मीरा छोटी थी । चार पांच साल की रही होगी । तब एक साधु मीरा के घर मेहमान हुआ । और जब सुबह साधु ने उठकर अपनी मूर्ति । कृष्ण की मूर्ति छुपाए था अपनी गुदड़ी में । निकाल कर जब उसकी पूजा की । तो मीरा एकदम पागल हो गई । देजावुह हुआ । पूर्वभव का स्मरण आ गया । वह मूर्ति कुछ ऐसी थी कि चित्र पर चित्र खुलने लगे । वह मूर्ति जो थी । शुरुआत हो गई । फिर से कहानी की निमित्त बन गई । उससे चोट पड़ गई । कृष्ण की मूरत फिर याद आ गई । फिर वह सांवला चेहरा । वे बड़ी आंखें । वे मोर मुकुट में बंधे । वे बांसुरी बजाते कृष्ण । मीरा लौट गई हजारों साल पीछे अपनी स्मृति में । रोने लगी । साधु से मांगने लगी मूर्ति । लेकिन साधु को भी बड़ा लगाव था अपनी मूर्ति से । उसने मूर्ति देने से इनकार कर दिया । वह चला भी गया । मीरा ने खाना पीना बंद दिया । पंडितों के लिए यह प्रमाण नहीं होता कि इससे कुछ प्रमाण है - देजावुह का । लेकिन मेरे लिए प्रमाण है । चार पांच साल की बच्ची । हां, बच्चे कभी कभी खिलौनों के लिए भी तरस जाते हैं । लेकिन घड़ी दो घड़ी में भूल जाते हैं । दिन भर बीत गया । न उसने खाना खाया । न पानी पीया । उसकी आंखों से आंसू बहते रहे । वह रोती ही रही । उसके घर के लोग भी हैरान हुए कि अब क्या करें ? साधु तो गया भी । कहां उसे खोजें ? और वह देगा । इसकी भी संभावना कम है । और वह कृष्ण की मूरत जरूर ही बड़ी प्यारी थी । घर के लोगों को भी लगी थी । उन्होंने भी बहुत मूर्तियां देखी थीं । मगर उस मूर्ति में कुछ था - जीवंत । कुछ था जागता हुआ । उस मूर्ति की तरंग ही और थी । जरूर किसी ने गढ़ी होगी प्रेम से । व्यवसाय के लिए नहीं । किसी ने गढ़ी होगी - भाव से । किसी ने अपनी सारी प्रार्थना, अपनी सारी पूजा उसमें ढाल दी होगी । या किसी ने, जिसने कृष्ण को कभी देखा होगा । उसने गढ़ी होगी । मगर बात कुछ ऐसी थी । मूर्ति कुछ ऐसी थी कि मीरा भूल ही गई । इस जगत को भूल ही गई । वह तो उस मूर्ति को लेकर रहेगी । नहीं तो मर जाएगी । यह विरह की शुरुआत हुई - चार पांच साल की उम्र में ।
रात उस साधु ने सपना देखा । दूर दूसरे गांव में जाकर सोया था । रात सपना आया । कृष्ण खड़े हैं । उन्होंने कहा कि - मूर्ति जिसकी है । उसको लौटा दे । तूने रख ली, बहुत दिन तक । यह अमानत थी । मगर यह तेरी नहीं है । अब तू नाहक मत ढो । तू वापस जा । मूर्ति उस लड़की को दे दे । जिसकी है । उसको दे दे । उसकी थी । तेरी अमानत पूरी हो गई । तेरा काम पूरा हो गया । यहां तक तुझे पहुंचाना था । वहां तक पहुंचा दिया । अब खतम हो गई । मूर्ति उसकी है । जिसके हृदय में मूर्ति के लिए प्रेम है । और किसकी मूर्ति ? साधु तो घबड़ा गया । कृष्ण तो कभी उसे दिखाई भी न पड़े थे । वर्षों से प्रार्थना पूजा कर रहा था । वर्षों से इसी मूर्ति को लिए चलता था । फूल चढ़ाता था । घंटी बजाता था । कृष्ण कभी दिखाई न पड़े थे । वह तो बहुत घबड़ा गया । वह तो आधी रात भागा हुआ आया । आधी रात आकर जगाया । और कहा - मुझे क्षमा करो । मुझसे भूल हो गई । इस छोटी सी लड़की के पैर पड़े । इसे मूर्ति देकर वापस हो गया । यह जो चार पांच साल की उम्र में घटना घटी । इससे फिर से दृश्य खुले । फिर प्रेम उमगा । फिर यात्रा शुरू हुई । यह मीरा के इस जीवन में कृष्ण के साथ पुनर्गठबंधन की शुरुआत है । मगर यह नाता पुराना था । नहीं तो बड़ा कठिन है । कृष्ण को देखा न हो । कृष्ण को जाना न हो । कृष्ण की सुगंध न ली हो । कृष्ण का हाथ पकड़ कर नाचे न हो ओ । तो लाख उपाय करो । तुम कृष्ण को कभी जीवंत अनुभव न कर सकोगे ।
इसलिए जीता सदगुरु ही सहयोगी होता है । तुम भी कृष्ण की मूर्ति रख कर बैठ सकते हो । मगर तुम्हारे भीतर भाव का उद्रेक नहीं होगा । भाव के उद्रेक के लिए तुम्हारी अंतर कथा में कोई संबंध चाहिए कृष्ण से । तुम्हारी अंतर कथा में कोई समानांतर दशा चाहिए । मीरा का भजन तुम भी गा सकते हो । लेकिन जब तक कृष्ण से तुम्हारा कुछ अंतर नाता न हो । तब तक भजन ही रह जाएगा । जुड़ न पाओगे । हृदय हृदय न मिलेगा । सेतु न बनेगा । वह चार पांच वर्ष की उम्र में घटी छोटी सी घटना । सांयोगिक घटना । और क्रांति हो गई । मीरा मस्त रहने लगी । जैसे एक शराब मिल गई । दो वर्ष बाद पड़ोस में किसी का विवाह हुआ । और यह सात आठ साल की लड़की ने पूछा अपनी मां को - सबका विवाह होता है । मेरा कब होगा ? और मेरा वर कौन है ? और मां ने तो ऐसे ही मजाक में कहा - क्योंकि वह उस वक्त भी कृष्ण की मूर्ति को छाती से लगाए खड़ी थी कि तेरा वर कौन है ? यह गिरधर गोपाल । यह गिरधर लाल । यही तेरे वर हैं । और क्या चाहिए ? यह तो मजाक में ही कहा था । मां को क्या पता था कि कभी कभी मजाक में कही गई बात भी क्रांति हो जा सकती है । और क्रांति हो गई । और कभी कभी कितनी ही गंभीरता से तुमसे कहा जाए । कुछ भी नहीं होता । क्योंकि तुम्हारे भीतर कुछ छूता ही नहीं । हो तो छुए । बीज को पत्थर पर फेंक दोगे । तो अंकुरित नहीं होता । ठीक भूमि मिल जाए । तो अंकुरित हो जाता है । वह ठीक भूमि थी । मां को भी पता नहीं था । सोचती थी कि बच्चे का खिलवाड़ है । कृष्ण एक खिलौना हैं । मिल गए हैं इसको । सुंदर मूर्ति है, माना । तो नाचती गुनगुनाती रहती है । ठीक है । अपने उलझी रहती है । कुछ हर्जा भी नहीं है । मजाक में ही कहा था कि - तेरे तो और कौन पति । ये गिरिधर गोपाल हैं । ये नंदलाल हैं । मगर उसका मन उसी दिन भर गया । यह बात हो गई । कभी कभी संयोग महारंभ बन जाते हैं - महा प्रस्थान के पथ पर । उसने तो मान ही लिया । वह छोटा सा भोला भाला मन । उसने मान लिया कि यही उसके पति हैं । फिर क्षण भर को भी यह बात डगमगाई नहीं । फिर क्षण भर को भी यह बात भूली नहीं । असल में बचपन में अगर कोई भाव बैठ जाए । तो बड़ा दूरगामी होता है । यह बात बैठ गई । उस दिन से उसने अपना सारा प्रेम, कृष्ण पर उंडेल दिया । जितना तुम प्रेम उडेलोगे । उतने ही कृष्ण जीवित होते चले गए । पहले अकेली बात करती थी । फिर कृष्ण भी बात करने लगे । पहले अकेली डोलती थी । फिर कृष्ण भी डोलने लगे । यह नाता भक्त का और मूर्ति का न रहा । भक्त और भगवान का हो गया ।
और इसके बाद कुछ घटनाएं घटीं । जो खयाल में ले लेनी चाहिए । जो महत्वपूर्ण हैं । मीरा पर जिन लोगों ने किताबें लिखी हैं । वे सब लिखते हैं । दुर्भाग्य से मीरा की मां मर गई । जब वह बहुत छोटी थी । फिर उसके बाबा ने उसे पाला । फिर बाबा मर गए । फिर सत्रह अठारह साल की उम्र में उसका विवाह किया गया । फिर उसके पति मर गए । फिर ससुर ने उसकी सम्हाल की । और फिर ससुर भी मर गए । फिर पिता उसकी देखभाल किए । फिर पिता भी मर गए । ऐसी पांच मृत्युएं हुईं । जब मीरा कोई बत्तीस त्तैंतीस साल की थी । तब तक उसके जीवन में जो भी महत्वपूर्ण व्यक्ति थे । सभी मर गए । जिनको भी उसने चाहा था । और प्रेम किया था । वे सब मर गए । जो लोग मीरा पर किताबें लिखते हैं । वे सब लिखते हैं - दुर्भाग्य से । मैं ऐसा नहीं कह सकता । यह सौभाग्य से ही हुआ । वे लिखते हैं - दुर्भाग्य से । क्योंकि मृत्यु को सभी लोग दुर्भाग्य मानते हैं । लेकिन यही तो मीरा के जन्म का कारण बना । जितना भी प्रेम कहीं था । वह सब सिकुड़ता गया । सारा प्रेम गोपाल पर उमड़ता गया । मां से लगाव था । मां चल बसी । उतना प्रेम जो मां से उलझा था । वह भी गोपाल के चरणों में रख दिया । फिर बाबा ने पाला । फिर बाबा चल बसे । उनसे प्रेम था । वह भी गोपाल के चरणों में रख दिया । ऐसे संसार छोटा होता गया । सिकुड़ता गया । और परमात्मा बड़ा होता गया । तो मैं नहीं कह सकता - दुर्भाग्य से । मैं तो कहूंगा - सौभाग्य से । क्योंकि मृत्यु का मेरे लिए कोई ऐसा भाव नहीं है । मृत्यु के प्रति कि वह कोई आवश्यक रूप से अभिशाप है । सब तुम पर निर्भर है । मीरा ने उसका ठीक उपयोग कर लिया । जहां जहां से प्रेम उखड़ता गया । एक एक प्रेम पात्र जाने लगा । वह अपने उस प्रेम को परमात्मा में चढ़ाने लगी । अंतिम सूत्र था - पिता का रहना । पिता भी चल बसे । पति भी चल बसे । पिता भी चल बसे । पांच मृत्युएं हो गईं सतत । जगत से सारा संबंध टूट गया । उसने ठीक उपयोग कर लिया । जगत से टूटते हुए संबंधों को उसने जगत के प्रति वैराग्य बना लिया । और जगत से जो प्रेम मुक्त हो गया । उसको परमात्मा के चरणों में चढ़ा दिया । वह कृष्ण के राग में डूब गई । और इन मृत्युओं ने एक और सौभाग्य का काम किया, कि इन्होंने एक बात दिखा दी कि इस जगत में सब क्षणभंगुर है । अगर प्यारा खोजना हो । तो शाश्वत में खोजो । यहां कुछ अपना नहीं है । यहां भरमो मत । अपने को भरमाओ मत । यहां सब छूट जाने वाला है । यहां मृत्यु ही मृत्यु फैली है । यहां मरघट है । यहां बसने के इरादे मत करो । यहां कोई कभी बसा नहीं । अपनी आंख से देखा सबको जाते उसने । बत्तीस त्तैंतीस साल की उम्र कोई बड़ी उम्र नहीं । जवान थी । जवानी में इतनी मौत घटीं कि मौत का कांटा उसे ठीक ठीक साफ साफ दिखाई पड़ गया कि जीवन क्षणभंगुर है । और तब उसका मन यहां से विरक्त हो गया ।
जो यहां से विरक्त है । वही परमात्मा में अनुरक्त हो सकता है । तुम दोनों राग एक साथ नहीं पाल सकते हो । तुम दो नावों पर एक साथ सवार नहीं हो सकते हो । तो जब मैंने तुमसे कहा - आओ, प्रेम की झील में नौका विहार को चलें । तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं । अब तुम अपनी संसार की नाव से उतरो । अब परमात्मा को नाव बनाओ । आओ, प्रेम के गौरीशंकर पर चढ़ें । तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं । अपनी अंधेरी घाटियों से लगाव छोड़ो । वहां मृत्यु के सिवाय और कोई भी नहीं है । जिन्हें तुमने घर समझा है । वह मरघट है । जिन्हें तुमने अपना समझा है । साथ हो गया है दो क्षण का । राह पर सब अजनबी हैं । आज नहीं कल सब छुट जाएंगे । तुम अकेले आए हो । और अकेले जाओगे । और तुम अकेले हो । इस जगत में सिर्फ एक ही संबंध बन सकता है । और वह संबंध परमात्मा से है । शेष सारे संबंध बनते हैं । और मिट जाते हैं । सुख तो कुछ ज्यादा नहीं लाते । दुख बहुत लाते हैं । सुख की तो केवल आशा रहती है । मिलता कभी नहीं है । अनुभव तो दुख ही दुख का होता है । ये जो पांच मृत्युएं थीं । ये पांच सीढ़ियां बन गईं । और एक एक मृत्यु मीरा को संसार से विमुख करती गई । और कृष्ण के सन्मुख करती गई । इधर पीठ हो गई संसार की तरफ । कृष्ण की तरफ मुंह हो गया । धीरे धीरे, पहले तो मीरा घर में ही नाचती थी । अपने कृष्ण की प्रतिमा पर । फिर बाढ़ की तरह उठने लगा प्रेम । फिर घर उसे नहीं समा सका । फिर गांव के मंदिरों में । साधु सत्संगों में । वहां भी नाचने लगी । फिर प्रेम इतना बाढ़ की तरह आना शुरू हुआ कि उसे होश हवास न रहा । वह मगन हो गई । वह तल्लीन हो गई । वह कृष्णमय हो गई । स्वभावतः राजघराने की महिला थी । प्रतिष्ठित परिवार से थी । परिवार को अड़चन आई । परिवार को अड़चन सदा आ जाती है । समाज में हजार तरह की बातें चलने लगीं । क्योंकि यह लोकलाज के बाहर थी बात । तुम सोच सकते हो । राजस्थान पांच सौ साल पहले । जहां घूंघट के बाहर स्त्रियां नहीं आती थीं । जिनका चेहरा कभी लोग नहीं देखते थे । फिर राजघराने की तो और कठिन थी बात । और वह रास्तों पर नाचने लगी । साधारण जनों के बीच नाचने लगी । यद्यपि वह नाच परमात्मा के लिए था । फिर भी घर के लोगों को तो नाच नाच था । उनको तो कुछ फर्क नहीं था । फिर उसके निकटतम जो लोग थे । वे जा चुके थे । उसका देवर गद्दी पर था । जहां जहां मीरा उल्लेख करेगी कि राणा ने जहर भेजा, कि राणा ने सांप की पिटारी भेजी, कि राणा ने सेज पर कांटे बिछवा दिए । उस राणा से याद रखना । उसके देवर की तरफ इशारा है । उसके पति तो चल बसे थे ।
उसके देवर थे - विक्रमाजीत सिंह । वह क्रोधी किस्म का युवक था । दुष्ट प्रकृति का युवक था । और उसकी यह बरदाश्त के बाहर था । और उसे मीरा की प्रतिष्ठा भी बरदाश्त के बाहर थी । मीरा इतनी प्रतिष्ठित हो रही थी । दूर दूर से लोग आने लगे थे । साधारण जन तो आते थे ही उसके दर्शन को । संत, साधु, ख्याति उपलब्ध लोग दूर दूर से मीरा की खबर सुनकर आने लगे थे । वह सुगंध उड़ने लगी थी । वह सुगंध कस्तूरी की तरह थी । जिनको भी नासापुटों में थोड़ा अनुभव था कस्तूरी की गंध का । वे चल पड़े थे । यह बड़ी हैरानी की बात है । देश के कोने कोने से लोग आ रहे थे । लेकिन परिवार के अंधे लोग न देख पाए । असल में इन लोगों का आना उन्हें और अड़चन का कारण हो गया । मीरा की प्रतिष्ठा उनके अहंकार को चोट करने लगी । जो राणा गद्दी पर था । वह सोचता था कि मुझसे भी ऊपर कोई मेरे परिवार में हो । यह बरदाश्त के बाहर है । फिर हजार बहाने मिल गए । और बहाने सब तर्कयुक्त थे । उनमें कभी भूल नहीं खोजी सकती कि यह साधारण जनों में मिलने लगी है । घूंघट उघाड़ दिया है । रास्ते पर नाचती है । नाच में कभी वस्त्रों का भी ध्यान नहीं रह जाता । यह अशोभन है । यह राजघर की महिला को शुभ नहीं है । लेकिन जो कहानियां हैं । वे खयाल में लेना । जहर भेजा । और मीरा उसे कृष्ण का नाम लेकर पी गई । और कहते हैं । जहर अमृत हो गया । हो ही जाना चाहिए । होना ही पड़ेगा ।
इतने प्रेम से, इतने स्वागत से अगर कोई जहर भी पी ले । तो अमृत हो ही जाएगा । और अगर तुम क्रोध से, हिंसा से, घृणा से, वैमनस्य से अमृत भी पीओ । तो जहर हो जाएगा । खयाल रखना । ऐसा इतिहास में हुआ या नहीं । मुझे प्रयोजन नहीं है । मैं तो इसके भीतर की मनोवैज्ञानिक घटना को तुमसे कह देना चाहता हूं । क्योंकि उसी का मूल्य है । अगर तुम्हारा पात्र भीतर से बिलकुल शुद्ध है । निर्मल है । निर्दोष है । तो जहर भी तुम्हारे पात्र में जाकर निर्मल और निर्दोष हो जाएगा । और अगर तुम्हारा पात्र गंदा है । कीड़े मकोड़ों से भरा है । और हजारों साल और हजारों जिंदगी की गंदगी इकट्ठी है । तो अमृत भी डालोगे । तो जहर हो जाएगा । सब कुछ तुम्हारी पात्रता पर निर्भर है । अंततः निर्णायक यह बात नहीं है कि जहर है या अमृत । अंततः निर्णायक बात यही है कि तुम्हारे भीतर स्थिति कैसी है । तुम्हारे भीतर जो है । वही अंततः निर्णायक होता है । मीरा ने देखा ही नहीं कि जहर है । सोचा ही नहीं कि जहर है । राणा ने भेजा है । तो जो मिलता है । प्रभु ही भेजने वाला है । राणा के पीछे भी वही भेजने वाला है । उसके अतिरिक्त तो कोई भी नहीं है । तो अमृत ही होगा । वह अमृत मानकर पी गई । यह मान्यता इतना फर्क कर सकती है ?
तुम सम्मोहनविद से पूछोगे । तो वह कहेगा - हां । सम्मोहनविद ही जानता है कि मनुष्य के मन के काम करने की प्रक्रिया क्या है । अगर किसी व्यक्ति को सम्मोहित कर दिया जाए । और उसके हाथ में आग का अंगारा रख दिया जाए । और सम्मोहित दशा में उससे कहा जाए कि एक ठंडा कंकड़ तुम्हारे हाथ में रखा है । तो आग का अंगारा भी उसे जलाता नहीं । क्योंकि उसका मन इस बात को स्वीकार करता है कि ठंडा कंकड़ है । अंगारा रखा रहता हाथ पर । और चमत्कार घटित हो जाता । हाथ जलता नहीं । इस पर हजारों प्रयोग हो गए हैं । इसी तरह तो लोग आग पर चलते हैं । और जलते नहीं । वह भाव की दशा है । और इससे उलटी बात भी हो जाती है । सम्मोहित व्यक्ति के हाथ में उठाकर एक कंकड़ रख दो - साधारण कंकड़, ठंडा कंकड़ । और उससे कहो कि जलता हुआ कोयला रखा है तुम्हारे हाथ पर । वह एकदम फेंक देगा घबड़ा कर । वह बेहोश है । वह एकदम फेंक देगा घबड़ा कर । और चमत्कार तो यह है कि उसके हाथ पर फफोला आ जाएगा । जैसे कि वह जल गया । जलने के पूरे लक्षण हो जाएंगे । इन घटनाओं में, जो संतों के जीवन में भरी पड़ी हैं ।
मैं इसी मनोवैज्ञानिक सत्य की उदघोषणा देखता हूं । मीरा ने स्वीकार कर लिया जहर अमृत की तरह । तो अमृत हो गया । तुम जैसा जगत को स्वीकार कर लोगे । वैसा ही हो जाता है । यह जगत तुम्हारी स्वीकृति से निर्मित है । यह जगत तुम्हारी दृष्टि का फैलाव है । सांप एक पिटारी में रखकर भेज दिया - जहरीला सांप । उसने पिटारी खोली । और उसे तो सांवले कृष्ण ही दिखाई पड़े । उसने उठाकर उन्हें गले से लगा लिया । उस सांप ने मीरा को काटा नहीं । सांप इतने अभद्र होते भी नहीं । जितना मनुष्य होता है । सांप इतने जड़ होते भी नहीं । जितना मनुष्य होता है । मीरा का उसे प्रेम से अपने गले से लगा लेना । सांप को भी समझ में आ गया होगा कि यहां कोई शत्रु नहीं, मित्र है । सांप भी तभी हमला करता है । जब कोई शत्रु हो । जो कोई चोट पहुंचाने को उत्सुक हो । तभी हमला करता है । नहीं तो हमला नहीं करता । हमला तो सुरक्षा के लिए है । आत्मरक्षा के लिए है । सांप को तुमसे कोई दुश्मनी नहीं है । तुम कभी सांप पर पैर रख दो । या मारने की इच्छा करो तो । और तब तो लोग कहते हैं कि, सांप ऐसा होता है कि अगर एक दफे तुमने उससे दुश्मनी ले ली । तो जिंदगी भर तुमसे बदला लेने की कोशिश करता है । भूलता ही नहीं । उसकी स्मृति बड़ी मजबूत है । लेकिन मीरा ने जब उसे प्रेम से गले लगा लिया होगा । तो उस तरंग को उसने भी समझा होगा । उस प्रेम में वह भी डूबा होगा । इस स्त्री को काटा नहीं जा सकता । समझ लें ।
फिर से दोहरा दूं । इतिहास से मुझे प्रयोजन नहीं है । इतिहास से भी ज्यादा मूल्यवान है । इन घटनाओं के पीछे छिपा हुआ मन सत्तत्व । क्योंकि वही तुम समझोगे । तो काम का है । और चमत्कार भी इनमें कुछ नहीं है । ये चमत्कार दिखाई पड़ते हैं । क्योंकि इनके पीछे का नियम हमारी समझ में नहीं आता । नियम सीधा साफ है । तुम जैसे हो । करीब करीब यह जगत तुम्हारे लिए वैसा ही हो जाता है । तुम अगर प्रेमपूर्ण हो । तो प्रेम की प्रतिध्वनि उठती है । और तुमने अगर परमात्मा को सर्वांग मन से स्वीकार कर लिया है । सर्वांगीण रूप से । तो फिर इस जगत में कोई, कोई हानि तुम्हारे लिए नहीं है । लेकिन यह बात बहुत घटी । और उसका मीरा का रहना गांव में मुश्किल हो गया । तो उसने राजस्थान छोड़ दिया । वह वृंदावन चली गई । अपने प्यारे की बस्ती में चलें - उसने सोचा । कृष्ण के गांव चली गई । लेकिन वहां भी झंझटें शुरू हो गईं । क्योंकि कृष्ण तो अब वहां नहीं थे । कृष्ण के गांव पर पंडितों का कब्जा था - ब्राह्मण, पंडित-पुरोहित । बड़ी प्यारी घटना है । जब मीरा वृंदावन के सबसे प्रतिष्ठित मंदिर में पहुंची । तो उसे दरवाजे पर रोकने की कोशिश की गई । क्योंकि उस मंदिर में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था । क्योंकि उस मंदिर का जो महंत था । वह स्त्रियां नहीं देखता था । वह कहता था - ब्रह्मचारी को स्त्री नहीं देखनी चाहिए । तो वह स्त्रियां नहीं देखता था । मीरा स्त्री थी । तो रोकने की व्यवस्था की गई थी । लेकिन जो लोग रोकने द्वार पर खड़े थे । वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए । जब मीरा नाचती हुई आई । अपने हाथ में अपना एकतारा लिए बजाती हुई आई । और जब उसके पीछे भक्तों का हुजूम आया । और शराब छलकती चारों तरफ । और सब मदमस्त । उस मस्ती में । वे जो द्वारपाल खड़े थे । वे भी ठिठक कर खड़े हो गए । वे भूल ही गए कि रोकना है । तब तक तो मीरा भीतर प्रविष्ट हो गई । हवा की लहर थी एक । भीतर प्रविष्ट हो गई । पहुंच गई बीच मंदिर में । पुजारी तो घबड़ा गया । पुजारी पूजा कर रहा था कृष्ण की । उसके हाथ से थाल गिर गया । उसने वर्षों से स्त्री नहीं देखी थी । इस मंदिर में स्त्री का निषेध था । यह स्त्री यहां भीतर कैसे आ गई ? अब तुम थोड़ा सोचना । द्वार पर खड़े द्वारपाल भी डूब गए भाव में । पुजारी न डूब सका । नहीं, पुजारी इस जगत में सबसे ज्यादा अंधे लोग हैं । और पंडितों से ज्यादा जड़ बुद्धि खोजने कठिन हैं । द्वार पर खड़े द्वारपाल भी डूब गए इस रस में । यह जो मदमाती, यह जो अलमस्त मीरा आई । यह जो लहर आई । इसमें वे भी भूल गए । क्षण भर को भूल ही गए कि हमारा काम क्या है । याद आई होगी । तब तक तो मीरा भीतर जा चुकी थी । वह तो बिजली की कौंध थी । तब तक तो एकतारा उसका भीतर बज रहा था । भीड़ भीतर चली गई थी । जब तक उन्हें होश आया । तब तक तो बात चूक गई थी । लेकिन पंडित नहीं डूबा । कृष्ण के सामने मीरा आकर नाच रही है । लेकिन पंडित नहीं डूबा । उसने कहा - ऐ औरत ! तुझे समझ है कि इस मंदिर में स्त्री का निषेध है ? मीरा ने सुना । मीरा ने कहा - मैं तो सोचती थी कि कृष्ण के अतिरिक्त और कोई पुरुष है नहीं । तो तुम भी पुरुष हो ? मैं तो कृष्ण को ही बस पुरुष मानती हूं । और तो सारा जगत उनकी गोपी है । उनके ही साथ रास चल रहा है । तो तुम भी पुरुष हो ? मैंने सोचा नहीं था कि दो पुरुष हैं । तो तुम प्रतियोगी हो ? वह तो घबड़ा गया । पंडित तो समझा नहीं कि अब क्या उत्तर दें । पंडितों के पास बंधे हुए प्रश्नों के उत्तर होते हैं । लेकिन यह प्रश्न तो कभी इस तरह उठा ही नहीं था । किसी ने पूछा ही नहीं था । यह तो कभी किसी ने मीरा के पहले कहा ही नहीं था कि दूसरा भी कोई पुरुष है ? यह तो हमने सुना ही नहीं । तुम भी बड़ी अजीब बात कर रहे हो । तुमको यह वहम कहां से हो गया ? एक कृष्ण ही पुरुष हैं । बाकी तो सब उसकी प्रेयसियां हैं । लेकिन अड़चनें शुरू हो गईं । इस घटना के बाद मीरा को वृंदावन में नहीं टिकने दिया गया । संतों के साथ हमने सदा दुर्व्यवहार किया है । मर जाने पर हम पूजते हैं । जीवित हम दुर्व्यवहार करते हैं । मीरा को वृंदावन भी छोड़ देना पड़ा । फिर वह द्वारिका चली गई ।
वर्षों के बाद राजस्थान की राजनीति बदली । राजा बदला । राणा सांगा का सबसे छोटा बेटा राजा उदय सिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा । वह राणा सांगा का बेटा था । और राणा प्रताप का पिता । उदयसिंह को बड़ा भाव था मीरा के प्रति । उसने अनेक संदेशवाहक भेजे कि मीरा को वापस लिवा लाओ । यह हमारा अपमान है । यह राजस्थान का अपमान है कि मीरा गांव गांव भटके । यहां वहां जाए । यह लांछन हम पर सदा रहेगा । उसे लिवा लाओ । वह वापस लौट आए । हम भूल चूकों के लिए क्षमा चाहते हैं । जो अतीत में हुआ, हुआ । गए लोग । पंडितों को भेजा । पुरोहितों को भेजा । समझाने बुझाने । लेकिन मीरा सदा समझा कर कह देती कि अब कहां आना जाना । अब इस प्राण प्यारे के मंदिर को छोड़कर कहां जाएं ? वह रणछोड़ दास जी के मंदिर में द्वारिका में मस्त थी । फिर तो उदयसिंह ने बहुत कोशिश की । एक सौ आदमियों का जत्था भेजा । और कहा कि किसी भी तरह ले आना । न आए तो धरना दे देना । कहना कि हम उपवास करेंगे । वही मंदिर पर बैठ जाना । और उन्होंने धरना दे दिया । उन्होंने कहा कि चलना ही होगा । नहीं तो हम यहीं मर जाएंगे । तो मीरा ने कहा - फिर ऐसा है । चलना ही होगा । तो मैं जाकर अपने प्यारे को पूछ लूं । उनकी बिना आज्ञा के तो न जा सकूंगी । तो रणछोड़ दास जी को पूछ लूं । वह भीतर गई । और कथा बड़ी प्यारी है । और बड़ी अदभुत । और बड़ी बहुमूल्य । वह भीतर गई । और कहते हैं - फिर बाहर नहीं लौटी । कृष्ण की मूर्ति में समा गई । यह भी ऐतिहासिक तो नहीं हो सकती बात । लेकिन होनी चाहिए । क्योंकि अगर मीरा कृष्ण की मूर्ति में न समा सके । तो फिर कौन समाएगा ? और कृष्ण को अपने में इतना समाया । कृष्ण इतना भी न करेंगे कि उसे अपने में समा लें । तब तो फिर भक्ति का सारा गणित ही टूट जाएगा । फिर तो भक्त का भरोसा ही टूट जाएगा । मीरा ने कृष्ण को इतना अपने में समाया । अब कुछ कृष्ण का भी दायित्व है । वह आखिरी घड़ी आ गई - महासमाधि की । मीरा ने कहा होगा - या तो अपने में समा लो मुझे । या मेरे साथ चल पड़ो । क्योंकि अब ये लोग भूखे बैठे हैं । अब मुझे जाना ही पडेगा । वह आखिरी घड़ी आ गई । जब भक्त भगवान हो जाता है । यही प्रतीक है उस कथा में कि मीरा फिर नहीं पाई गई । मीरा कृष्ण की मूर्ति में समा गई । अंततः भक्त भगवान में समा ही जाता है - ओशो ।
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