तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ।
संजय ने कहा - पूर्वोक्त प्रकार से दया से भरकर और आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोक युक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा । श्रीभगवानुवाच -
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम । अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।
- हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में । यह अज्ञान किस हेतु से प्राप्त हुआ । क्योंकि यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों से आचरण किया गया है । न स्वर्ग को देने वाला है । न कीर्ति को करने वाला है ।
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।
- इसलिए हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो । यह तेरे लिए योग्य नहीं है । हे परंतप, तुच्छ हृदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो ।
संजय ने अर्जुन के लिए - दया से भरा हुआ । दया के आंसू आंख में लिए । ऐसा कहा है । दया को थोड़ा समझ लेना जरूरी है । संजय ने नहीं कहा - करुणा से भरा हुआ । कहा है - दया से भरा हुआ ।
साधारणतः शब्दकोश में दया और करुणा पर्यायवाची दिखाई पड़ते हैं । साधारणतः हम भी उन दोनों शब्दों का 1 सा प्रयोग करते हुए दिखाई पड़ते हैं । उससे बड़ी भ्रांति पैदा होती है । दया का अर्थ है - परिस्थितिजन्य । और करुणा का अर्थ है - मनःस्थितिजन्य । उनमें बुनियादी फर्क है । करुणा का अर्थ है - जिसके हृदय में करुणा है । बाहर की परिस्थिति से उसका कोई संबंध नहीं है । करुणावान व्यक्ति अकेले में बैठा हो । तो भी उसके हृदय से करुणा बहती रहेगी । जैसे निर्जन में फूल खिला हो । तो भी सुगंध उड़ती रहेगी । राह पर निकलने वालों से कोई संबंध नहीं है । राह से कोई निकलता है । या नहीं निकलता है । फूल की सुगंध को इससे कुछ लेना देना नहीं है । नहीं कोई निकलता । तो निर्जन पर भी फूल की सुगंध उड़ती है । कोई निकलता है । तो उसे सुगंध मिल जाती है । यह दूसरी बात है । फूल उसके लिए सुगंधित नहीं होता है । करुणा व्यक्ति की अंतस चेतना का स्रोत है । वहां सुगंध की भांति करुणा उठती है । इसलिए बुद्ध को या महावीर को दयावान कहना गलत है । वे करुणावान हैं । महाकारुणिक हैं । अर्जुन को संजय कहता है - दया से भरा हुआ । दया सिर्फ उनमें पैदा होती है । जिनमें करुणा नहीं होती । दया सिर्फ उनमें पैदा होती है । जिनके भीतर हृदय में करुणा नहीं होती । दया परिस्थिति के दबाव से पैदा होती है । करुणा हृदय के विकास से पैदा होती है । राह पर 1 भिखारी को देखकर जो आपके भीतर पैदा होता है । वह दया है । वह करुणा नहीं है । और तब 1 बात और समझ लेनी चाहिए कि दया अहंकार को भरती है । और करुणा अहंकार को विगलित करती है । करुणा सिर्फ उसमें ही पैदा होती है । जिसमें अहंकार न हो । दया भी अहंकार को ही परिपुष्ट करने का माध्यम है । अच्छा माध्यम है । सज्जनों का माध्यम है ? लेकिन माध्यम अहंकार को ही पुष्ट करने का है । जब आप किसी को दान देते हैं । तब आपके भीतर जो रस उपलब्ध होता है - देने वाले का । देने वाले की स्थिति में होने का । भिखारी को देखकर जो दया पैदा होती है । उस क्षण में अगर भीतर खोजेंगे । तो अहंकार का स्वर भी बजता होता है । करुणावान चाहेगा । पृथ्वी पर कोई भिखारी न रहे । दयावान चाहेगा । भिखारी रहे । अन्यथा दयावान को बड़ी कठिनाई होगी । दया पर खड़े हुए समाज भिखारी को नष्ट नहीं करते । पोषित करते हैं । करुणा पर कोई समाज खड़ा होगा । तो भिखारी को बरदाश्त नहीं कर सकेगा । नहीं होना चाहिए ।
अर्जुन के मन में जो हुआ है । वह दया है । करुणा होती । तो क्रांति हो जाती । इसे इसलिए ठीक से समझ लेना जरूरी है कि कृष्ण जो उत्तर दे रहे हैं । वह ध्यान में रखने योग्य है । तत्काल कृष्ण उससे जो कह रहे हैं । वह सिर्फ उसके अहंकार की बात कह रहे हैं । वह उससे कह रहे हैं - अनार्यों के योग्य । वह दूसरा सूत्र बताता है कि कृष्ण ने पकड़ी है बात । अहंकार का स्वर बज रहा है उसमें । वह कह रहा है - मुझे दया आती है । ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूं ? कृत्य बुरा है । ऐसा नहीं । ऐसा कृत्य मैं कैसे कर सकता हूं ? इतना बुरा मैं कहां हूं । इससे तो उचित होगा । कृष्ण से वह कहता है कि वे सब धृतराष्ट्र के पुत्र मुझे मार डालें । वह ठीक होगा । बजाय इसके कि इतने कुकृत्य को करने को मैं तत्पर होऊं । अहंकार अपने स्वयं की बलि भी दे सकता है । अहंकार जो आखिरी कृत्य कर सकता है । वह शहीदी है । वह मार्टर भी हो सकता है । और अक्सर अहंकार शहीद होता है । लेकिन शहीद होने से और मजबूत होता है । अर्जुन कह रहा है कि इससे तो बेहतर है कि मैं मर जाऊं । मैं । अर्जुन । ऐसी स्थिति में कुकृत्य नहीं कर सकूंगा । दया आती है मुझे । यह सब क्या करने को लोग इकट्ठे हुए हैं । आश्चर्य होता है मुझे । उसकी बात से ऐसा लगता है कि इस युद्ध के बनने में वह बिलकुल साथी सहयोगी नहीं है । उसने कोआप्ट नहीं किया है । यह युद्ध जैसे आकस्मिक उसके सामने खड़ा हो गया है । उसे जैसे इसका कुछ पता ही नहीं है । यह जो परिस्थिति बनी है । इसमें वह जैसे पार्टिसिपेंट, भागीदार नहीं है । इस तरह दूर खड़े होकर बात कर रहा है कि - दया आती है मुझे । आंख में आंसू भर गए हैं उसके । नहीं । ऐसा मैं न कर सकूंगा । इससे तो बेहतर है कि मैं ही मर जाऊं । वही श्रेयस्कर है । इस स्वर को कृष्ण ने पकड़ा है । इसलिए मैंने कहा कि कृष्ण इस पृथ्वी पर पहले मनोवैज्ञानिक हैं । क्योंकि दूसरा सूत्र कृष्ण का सिर्फ अर्जुन के अहंकार को और बढ़ावा देने वाला सूत्र है । दूसरे सूत्र में कहते हैं - कैसे अनार्यों जैसी तू बात करता है ? आर्य का अर्थ है - श्रेष्ठजन । अनार्य का अर्थ है - निकृष्टजन । आर्य का अर्थ है - अहंकारीजन । अनार्य का अर्थ है - दीन हीन । तू कैसी अनार्यों जैसी बात करता है । अब सोचने जैसा है कि दया की बात अनार्यों जैसी बात है । आंख में दया से भरे हुए आंसू अनार्यों जैसी बात है । और कृष्ण कहते हैं - इस पृथ्वी पर अपयश का कारण बनेगा । और परलोक में भी अकल्याणकारी है । दया । शायद ही कभी आपको खयाल आया हो कि संजय कहता है - दया से भरा अर्जुन । आंखों में आंसू लिए । और कृष्ण जो कहते हैं । उसमें तालमेल नहीं दिखाई पड़ता । क्योंकि दया को हमने कभी ठीक से नहीं समझा कि दया भी अहंकार का भूषण है । दया भी अहंकार का कृत्य है । वह भी ईगो एक्ट है । अच्छे आदमी का । क्रूरता बुरे आदमी का ईगो एक्ट है । ध्यान रहे । अहंकार अच्छाइयों से भी अपने को भरता है । बुराइयों से भी अपने को भरता है । और अक्सर तो ऐसा होता है कि जब अच्छाइयों से अहंकार को भरने की सुविधा नहीं मिलती । तभी वह बुराइयों से अपने को भरता है । इसलिए जिन्हें हम सज्जन कहते हैं । और जिन्हें हम दुर्जन कहते हैं । उनमें बहुत मौलिक भेद नहीं होता । ओरिजनल भेद नहीं होता । सज्जन और दुर्जन । 1 ही अहंकार की धुरी पर खड़े होते हैं । फर्क इतना ही होता है कि दुर्जन अपने अहंकार को भरने के लिए दूसरों को चोट पहुंचा सकता है । सज्जन अपने अहंकार को भरने के लिए स्वयं को चोट पहुंचा सकता है । चोट पहुंचाने में फर्क नहीं होता । अर्जुन कह रहा है - इनको मैं मारूं । इससे तो बेहतर है । मैं मर जाऊं । दुर्जन - अगर हम मनोविज्ञान की भाषा में बोलें । तो सैडिस्ट होता है । और सज्जन जब अहंकार को भरता है । तो मैसोचिस्ट होता है । मैसोच 1 आदमी हुआ । जो अपने को ही मारता था । सभी स्वयं को पीड़ा देने वाले लोग जल्दी सज्जन हो सकते हैं । अगर मैं आपको भूखा मारूं । तो दुर्जन हो जाऊंगा । कानून अदालत मुझे पकड़ेंगे । लेकिन मैं खुद ही अनशन करूं । तो कोई कानून अदालत मुझे पकड़ेगा नहीं । आप ही मेरा जुलूस निकालेंगे । लेकिन भूखा मारना आपको । अगर बुरा है । तो मुझको भूखा मारना । कैसे ठीक हो जाएगा ? सिर्फ इसलिए कि यह शरीर मेरे जिम्मे पड़ गया है । और वह शरीर आपके जिम्मे पड़ गया है । तो आपके शरीर को अगर कोड़े मारूं । और आपको अगर नंगा खड़ा करूं । और कांटों पर लिटा दूं । तो अपराध हो जाएगा । और खुद नंगा हो जाऊं । और कांटों पर लेट जाऊं । तो तपश्चर्या हो जाएगी । सिर्फ रुख बदलने से । सिर्फ तीर उस तरफ से हटकर इस तरफ आ जाए । तो धर्म हो जाएगा । अर्जुन कह रहा है - इन्हें मारने की बजाय तो मैं मर जाऊं । वह बात वही कह रहा है । मरने मारने की ही कह रहा है । उसमें कोई बहुत फर्क नहीं है । हां तीर का रुख बदल रहा है । और ध्यान रहे । दूसरे को मारने में कभी इतने अहंकार की तृप्ति नहीं होती । जितना स्वयं को मारने में होती है । क्योंकि दूसरा मरते वक्त भी मुंह पर थूककर मर सकता है । लेकिन खुद आदमी जब अपने को मारता है । तो बिलकुल निहत्था । बिना उत्तर के मरता है । दूसरे को मारना कभी पूरा नहीं होता । दूसरा मरकर भी बच जाता है । उसकी आंखें कहती हैं कि मार डाला भला । लेकिन हार नहीं गया वह । लेकिन खुद को मारते वक्त तो कोई उपाय ही नहीं । हराने का मजा पूरा आ जाता है । अर्जुन दया की बात करता हो । और कृष्ण उससे कहते हैं कि - अर्जुन ! तेरे योग्य नहीं हैं ऐसी बातें । अपयश फैलेगा । तो वे सिर्फ उसके अहंकार को फुसला रहे हैं । परसुएड कर रहे हैं । दूसरा सूत्र कृष्ण का । बताता है कि पकड़ी है उन्होंने नस । वे ठीक जगह छू रहे हैं उसे । क्योंकि उसे यह समझाना कि दया ठीक नहीं, व्यर्थ है । उसे यह भी समझाना कि दया और करुणा में फासला है । अभी व्यर्थ है । अभी तो उसकी रग अहंकार है । अभी अहंकार सैडिज्म से मैसोचिज्म की तरफ जा रहा है । अभी वह दूसरे को दुख देने की जगह । अपने को दुख देने के लिए तत्पर हो रहा है । इस स्थिति में वे दूसरे सूत्र में उससे कहते हैं कि - तू क्या कह रहा है ? आर्य होकर । सभ्य सुसंस्कृत होकर । कुलीन होकर । कैसी अकुलीनों जैसी बात कर रहा है । भागने की बात कर रहा है युद्ध से ? कातरता तेरे मन को पकड़ती है ? वे चोट कर रहे हैं उसके अहंकार को । बहुत बार गीता को पढ़ने वाले लोग ऐसी बारीक और नाजुक जगहों पर बुनियादी भूल कर जाते हैं । क्या कृष्ण यह कह रहे हैं कि अहंकारी हो ? नहीं । कृष्ण सिर्फ यह देख रहे हैं कि जो दया उठ रही है । वह अगर अहंकार से उठ रही है । तो अहंकार को फुलाने से तत्काल विदा हो जाएगी । इसलिए कहते हैं - कायरपन की बातें कर रहा है । कायरता की बातें कर रहा है । सख्त से सख्त शब्दों का वे उपयोग करेंगे । यहां अर्जुन से वे जो कह रहे हैं पूरे वक्त । उसमें क्या प्रतिक्रिया पैदा होती है । उसके लिए कह रहे हैं । मनोविश्लेषण शुरू होता है । कृष्ण अर्जुन को साइकोएनालिसिस में ले जाते हैं । लेट गया अर्जुन कोच पर अब कृष्ण की । अब वे जो भी पूछ रहे हैं । उसको जगाकर पूरा देखना चाहेंगे कि वह है कहां ? कितने गहरे पानी में है । अब आगे से कृष्ण यहां साइकोएनालिस्ट, मनोविश्लेषक हैं । और अर्जुन सिर्फ पेशेंट है । सिर्फ बीमार है । और उसे सब तरफ से उकसाकर देखना और जगाना जरूरी है । पहली चोट वे उसके अहंकार पर करते हैं । और स्वभावतः मनुष्य की गहरी से गहरी और पहली बीमारी अहंकार है । और जहां अहंकार है । वहां दया झूठी है । और जहां अहंकार है । वहां अहिंसा झूठी है । और जहां अहंकार है । वहां शांति झूठी है । और जहां अहंकार है । वहां कल्याण और मंगल और लोकहित की बातें झूठी हैं । क्योंकि जहां अहंकार है । वहां ये सारी की सारी चीजें सिर्फ अहंकार के आभूषण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं । ओशो
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जिन खोजा तिन पाईयां । गहरे पानी पैठ । मैं बौरी डूबन डरी । रही किनारे बैठ । मैं डर गई डूबने से । इसलिए किनारे बैठ गई । और जिन्होंने खोजा । उन्होंने तो गहरे जाकर खोजा । डूबने की तैयारी चाहिए । मिटने की तैयारी चाहिए । 1 शब्द में कहें - शब्द बहुत अच्छा नहीं । मरने की तैयारी चाहिए । और जो डर जाएगा डूबने से । वह बच तो जाएगा । लेकिन अंडा ही बचेगा । पक्षी नहीं । जो आकाश में उड़ सके । जो डूबने से डरेगा । वह बच तो जाएगा । लेकिन बीज ही बचेगा । वृक्ष नहीं । जिसके नीचे हजारों लोग छाया में विश्राम कर सकें । और बीज की तरह बचना कोई बचना है ? बीज की तरह बचने से ज्यादा मरना और क्या होगा । इसलिए बहुत खतरा है । खतरा यह है कि हमारा जो व्यक्तित्व कल तक था । वह अब नहीं होगा । अगर ऊर्जा जगेगी । तो हम पूरे बदल जाएंगे । नये केंद्र जाग्रत होंगे । नया व्यक्तित्व उठेगा । नया अनुभव होगा । नया सब हो जाएगा । नये होने की तैयारी हो । तो पुराने को जरा छोड़ने की हिम्मत करना । और पुराना हमें इतने जोर से पकड़े हुए है । चारों तरफ से कसे हुए है । जंजीरों की तरह बांधे हुए है कि वह ऊर्जा नहीं उठ पाती । परमात्मा की यात्रा पर जाना निश्चित ही असुरक्षा की यात्रा है । इनसिक्योरिटी की । लेकिन जीवन के, सौंदर्य के सभी फूल असुरक्षा में ही खिलते हैं । ओशो
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