालकाण्ड
बंदउँ गुरु ( पद कंज ) कृपा सिंधु नररूप हरि ।
मैं उन गुरु के ( चरण कमल ) की वंदना करता हूँ । जो कृपा के समुद्र । और नर रूप में श्री हरि ही हैं । बालकाण्ड
बंदउँ मुनि ( पद कंजु ) रामायन जेहिं निरमयउ ।
मैं उन मुनि के ( चरण कमलों ) की वंदना करता हूँ ।
बंदऊँ गुरु ( पद पदुम ) परागा ।
मैं गुरु के ( चरण कमलों ) की रज की वन्दना करता हूँ ।
उपजहिं एक संग जग माहीं । ( जलज ) जोंक जिमि गुन बिलगाहीं ।
दोनों संत और असंत जगत में 1 साथ पैदा होते हैं । पर 1 साथ पैदा होने वाले ( कमल ) और जोंक की तरह उनके गुण अलग अलग होते हैं ।
चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे ।
मैं उन सब श्रेष्ठ कवियों के ( चरण कमलों ) में प्रणाम करता हूँ ।
राम ( चरन पंकज ) मन जासू ।
जिनका मन राम के ( चरण कमलों ) में
बंदउँ लछिमन ( पद जल जाता ) ।
मैं लक्ष्मण के ( चरण कमलों ) को प्रणाम करता हूँ ।
रिपु सूदन ( पद कमल ) नमामी ।
मैं शत्रुघन के ( चरण कमलों ) को प्रणाम करता हूँ ।
बंदउँ ( पद सरोज ) सब केरे ।
मैं उन सबके ( चरण कमलों ) की वंदना करता हूँ ।
जन मन मंजु ( कंज ) मधुकर से ।
भक्तों के मन रूपी सुंदर ( कमल ) में विहार करने वाले भौंरे के समान हैं ।
इसके बाद सर्वाधिक प्रसिद्ध ईश्वर शब्द की बात करते हैं । आप देखें कि इसमें ई + श + व + र अक्षरों का प्रयोग हुआ है । आज अलग अलग धर्मों के मनमुटाव और मतभेदों के चलते यह शब्द और इसका अर्थ विवादित सा हो चला है । पर कम से कम मैं इस शब्द के सही अर्थ के प्रति पूरा निश्चिंत हूँ । आपकी सुविधा के लिये मैंने संस्कृत हिन्दी शब्दकोष से प्रत्येक अक्षर का अर्थ चिन्तन हेतु लिखा है । देखें ।
ई - कामदेव । श - महादेव । व - वायु वरुण कल्याण समुद्र ।
र - अग्नि । जलना । ताप । प्रखर ।
दरअसल ईश्वर शब्द ईश + वर से मिलकर बना है । जिसमें ईश का सही मायनों में अर्थ स्वामी ही होता है । ये आगे कुछ उदाहरणों से सिद्ध हो जायेगा । सुरेश इन्द्र को कहा जाता है । सुरेश शब्द का सन्धि विच्छेद सुर + ईश है । सुर अर्थात देवताओं का अधिपति या स्वामी । इसी तरह उमेश शब्द उमा पति ( स्वामी ) शंकर के लिये प्रयुक्त होता है । उमेश का विच्छेद भी उमा + ईश होता है । इसी तरह गणेश शब्द का अर्थ गण ( छोटी श्रेणी के देवता या कोई समूह विशेष ) यानी देवताओं का स्वामी है । और गणेश का विच्छेद भी गण + ईश है । इसी तरह नरेश राजा को कहा जाता है । जैसे काशी के राजा को काशी नरेश कहेंगे । इस तरह किसी स्थान विशेष के नरों ( नर ) का स्वामी उनका नरेश कहलाता है । और नरेश का विच्छेद भी नर + ईश है । इसलिये कपीश खगेश दुर्गेश आदि आदि ईश शब्दों से ईश का अर्थ ईश से पूर्व जुङे शब्द का स्वामी ही सिद्ध होगा ।
इस तरह ईश का अर्थ जान लेने के बाद इसके शेष भाग " वर " को जानना रह जाता है । वर शब्द दो रूप में बहुत प्रसिद्ध है । एक तो किसी कन्या विवाह हेतु वर यानी दूल्हा । और दूसरा देवी देवता भगवान आदि दिया हुआ वर या वर - दान । ध्यान रहे । वर और वरण शब्द में बहुत गहरा रिश्ता है । दरअसल वर शब्द किसी - व्यक्ति । स्थान । स्थिति । गुण या भाव के साथ जुङता है । तो वह उसकी उस विशेष पूर्णता को ही दर्शाता है । जैसे भगवान कहते हैं कि - कोई वर माँगों । और भक्त ने कहा - मुझे राज्य चाहिये । और फ़िर उसे राज्य मिला । यानी उसने मिले राज्य का वरण किया । तो ये व्यक्ति । स्थान । स्थिति । गुण । इच्छा ( भाव ) आदि के सभी अंगो की पूर्णता हुयी कि नहीं । इसी तरह किसी लङकी की शादी हेतु " विवाह योग्य वर " की तलाश जैसे शब्द भाव क्या कहते हैं । विचार करें । यानी लङकी में जो योग्यता ( पूर्ण रूप में ) है । उसी के अनूरूप " सभी अंगों से पूर्ण वर " और फ़िर कहा जाता है । उसने ( उसको ) पति रूप में वरण किया ।
इसके लिये एक और बङा प्रसिद्ध और सरल शब्द है - ताकतवर । अब ये ताकत के कौन से अंग विशेष ( शरीर बल । धन बल । समूह बल आदि ) के लिये किस जगह प्रयोग होता है । वह अलग बात हो जाती है । पर ताकत शब्द ( उस भाववाचक शब्द के साथ ) में मिला वर शब्द जुङे शब्द के साथ उसकी पूर्णता दर्शाता है । इसके और उदाहरणों में विप्रवर पूर्ण ब्राह्मणत्व को । मान्यवर पूर्ण सम्मान को । नश्वर जुङी स्थिति के पूर्ण विनाश को । मुनिवर मुनि की सम्पूर्णता को । तरुवर वृक्ष की पूर्णता । जैसे तरुवर विशाल और समृद्ध व्रुक्ष के लिये आदरसूचक भाव में प्रयोग होता है । छोटे और किसी भी प्रकार ( अंग ) से कमजोर व्रुक्ष को तरु कहते हैं । सरोवर तालाव की पूर्णता । एक विशाल और सभी मानकों पर पूर्ण तालाब को सरोवर कहते हैं । अन्यथा सर कहा जाता है । जैसे आम भाषा में ताल ( तालाब ) और तलैया ( छोटा ताल ) प्रियवर हर तरह से प्यारे व्यक्ति को । ऋषिवर ऋषि की पूर्णता को दर्शाता है ।
इन अनेक विभिन्न उदाहरणों से आप " वर " शब्द के भावार्थ को आसानी से समझ जायेंगे ।
अब ईश और वर के शब्द अर्थों भाव अर्थों पर चिन्तन करने के बाद आप गौर करें कि ईश्वर शब्द त्रिगुणमयी सृष्टि ? के स्वामी के लिये प्रयुक्त होता है । यानी सृष्टि के सभी अंगो और स्थितियों का स्वामी ही ईश्वर है । सरल भाषा में सृष्टि के ऐश्वर्य का स्वामी ईश्वर कहलाता है । लेकिन इसको आप विराट का स्वामी हरगिज नहीं कह सकते । क्योंकि अखिल सृष्टि ( शब्द पर ध्यान दें ) के माडल में जो तीन एक के ऊपर एक खांचे या स्थान बनते हैं । उसमें ईश्वर सबसे नीचे है । सबसे ऊपर विराट । उसके अन्दर हिरण्यगर्भ । उसके अन्दर ईश्वर ।
चित्र को देखें । लाल रेखा से अंकित क्षेत्र विराट । नीली रेखा से अंकित क्षेत्र हिरण्यगर्भ क्षेत्र । और हरी रेखा से अंकित क्षेत्र ईश्वर क्षेत्र कहलाता है । इस तरह ईश्वर ( चेतन पुरुष ) के ऊपर बहुत कुछ है । जो कल्पना से बहुत परे ही है ।
तुलसी रामायण में " वर " शब्द के दो प्रयोग । इसका अर्थ श्रेष्ठ और सुन्दर भी किसी स्थिति की पूर्णता को ही दर्शाता है ।
जौं बरषइ ( बर ) बारि बिचारू ।
इसमें यदि ( श्रेष्ठ ) विचार रूपी जल बरसता है ।
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित ( बर ) ताग ।
युक्ति से बेध कर फिर राम चरित्र रूपी ( सुंदर ) तागे में पिरोकर ।
और इसीलिये तो कहते हैं ।
यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम ।
स्वजनो श्वजनो माऽभूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत ।
- पुत्र ! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन पाते हो । तो भी व्याकरण ( अवश्य ) पढ़ो । ताकि " स्वजन " " श्वजन " ( कुत्ता ) न बने । और " सकल " ( सम्पूर्ण ) " शकल " ( टूटा हुआ ) न बने । तथा " सकृत " ( किसी समय ) " शकृत " ( गोबर का घूरा ) न बन जाय। )
अब इस पर भी आप विचार करें कि - आँखों के लिये मूल शब्द नेत्र ही सही है ।
आप सभी के अंतर में विराजमान सर्वात्म प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।
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धन्यवाद।
राम+ईशवर
रामेश्वर
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