ओशो - सबसे पहले तुम्हें अपने कैथलिक धर्म से बाहर निकलना चाहिए । वही असली गड़बड़ है । समलैंगिकता कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है । वास्तव में यह कोई समस्या ही नहीं है । यह तो मनुष्य की स्वतंत्रता का हिस्सा है । इसमें कुछ भी गलत नहीं है । अगर दो व्यक्ति एक विशेष तरह के लैंगिक सम्बन्ध को चुनते हैं । यह व्यक्तिगत मामला होना चाहिए । परंतु नेता और राजनीतिज्ञ प्रत्येक मामलों में अपनी टांग अड़ाते हैं । वे तुममें हीन भावना पैदा करते हैं । जो पूर्णतः अनावश्यक है । यदि दो पुरुष प्रेम में हैं । तो इसमें गलत क्या है ? किसी और को क्या हानि पहुंचा रहे हैं वे ? वास्तव में वे ज्यादा खुश दिखाई पड़ते हैं । बजाए विपरीत लिंगीयों से । तभी उन्हें गे कहा जाता है - खुशमिजाज । और यह आश्चर्यजनक है । मैंने कभी समलैंगिक महिलाओं को इतना प्रसन्न नहीं देखा । वे दुखी और गंभीर दिखाई पड़ती हैं । परंतु दो समलैंगिक पुरुष प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं । बहुत मधुर । सचमुच मधुर ।
मैं सोचता हूं । मामला क्या है ? क्यों समलैंगिक महिलाएं इतनी प्रसन्न नहीं हैं ? शायद वे सताए जाने का आनंद नहीं उठा सकतीं । जो कि शाश्वत आनंद रहा है - महिलाओं का । वास्तव में बिना सताए कोई धार्मिक हो ही नहीं सकता कभी । तुम्हारे सारे साधु संत प्रतिफल हैं सताए जाने का । सारे साधु संतों को कृतज्ञ होना चाहिए महिलाओं के प्रति । महिलाओं ने उन्हें प्रेरित किया है - धार्मिक होने के लिए ।
समलैंगिक महिलाएं खुश नहीं दिखाई पड़ती हैं । कुछ चूक रहा है । और वह जो चूक रहा है । वह यह कि वे संताप, यातना नहीं दे पा रही एक दूसरे को । वे परिपूर्ण रूप से समझती हैं एक दूसरे को । और वे इतने परिपूर्ण रूप से समझती हैं कि वहां कोई रहस्य है ही नहीं ।
आदमी मस्तिष्क में जीता है । और स्त्री ह्रदय से जीती है । और उसका ह्रदय तभी आनंदित होता है । जब उसे रहस्य मिले । ह्रदय को रहस्यों में आनंद मालूम होता हैं । जबकि मस्तिष्क को रहस्यों में कोई रुचि, कोई रस नहीं मालूम पड़ता । उसे रस है - समस्या में । पहेली में ।
कोई समस्या । कोई पहेली । और मस्तिष्क को रस आने लगता है । मस्तिष्क की पहुंच तार्किक है । एक पुरूष के लिए स्त्री बड़ी रहस्यमयी है । उससे संबन्धित होने के लिये पुरूष को अपने ह्रदय पर आना होगा । पर वह मस्तिष्क में जीता है । इसलिए स्त्री हमेशा एक परेशानी रही है पुरूषों के लिये । वह उसे समझ नहीं पाता । उसे समझ नहीं सकता । वह उसे वैसे भी नहीं समझ सकता । क्योंकि उसे एक रहस्य के साथ जीना है । जो कि एक सतत पीड़ा है उसके लिए । और वह उसकी समझ के बाहर है ।
लेकिन पुरुषों के साथ चीजें सरल हैं । क्योंकि वे दोनो तार्किक हैं । वे एक दूसरे की भाषा समझते हैं । तर्क समझते हैं । गणित और हिसाब समझते हैं । पुरूष एक नए प्रश्न की तरह है । जो हल किया जा सकता है । वह रहस्य की तरह नहीं है । वरन एक प्रश्न की तरह । एक समस्या - जो हल की जा सकती है । जिसे कि हल करना असंभव नहीं है । और यही उन्हें रोचक बनाए हुए हैं । एक दूसरे के प्रति । यही लुभाए हुए है उन्हें । इसलिए मैं देखता हूं कि समलैंगिक पुरूष प्रसन्न दिखाई देते हैं । और समलैंगिक महिलाएं दुखी ।
और एक बात और होती है । समलैंगिक पुरुष स्त्रैण हो जाते हैं । और उनमें एक अलग तरह की सुंदरता होती है । एक तरह का सौंदर्य होता है । समलैंगिक महिलाएं पुरूष की तरह हो जाती हैं । वे अपना स्त्रेण सौंदर्य खोने लगती हैं । वे मर्दाना, आक्रमक, कठोर होने लगती हैं । इसलिए यदि तुम स्त्री होते । तो यह एक समस्या हो सकती थी । और मैं तुम्हारी मदद करता इससे बाहर आने में । लेकिन तुम पुरूष हो । इसमें समस्या क्या है ? यदि तुम आनंदित हो एक पुरूष के साथ प्रेम संबध में । तो आनंदित होओ ।
समलैंगिकता कोई समस्या नहीं है । हमें अवास्तविक समस्याओं की बजाए वास्तविक समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए । बहुत सी वास्तविक समस्याएं हैं हल करने के लिए ।
और यह एक तरकीब है मनुष्य के दिमाग की । अवास्तविक समस्याओं को पैदा करना । ताकि तुम व्यस्त रहो उनको सुलझाने में । और वास्तविक समस्याएं बढ़ती जाती हैं । यह एक पुरानी राजनीति है । सभी राजनीतिज्ञ, पुरोहित, धार्मिक नेता तुम्हें झूठी समस्याएं बताते आ रहे हैं । ताकि तुम झूठी समस्याओं में ही व्यस्त रहो ।
समस्याएं अपने आप में इतनी अर्थहीन हैं । तु्म्हारी समस्याएं बिलकुल भी समस्याएं नहीं हैं । लेकिन समलैंगिकता के बारे में कितना उपद्रव चलता आ रहा है सदियों से । आज भी कुछ ऐसे देश हैं । जहां पर लोग मारे जा रहे हैं । हत्याएं हो रही हैं । क्योंकि वे समलैंगिक हैं । वे जेल भेजे जा रहे हैं । कितना असामान्य है यह । यह असामान्य दुनिया, और इसे कहते हो तुम - इक्कीसवीं सदी ?
समलैंगिकता बिलकुल भी कोई समस्या नहीं है । और भी हजारों वास्तविक समस्याएं हैं । लेकिन आदमी खिलौनों में उलझा रहता है ।
मेरा प्रयास है । तुम्हारा सारा ध्यान खिलौनों से हटा लेना । ताकि तुम जीवन की वास्तविक समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित कर सको । और जब तुम जीवन की वास्तविक समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित करोगे । तब वे सुलझाई जा सकती हैं ।
अब मैं यह नहीं देख पाता कि कैसे समलैंगिकता समस्या बन गयी है । समस्या तो सिर्फ एक ही है - तुम्हारा कैथलिक धर्म ।
एक सम्मानजनक परिवार बोसटान के बड़े बेटे रॉडनी ने अपने पिता को हैरानी में डाल दिया । जब उसने यह घोषणा की कि वह अपने बायफ्रेंड के साथ रहना चाहता है बोसटान हिल में ।
- क्या बेवकूफी है ? पिताजी ने कहा - हमारा परिवार संभ्रान्त परिवार है । आज तक खानदान में ऐसी शर्मनाक घटना नहीं घटी ।
- मैं बेबस हूं पिताजी । मैं उससे प्यार करता हूं । बेटा बोला ।
- समझने की कोशिश करो बेटा ! वह लड़का कैथलिक है ।
यह है वास्तविक समस्या । अपने कैथलिक धर्म से बाहर आओ । और जब मैं यह कह रहा हूं कि कैथलिक धर्म से बाहर आओ । तो मेरा मतलब है । अपनी बेवकूफी भरी धारणाओं से बाहर आओ । और जिंदगी को जीना शुरू करो । ऐसे जैसे कि तुम आदम और ईव हो - धरती पर । ओशो ।
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एक बाद याद रखो । मौन के अलावा, बाकी हर चीज तुम्हारी कल्पना मात्र है । वह कितनी ही सुंदर क्यों न हो । सिर्फ तुम्हारे मौन को मेरा समर्थन है । क्योंकि सिर्फ तुम्हारे मौन में तुम अस्तित्व के केंद्र के करीब होते हो । पूरी तरह मौन में । तुम स्वयं केंद्र बन जाते हो । लेकिन याद रखो । सभी तरह की कल्पनाएं । सभी कल्पनाएं । सुंदर कल्पनाएं भी । ऊपर ऊपर से दिव्य दिखने वाली कल्पनाओं को भी एक तरफ कर दो - ओशो ।
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मैं अपने लोगों को आनंदोत्सव पूर्वक, मस्ती पूर्वक जीने के लिए तैयार कर रहा हूं । तो जब मैं अपने शरीर में न रहूंगा । उससे उनको कोई फर्क न पड़ेगा । वे तब भी उसी ढंग से जीएंगे । और हो सकता है । मेरी मृत्यु उनमें और भी त्वरा ला दे - ओशो ।
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सदगुरु से जब वचन निकले । तो उसे तत्क्षण खोल लेना । उसमें एक क्षण की भी देरी खतरनाक है । जब वह गर्म गर्म हो तभी खोल लेना । जब उसकी ऊष्मा समाप्त न हो गई हो । जब मैं तुम्हें दे रहा हूं कुछ । तो वह गर्म है । ताजा है । तुम उसे रखकर मत बैठ जाना । तुम जाकर अपने फ्रिज में मत रख देना कि जब सुविधा होगी । तब खोल लेंगे । जब जरूरत होगी । तब निकाल लेंगे । वह मर जाएगा । उसकी ऊष्मा खो जाएगी । प्राण पखेरू जा चुके होंगे । देह पड़ी रह जाएगी ।
सत्य की पड़ी हुई देहों का नाम ही - शास्त्र है । फिर तुम सिर पर रखो गीता और कुरान और बाइबिल । और लाख करो पूजा । और लाख पटको सिर । चढाओ फूल । अर्चना - सब व्यर्थ है । सब बिलकुल व्यर्थ है । इस आयोजन से अब कुछ होने वाला नहीं ।
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तुम्हें अपने अकेलेपन को स्वीकारना होगा । जिसे तुम किसी भी तरह से टाल नहीं सकते । और इसके स्वभाव को बदलने का कोई मार्ग नहीं है । यह प्रामाणिक वास्तविकता है - ओशो ।
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भारत एक खोज । असली भारत मनुष्य की आत्मा की खोज है । भूगोल नहीं । राजनीतिक इतिहास नहीं । बल्कि अंतर यात्रा । ध्यान की यात्रा ही असली भारत है । महावीर इसका प्रतिनिधित्व करते है । बुद्ध इसका प्रतिनिधित्व करते है । नानक, कृष्णा, गोरख, क्राइस्ट, रैदास..। लाखों लाखों नाम है । सच मायनों में वे ही असली भारत का प्रतिनिधित्व करते है । और मेरे पास उन सबकी धरोहर है । और उससे अधिक भी । इंडिया इस देश का असली नाम नहीं है । यह दिया गया है । असली नाम है - भारत । यह नाम एक बहुत महान सम्राट का था । जो अपने राज को त्याग कर संन्यासी हो गया था । यह एक पूर्व ऐतिहासिक बात है । इसलिए इसका कोई इतिहास नहीं है । संभवत: लगभग दस हजार वर्ष पहले रहा होगा । लेकिन देश का यह नाम एक संन्यासी से जुड़ा था । यह भारत के ह्रदय की आधारभूत आंतरिकता रही है । इसने कभी सम्राटों का सम्मान नहीं किया है । इसने संन्यासियों को सम्मान किया है । इसने कभी धनी लोगों का सम्मान नहीं किया है । इसने व्यक्तियों का, चेतनताओं का तथा अध्यात्म का सम्मान किया है - ओशो ।
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कबीर कहते हैं - अवधू गगन मंडल घर कीजे । उस शून्य में घर बना लो । तुम ही आकाश में रहने लगो । खोल दो मुट्ठी । आकाश तुम्हारे भीतर भी है । बाहर भी है । तुम बंद न रहो । तुम जब खुले हो । मुक्त हो । वही अवस्था ध्यान की है - ओशो ।
कबीर का घर शिखर पर जहाँ सिलबिली गैल ।
पिपीलका रपटे जहाँ तू लादे है वैल ।
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बुद्ध होने से ही कोई दिखाई नहीं पड़ता । जब तक कि बुद्धत्व को अभिव्यक्ति न दे । जब तक कि बुद्धत्व को बोले न । जब तक कि बुद्धत्व को गुनगुनाए नहीं । गीत न बनाए । जब तक कि बुद्धत्व को बांधे नहीं छंद और मात्रा में । जब तक कि बुद्धत्व को दूसरे तक पहुंचाए नहीं । जब तक बुद्धत्व सवांदित न हो । तब तक पता कैसे चले ? और जब तक मैं जीवित हूँ । तब तक ये बोलेंगे भी नहीं । क्योंकि ये कहते हैं । जब आप मौजूद हैं । तो हम बोलें क्या ? आपकी मौजूदगी में क्या बोलें ? इनमें बहुत पहुंच गए हैं । बहुत तो बोलेंगे भी नहीं । क्योंकि बोलना एक अलग कुशलता है । पा लेना एक बात है - ओशो ।
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दुनिया में ज्ञानी तो बहुत होते हैं । सदगुरु बहुत नहीं । सदगुरु का अर्थ है - जिसने जाना । और जो ऐसी कुशलता से कह देता है कि सत्य का कुछ अंश तो पहुंच ही जाए तुम तक । शिष्य तक कुछ पहुंच जाए । ऐसी कुशलता का नाम सदगुरु है । ज्ञानी तो बहुत होते हैं ।
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मज्जा बने । तुम्हारा प्राण बने - तो श्रद्धा । श्रद्धा का अर्थ है - पचाया हुआ । विश्वास का अर्थ है - अनपचा । विश्वास बोझ हो जाता है । श्रद्धा मुक्ति लाती है ।
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एक फूल का खिल जाना ही । उपवन का मधुमास नहीं है ।
और एक पहरे का सो जाना ही । मुक्ति का आभास नहीं है ।
जियत मुक्त सो मुक्ता भाई । मरकर मुक्ति किसने पाई ?
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बुद्ध को किसी ने पूछा है एक दिन कि ये दस हजार भिक्षु हैं तुम्हारे ।
वर्षों से तुम्हारे साथ हैं । जीवन अर्पित किया है । साधना की है । साधना में लगे हैं । इनमें से कितने बुद्धत्व को उपलब्ध हुए ? बुद्ध ने कहा - इनमें से बहुत उपलब्ध हुए हैं । बहुत उपलब्ध हो रहे हैं । बहुत उपलब्ध होने के मार्ग पर हैं । कुछ चल पड़े हैं । कुछ पहुंचने के करीब हैं । कुछ पहुंच भी गए हैं ।
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मैं तुमसे भी कहता हूं - मुझे सुनो । लेकिन सुन लेना काफी नहीं है । सुनते सुनते जागो । जो सुनो । उसको पकड़ कर मत बैठ जाना । नहीं तो पिंजरा हाथ लगेगा । पक्षी उड़ जाएगा । या मर जाएगा । जो सुनो । उसे जल्दी खोल लेना । गुन लेना ।
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भारतीय पुरुष ध्यान के वक्त सुंदर स्त्रियों को आड़ी टेड़ी निगाहों से ताका करते थे । और विदेशी पुरुष सहजता से ध्यान में प्रवेश कर जाते थे । क्योंकि उन्होंने स्त्री को भोग लिया । और जाना कि ध्यान में जो आनंद है । वो स्त्री में कहाँ ? इसलिए उन्हें ध्यान में जाने में कोई परेशानी नहीं होती थी । न बाहर से । और न भीतर से । दमित चित वाला तो भीतर ध्यान में जायगा भी । तो सेक्स के विचार पहले पकड़ेंगे उसे । क्योंकि ध्यान तुम्हें पहले उस चीज से मिलवाता है । जो तुमने दबाया है - ओशो ।
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