कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! अब इस कपटी काल निरंजन का चरित्र सुनो । किस प्रकार वह जीवों की छल बुद्धि कर अपने जाल में फ़ँसाता है । इसने कृष्ण अवतार धरकर गीता की कथा कही । परन्तु अग्यानी जीव इसके चाल रहस्य को नहीं समझ पाता ।
अर्जुन श्रीकृष्ण का सच्चा सेवक था । और श्रीकृष्ण की भक्ति में लगन लगाये रहता था । श्रीकृष्ण ने उसे सव सूक्ष्म ग्यान कहा । सांसारिक विषयों से लगाव और सांसारिक विषयों से परे आत्म मोक्ष सब कुछ सुनाया । परन्तु बाद में काल अनुसार उसे मोक्ष मार्ग से हटाकर सांसारिक कर्म कर्तव्य में लगने को प्रेरित किया । जिसके परिणाम स्वरूप भयंकर महाभारत युद्ध हुआ ।
श्रीकृष्ण ने गीता के ग्यान उपदेश में पहले दया क्षमा आदि गुण उपदेश के बारे में बताया । और ग्यान बिग्यान कर्म योग आदि कल्याण देने वाले उपदेशों का वर्णन किया । जबकि अर्जुन सत्य भक्ति में लगन लगाये था । तथा वह श्रीकृष्ण को बहुत मानता था ।
पहले श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मुक्ति की आशा दी । परन्तु बाद में उसे नरक में डाल दिया । कल्याणदायक ग्यान योग का त्याग कराकर उसे सांसारिक कर्म कर्तव्य की ओर घुमा दिया । जिससे कर्म के वश हुये अर्जुन ने बाद में बहुत दुख पाया । मीठा अमृत दिखाकर उसका लालच देकर धोखे से विष समान दुख दे दिया । इस प्रकार काल जीवों को बहला फ़ुसलाकर सन्तों की छवि बिगाङता है । और उन्हें मुक्ति से दूर रखता है । जीवों में सन्तों के प्रति अविश्वास और संदेह उत्पन्न करता है ।
इस काल निरंजन की छल बुद्धि कहाँ कहाँ तक गिनाऊँ । उसे कोई कोई विवेकी सन्त ही पहचानता है । जब कोई ग्यान मार्ग में पक्का रहता है । तभी उसे सत्य मार्ग सूझता है । तब वह यम के छल कपट को समझता है । और उसे पहचानता हुआ उससे अलग हो जाता है । सदगुरु की शरण में जाने पर यम का नाश हो जाता है । तथा अटल अक्षय सुख प्राप्त होता है ।
तब धर्मदास बोले - हे प्रभु ! इस काल निरंजन का चरित्र मैंने समझ लिया । अब आप सत्य पँथ की डोरी कहो । जिसको पकङकर जीव यम निरंजन से अलग हो जाता है ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! मैं तुमको सत्यपुरुष की डोरी की पहचान कराता हूँ । सत्यपुरुष की शक्ति को जब यह जीव जान लेता है । तब काल कसाई उसका रास्ता नहीं रोक पाता ।
सत्यपुरुष की शक्ति उनके एक ही नाल से उत्पन्न 16 सुत है । उन शक्तियों के साथ ही जीव सत्यलोक को जाता है । बिना शक्ति के पँथ नहीं चल सकता । शक्तिहीन जीव तो भवसागर में ही उलझा रहता है । ये शक्तियाँ सदगुणों के रूप में बतायी गयी हैं ।
ग्यान । विवेक । सत्य । संतोष । प्रेमभाव । धीरज । मौन । दया । क्षमा । शील । निहकर्म । त्याग । वैराग्य । शांति । निज धर्म ।
दूसरों का दुख दूर करने के लिये ही तो करुणा की जाती है । परन्तु अपने आप भी करुणा करके अपने जीव का उद्धार करे । और सबको मित्र समान समझकर अपने मन में धारण करे । इन शक्ति स्वरूप सदगुणों को ही धारण कर जीव सत्यलोक में विश्राम पाता है । अतः मनुष्य जिस भी स्थान पर रहे । अच्छी तरह से समझ बूझ कर सत्य रास्ते पर चले । और मोह ममता काम क्रोध आदि दुर्गुणों पर नियंत्रण रखे । इस तरह इस डोर के साथ जो सत्यनाम को पकङता है । वह जीव सत्यलोक जाता है ।
तब धर्मदास बोले - हे प्रभु ! आप मुझे पँथ का वर्णन करो । और पँथ के अंतर्गत विरक्ति और गृहस्थ की रहनी पर भी प्रकाश डालो । कौन सी रहनी से वैरागी वैराग्य करे । और कौन सी रहनी से गृहस्थ आपको प्राप्त करे ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! सुनो । अब मैं वैरागी के लिये आचरण बताता हूँ । वह पहले अभक्ष्य पदार्थ माँस मदिरा आदि का त्याग करे । तभी हँस कहायेगा । वैरागी सन्त सत्यपुरुष की अनन्य भक्ति अपने ह्रदय में धारण करे । किसी से भी द्वेष और वैर न करे । ऐसे पाप कर्मों की तरफ़ देखे भी नहीं । सब जीवों के प्रति ह्रदय में दया भाव रखे । मन वचन कर्म से भी किसी जीव को न मारे । सत्य ग्यान का उपदेश और नाम ले । जो मुक्ति की निशानी है । जिससे पाप कर्म अग्यान तथा अहंकार का समूल नाश हो जायेगा । वैरागी बृह्मचर्य वृत का पूर्ण रूप से पालन करे । काम भावना की दृष्टि से स्त्री को स्पर्श न करे । तथा वीर्य को नष्ट न करे । काम क्रोध आदि विषय और छल कपट को ह्रदय से पूर्णतया धो दे । और एक मन एक चित्त होकर नाम का सुमरण करे ।
हे धर्मदास ! अब गृहस्थ की भक्ति सुनो । जिसको धारण करने से गृहस्थ काल फ़ाँस में नहीं पङेगा । वह काग दशा ( कौवा स्वभाव ) पाप कर्म दुर्गुण और नीच स्वभाव से पूरी तरह दूर रहे । और ह्रदय में सभी जीवों के प्रति दया भाव बनाये रखे ।
मछली । किसी भी पशु का माँस । अंडे न खाये । और न ही शराब पिये । इनको खाना पीना तो दूर इनके पास भी न जाये । क्योंकि ये सब अभक्ष्य पदार्थ हैं । वनस्पति अंकुर से उत्पन्न अनाज फ़ल शाक सब्जी आदि का आहार करे । सदगुरु से नाम ले । जो मुक्ति की पहचान है । तब काल कसाई उसको रोक नहीं पाता है ।
हे भाई ! जो गृहस्थ जीव ऐसा नहीं करता । वह कहीं भी नहीं बचता । वह घोर दुख के अग्निकुन्ड में जल जलकर नाचता है । और पागल हुआ सा इधर उधर को भटकता ही है । उसे अनेकानेक कष्ट होते हैं । और वह जन्म जन्म बारबार कठोर नरक में जाता है । वह करोंडो जन्म जहरीले साँप के पाता है । तथा अपनी ही विष ज्वाला का दुख सहता हुआ यूँ ही जन्म गँवाता है ।
वह विष्ठा ( मल टट्टी ) में कीङा कीट का शरीर पाता है । और इस प्रकार 84 की योनियों के करोंङो जन्म तक नरक में पङा रहता है । और तुमसे जीव के घोर दुख को क्या कहूँ । मनुष्य चाहे करोङो योग आराधना करे । किन्तु बिना सदगुरु के जीव को हानि ही होती है । सदगुरु मन बुद्धि पहुँच के परे का अगम ग्यान देने वाले हैं । जिसकी जानकारी वेद भी नहीं बता सकते ।
वेद इसका उसका यानी कर्म योग उपासना और बृह्म का ही वर्णन करता है । वेद सत्यपुरुष का भेद नहीं जानता । अतः करोंङो में कोई ऐसा विवेकी संत होता है । जो मेरी वाणी को पहचान कर गृहण करता है । काल निरंजन ने खानी वाणी के बंधन में सबको फ़ँसाया हुआ है । मंद बुद्ध अल्पग्य जीव उस चाल को नहीं पहचानता । और अपने घर आनन्द धाम सत्यलोक नहीं पहुँच पाता । तथा जन्म मरण और नरक के भयानक कष्टों में ही फ़ँसा रहता है ।
अर्जुन श्रीकृष्ण का सच्चा सेवक था । और श्रीकृष्ण की भक्ति में लगन लगाये रहता था । श्रीकृष्ण ने उसे सव सूक्ष्म ग्यान कहा । सांसारिक विषयों से लगाव और सांसारिक विषयों से परे आत्म मोक्ष सब कुछ सुनाया । परन्तु बाद में काल अनुसार उसे मोक्ष मार्ग से हटाकर सांसारिक कर्म कर्तव्य में लगने को प्रेरित किया । जिसके परिणाम स्वरूप भयंकर महाभारत युद्ध हुआ ।
श्रीकृष्ण ने गीता के ग्यान उपदेश में पहले दया क्षमा आदि गुण उपदेश के बारे में बताया । और ग्यान बिग्यान कर्म योग आदि कल्याण देने वाले उपदेशों का वर्णन किया । जबकि अर्जुन सत्य भक्ति में लगन लगाये था । तथा वह श्रीकृष्ण को बहुत मानता था ।
पहले श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मुक्ति की आशा दी । परन्तु बाद में उसे नरक में डाल दिया । कल्याणदायक ग्यान योग का त्याग कराकर उसे सांसारिक कर्म कर्तव्य की ओर घुमा दिया । जिससे कर्म के वश हुये अर्जुन ने बाद में बहुत दुख पाया । मीठा अमृत दिखाकर उसका लालच देकर धोखे से विष समान दुख दे दिया । इस प्रकार काल जीवों को बहला फ़ुसलाकर सन्तों की छवि बिगाङता है । और उन्हें मुक्ति से दूर रखता है । जीवों में सन्तों के प्रति अविश्वास और संदेह उत्पन्न करता है ।
इस काल निरंजन की छल बुद्धि कहाँ कहाँ तक गिनाऊँ । उसे कोई कोई विवेकी सन्त ही पहचानता है । जब कोई ग्यान मार्ग में पक्का रहता है । तभी उसे सत्य मार्ग सूझता है । तब वह यम के छल कपट को समझता है । और उसे पहचानता हुआ उससे अलग हो जाता है । सदगुरु की शरण में जाने पर यम का नाश हो जाता है । तथा अटल अक्षय सुख प्राप्त होता है ।
तब धर्मदास बोले - हे प्रभु ! इस काल निरंजन का चरित्र मैंने समझ लिया । अब आप सत्य पँथ की डोरी कहो । जिसको पकङकर जीव यम निरंजन से अलग हो जाता है ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! मैं तुमको सत्यपुरुष की डोरी की पहचान कराता हूँ । सत्यपुरुष की शक्ति को जब यह जीव जान लेता है । तब काल कसाई उसका रास्ता नहीं रोक पाता ।
सत्यपुरुष की शक्ति उनके एक ही नाल से उत्पन्न 16 सुत है । उन शक्तियों के साथ ही जीव सत्यलोक को जाता है । बिना शक्ति के पँथ नहीं चल सकता । शक्तिहीन जीव तो भवसागर में ही उलझा रहता है । ये शक्तियाँ सदगुणों के रूप में बतायी गयी हैं ।
ग्यान । विवेक । सत्य । संतोष । प्रेमभाव । धीरज । मौन । दया । क्षमा । शील । निहकर्म । त्याग । वैराग्य । शांति । निज धर्म ।
दूसरों का दुख दूर करने के लिये ही तो करुणा की जाती है । परन्तु अपने आप भी करुणा करके अपने जीव का उद्धार करे । और सबको मित्र समान समझकर अपने मन में धारण करे । इन शक्ति स्वरूप सदगुणों को ही धारण कर जीव सत्यलोक में विश्राम पाता है । अतः मनुष्य जिस भी स्थान पर रहे । अच्छी तरह से समझ बूझ कर सत्य रास्ते पर चले । और मोह ममता काम क्रोध आदि दुर्गुणों पर नियंत्रण रखे । इस तरह इस डोर के साथ जो सत्यनाम को पकङता है । वह जीव सत्यलोक जाता है ।
तब धर्मदास बोले - हे प्रभु ! आप मुझे पँथ का वर्णन करो । और पँथ के अंतर्गत विरक्ति और गृहस्थ की रहनी पर भी प्रकाश डालो । कौन सी रहनी से वैरागी वैराग्य करे । और कौन सी रहनी से गृहस्थ आपको प्राप्त करे ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! सुनो । अब मैं वैरागी के लिये आचरण बताता हूँ । वह पहले अभक्ष्य पदार्थ माँस मदिरा आदि का त्याग करे । तभी हँस कहायेगा । वैरागी सन्त सत्यपुरुष की अनन्य भक्ति अपने ह्रदय में धारण करे । किसी से भी द्वेष और वैर न करे । ऐसे पाप कर्मों की तरफ़ देखे भी नहीं । सब जीवों के प्रति ह्रदय में दया भाव रखे । मन वचन कर्म से भी किसी जीव को न मारे । सत्य ग्यान का उपदेश और नाम ले । जो मुक्ति की निशानी है । जिससे पाप कर्म अग्यान तथा अहंकार का समूल नाश हो जायेगा । वैरागी बृह्मचर्य वृत का पूर्ण रूप से पालन करे । काम भावना की दृष्टि से स्त्री को स्पर्श न करे । तथा वीर्य को नष्ट न करे । काम क्रोध आदि विषय और छल कपट को ह्रदय से पूर्णतया धो दे । और एक मन एक चित्त होकर नाम का सुमरण करे ।
हे धर्मदास ! अब गृहस्थ की भक्ति सुनो । जिसको धारण करने से गृहस्थ काल फ़ाँस में नहीं पङेगा । वह काग दशा ( कौवा स्वभाव ) पाप कर्म दुर्गुण और नीच स्वभाव से पूरी तरह दूर रहे । और ह्रदय में सभी जीवों के प्रति दया भाव बनाये रखे ।
मछली । किसी भी पशु का माँस । अंडे न खाये । और न ही शराब पिये । इनको खाना पीना तो दूर इनके पास भी न जाये । क्योंकि ये सब अभक्ष्य पदार्थ हैं । वनस्पति अंकुर से उत्पन्न अनाज फ़ल शाक सब्जी आदि का आहार करे । सदगुरु से नाम ले । जो मुक्ति की पहचान है । तब काल कसाई उसको रोक नहीं पाता है ।
हे भाई ! जो गृहस्थ जीव ऐसा नहीं करता । वह कहीं भी नहीं बचता । वह घोर दुख के अग्निकुन्ड में जल जलकर नाचता है । और पागल हुआ सा इधर उधर को भटकता ही है । उसे अनेकानेक कष्ट होते हैं । और वह जन्म जन्म बारबार कठोर नरक में जाता है । वह करोंडो जन्म जहरीले साँप के पाता है । तथा अपनी ही विष ज्वाला का दुख सहता हुआ यूँ ही जन्म गँवाता है ।
वह विष्ठा ( मल टट्टी ) में कीङा कीट का शरीर पाता है । और इस प्रकार 84 की योनियों के करोंङो जन्म तक नरक में पङा रहता है । और तुमसे जीव के घोर दुख को क्या कहूँ । मनुष्य चाहे करोङो योग आराधना करे । किन्तु बिना सदगुरु के जीव को हानि ही होती है । सदगुरु मन बुद्धि पहुँच के परे का अगम ग्यान देने वाले हैं । जिसकी जानकारी वेद भी नहीं बता सकते ।
वेद इसका उसका यानी कर्म योग उपासना और बृह्म का ही वर्णन करता है । वेद सत्यपुरुष का भेद नहीं जानता । अतः करोंङो में कोई ऐसा विवेकी संत होता है । जो मेरी वाणी को पहचान कर गृहण करता है । काल निरंजन ने खानी वाणी के बंधन में सबको फ़ँसाया हुआ है । मंद बुद्ध अल्पग्य जीव उस चाल को नहीं पहचानता । और अपने घर आनन्द धाम सत्यलोक नहीं पहुँच पाता । तथा जन्म मरण और नरक के भयानक कष्टों में ही फ़ँसा रहता है ।
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