तब धर्मदास बोला - हे साहिब ! आपके द्वारा जगन्नाथ मंदिर का बनबाना मैंने सुना । इसके बाद आप कहाँ गये ? कौन से जीव को मुक्त कराया ? तथा कलियुग का प्रभाव भी कहिये ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! राजस्थल देश के राजा का नाम बंकेज था । मैंने उसे नाम उपदेश दिया । और जीवों के उद्धार के लिये कर्णधार केवट बनाया । राजस्थल देश से मैं शाल्मलि दीप आया । और वहाँ मैंने एक संत सहते जी को चेताया । और उसे जीवों का उद्धार करने के लिये समस्त गुरु ग्यान दीक्षा प्रदान की ।
फ़िर मैं वहाँ से दरभंगा आया । जहाँ राजा चतुर्भुज स्वामी का निवास था । उसको भी पात्र जानकर मैंने जीवों को चेताने हेतु गुरुवाई ( जीवों को चेताने और नाम उपदेश देने वाला ) बनाया । उसने जरा भी माया मोह नहीं किया । तब मैंने उसे सत्यनाम देकर गुरुवाई दी ।
हे धर्मदास ! मैंने हँस का निर्मल ग्यान रहनी गहनी सुमरन आदि इन कङिहार गुरुओं को अच्छी तरह बताया । वे सब कुल मर्यादा काम मोह आदि विषयों का त्याग कर सार गुणों को जानने वाले हुये । चतुर्भुज । बंकेज । सहते जी और चौथे धर्मदास तुम । ये चारों जीव के कङिहार हैं । अर्थात जीव को सत्यग्यान बताकर भवसागर से पार लगाने वाले हैं । यह मैंने तुमसे अटल सत्य कहा है ।
हे धर्मदास ! अब तुम्हारे हाथ से मुझको जम्बू दीप ( भारत ) के जीव मिलेंगे । जो मेरे उपदेश को गृहण करेगा । काल निरंजन उससे दूर ही रहेगा ।
तब धर्मदास बोले - हे साहिब ! मैं पाप कर्म करने वाला । दुष्ट और निर्दयी था । और मेरा जीवात्मा सदा भृम से अचेत रहा । तब मेरे किस पुण्य से आपने मुझे अग्यान निद्रा से जगाया । और कौन से तप से मैंने आपका दर्शन पाया । वह मुझे आप बतायें ।
कबीर साहब बोले - तुम्हें समझाने और दर्शन देने के पीछे क्या कारण था ? अब वह तुम मुझसे सुनो । तुम अपने पिछले जन्मों की बात सुनो । जिस कारण मैं तुम्हारे पास आया ।
संत सुदर्शन जो द्वापर में हुये । वह कथा मैंने तुम्हें सुनाई । जब मैं उसके हँस जीव को सत्यलोक ले गया । तब उसने मुझसे विनती की । और बोला - हे सदगुरु ! मेरी विनती सुने । और मेरे माता पिता को मुक्ति दिलायें । हे बन्दीछोङ ! उनका आवागमन मेटकर छुङाने की कृपा करें । यम के देश में उन्होंने बहुत दुख पाया है ।
मैंने बहुत तरीके से उनको समझाया । परन्तु तब उन्होंने मेरी बात नहीं मानी । और विश्वास ही नहीं किया । लेकिन उन्होंने भक्ति करने से मुझे कभी नहीं रोका । जब मैं आपकी भक्ति करता । तो कभी उनके मन में वैरभाव नहीं होता । बल्कि प्रसन्नता ही होती । इसी से हे प्रभु ! मेरी विनती है कि आप बन्दीछोङ उनके जीव को मुक्त करायें ।
जब सुदर्शन श्वपच ने बारबार ऐसी विनती की । तो मैंने उसको मान लिया । और संसार में कबीर नाम से आया । मैं निरंजन के एक वचन से बँधा था । फ़िर भी सुदर्शन श्वपच की विनती पर मैं भारत आया । मैं वहाँ गया । जहाँ संत श्वपच के माता पिता लक्ष्मी और नरहर नाम से रहते थे । हे भाई ! उन्होंने श्वपच के साथ वाली देह छोङ दी थी । और सुदर्शन के पुण्य से उसके माता पिता 84 में न जाकर पुनः मनुष्य देह में ब्राह्मण होकर उत्पन्न हुये थे । जब दोनों का जन्म हो गया । तब फ़िर विधाता ने समय अनुसार उन्हें पति पत्नी के रूप में मिला दिया ।
तब उस ब्राह्मण का नाम कुलपति और उसकी पत्नी का नाम महेश्वरी था । बहुत समय बीत जाने पर भी महेश्वरी के संतान नहीं हुयी थी । तब पुत्र प्राप्ति हेतु उसने स्नान कर सूर्यदेव का वृत रखा । वह आंचल फ़ैलाकर दोनों हाथ जोङकर सूर्य से प्रार्थना करती । उसका मन बहुत रोता था ।
तब उसी समय मैं ( कबीर साहब ) उसके आंचल में बालक रूप धरकर प्रकट हो गया । मुझे देखकर महेश्वरी बहुत प्रसन्न हुयी । और मुझे घर ले गयी । और अपने पति से बोली - प्रभु ने मुझ पर कृपा की । और मेरे सूर्य वृत करने का फ़ल यह बालक मुझको दिया ।
मैं बहुत दिनों तक वहाँ रहा । वे दोनों स्त्री पुरुष मिलकर मेरी बहुत सेवा करते । पर वे निर्धन होने से बहुत दुखी थे । तब मैंने ऐसा विचार किया । पहले मैं इनकी गरीबी दूर करूँ । फ़िर इनको भक्ति मुक्ति का उपदेश करूँ । इसके लिये मैंने एक लीला की । जब ब्राह्मण स्त्री ने मेरा पालना हिलाया । तो उसे उसमें एक तौला सोना मिला ।
फ़िर मेरे बिछौने से उन्हें रोज एक तौला सोना मिलता था । उससे वे बहुत सुखी हो गये । तब मैंने उनको सत्य शब्द का उपदेश किया । और उन दोनों को बहुत तरह से समझाया । परन्तु उनके ह्रदय में मेरा उपदेश नहीं समाया । बालक जानकर उन्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं आया । उस देह में उन्होंने मुझे नहीं पहचाना । तब मैं वह शरीर त्याग कर गुप्त हो गया ।
तब कुछ समय बाद उस ब्राह्मण कुलपति और उसकी स्त्री महेश्वरी दोनों ने शरीर छोङा । और मेरे दर्शन के प्रभाव से उन्हें फ़िर से मनुष्य शरीर मिला । फ़िर दोनों समय अनुसार पति पत्नी हुये । और वह चंदनवारे नगर में जाकर रहने लगे । इस जन्म में उस औरत का नाम ऊदा और पुरुष का नाम चंदन था । तब मैं सत्यलोक से आकर पुनः चंदवारे नगर में प्रगट हुआ ।
उस स्थान पर मैंने बालक रूप बनाया । और वहाँ तालाब में विश्राम किया । तालाब में मैंने कमल पत्र पर आसन लगाया । और आठ पहर वहाँ रहा ।
तब उस तालाब में ऊदा स्नान करने आयी । और सुन्दर बालक देखकर मोहित हो गयी । और मुझे अपने घर ले गयी । उसने अपने पति चंदन साहू को बताया कि ये बालक किस प्रकार मुझे मिला ।
तब चंदन साहू बोला - अरे ऊदा ! तू मूर्ख स्त्री है । शीघ्र जाओ । और इस बालक को वहीं डाल आओ । वरना हमारी जाति कुटुम्ब के लोग हम पर हँसेगे । और उनके हँसने से हमें दुख ही होगा । जब चंदन साहू क्रोधित हुआ । तो ऊदा बहुत डर गयी ।
तब चंदन साहू अपनी दासी से बोला - इस बालक को ले जा । और तालाब के जल में डाल दे ।
कबीर साहब बोले - दासी उस बालक को लेकर चल दी । और तालाब में डालने का मन बनाया । उसी समय मैं अंतर्ध्यान हो गया । यह देखकर वह बिलख बिलखकर रोने लगी । वह मन से बहुत परेशान थी । और ये चमत्कार देखकर मुग्ध होती हुयी बालक को खोजती थी । पर मुँह से कुछ न बोलती थी ।
इस प्रकार आयु पूरी होने पर चंदन साहू और ऊदा ने भी शरीर छोङ दिया । और फ़िर दोनों ने मनुष्य जन्म पाया । अबकी बार उन दोनों को जुलाहा कुल में मनुष्य शरीर मिला । फ़िर से विधाता का संयोग हुआ । और फ़िर से समय आने पर वे पति पत्नी बन गये ।
इस जन्म में उन दोनों का नाम नीरू नीमा हुआ । नीरू नाम का वह जुलाहा काशी में रहता था । तब एक दिन जेठ का महीना । और शुक्ल पक्ष । तथा बरसाइत पूर्णिमा की तिथि थी । जब नीरू अपनी पत्नी नीमा के साथ लहरतारा तालाब मार्ग से जा रहा था । तब गर्मी से व्याकुल उसकी पत्नी को जल पीने की इच्छा हुयी । और तभी मैं उस तालाब के कमलपत्र पर शिशु रूप में प्रकट हो गया । और बाल क्रीङा करने लगा ।
जल पीने आयी नीमा मुझे देखकर हैरान रह गयी । और उसने दौङकर मुझे उठा लिया । और अपने पति के पास ले आयी ।
तब नीमा ने मुझे देखकर बहुत क्रोध किया । और कहा - इस बालक को वहीं डाल दो ।
इस पर नीमा सोच में पङ गयी । तब मैंने उससे कहा - हे नीमा सुनो । मैं तुम्हें समझाकर कहता हूँ । पिछले ( जन्म के ) प्रेम के कारण मैंने तुम्हें दर्शन दिया । क्योंकि पिछले जन्म में तुम दोनों सुदर्शन के माता पिता थे । और मैंने उसे वचन दिया था कि तुम्हारे माता पिता का अवश्य उद्धार करूँगा । इसलिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ । अब तुम मुझे घर ले चलो । और मुझे पहचान कर अपना गुरु बनाओ । तब मैं तुम्हें सत्यनाम उपदेश दूँगा । जिससे तुम काल निरंजन के फ़ँदे से छूट जाओगे ।
तब नीमा ने नीरू की बात का भय नहीं माना । और मुझे अपने घर ले गयी । इस प्रकार मैं काशी नगर में आ गया । और बहुत दिनों तक उनके साथ रहा । पर उन्हें मुझ पर विश्वास नहीं आया । वे मुझे अपना बालक ही समझते रहे । और मेरे शब्द उपदेश पर ध्यान नहीं दिया ।
हे धर्मदास ! बिना विश्वास और समर्पण के जीवन मुक्ति का कार्य नहीं होता । अतः ऐसा निर्णय करके गुरु के वचनों पर दृणतापूर्वक विश्वास करना चाहिये । अतः उस शरीर में नीरू नीमा ने मुझे नहीं पहचाना । और मुझे अपना बालक जानकर सतसंग नहीं किया ।
हे धर्मदास ! जब जुलाहा कुल में भी नीरू नीमा की आयु पूरी हुयी । और उन्होंने फ़िर से शरीर त्याग कर दुबारा मनुष्य रूप में मथुरा में जन्म लिया ।
तब मैंने वहाँ मथुरा में जाकर उनको दर्शन दिया । अबकी बार उन्होंने मेरा शब्द उपदेश मान लिया । और उस औरत का रतना नाम हुआ । वह मन लगाकर भक्ति करती थी । मैंने उन दोनों स्त्री पुरुषों को शब्द नाम उपदेश दिया । इस तरह वे मुक्त हो गये । और सत्यलोक में जाकर हँस शरीर प्राप्त किया । उन हँसो को देखकर स्त्यपुरुष बहुत प्रसन्न हुये । और उन्हें सुकृत नाम दिया ।
जब सत्यलोक में रहते हुये मुझे बहुत दिन बीत गये । तब तक काल निरंजन ने बहुत जीवों को सताया । हे भाई ! जब काल निरंजन जीवों को बहुत दुख देने लगा । तब सत्यपुरुष ने सुकृत को पुकारा ।
और कहा - हे सुकृत ! तुम संसार में जाओ । वहाँ अपार बलबान काल निरंजन जीवों को बहुत दुख दे रहा है । तुम जीवों को सत्यनाम संदेश सुनाओ । और हँसदीक्षा देकर काल के जाल से मुक्त कराओ ।
ये सुनकर सुकृत बहुत प्रसन्न हुये । और वे सत्यलोक से भवसागर में आ गये ।
इस बार सुकृत को संसार में आया देखकर काल निरंजन बहुत प्रसन्न हुआ कि इसको तो मैं अपने फ़ँदे मैं फ़ँसा ही लूँगा । तब काल निरंजन ने बहुत से उपाय अपनाकर सुकृत को फ़ँसाकर अपने जाल में डाल लिया । जब बहुत दिन बीत गये । और काल ने एक भी जीव को जब सुरक्षित नहीं छोङा । और सबको सताता मारता खाता रहा । तब जीवों ने फ़िर दुखी होकर सत्यपुरुष को पुकारा । और तब सत्यपुरुष ने मुझे पुकारा ।
सत्यपुरुष ने कहा - हे ग्यानी जी ! शीघ्र ही संसार में जाओ । मैंने जीवों के उद्धार के लिये सुकृत अंश भेजा था । वह संसार में प्रकट हो गया । हमने उसे सार शब्द का रहस्य समझाकर भेजा था । परन्तु वह वापस सत्यलोक लौटकर नहीं आया । और काल निरंजन के जाल में फ़ँसकर सुधि बुधि ( स्मृति - अपनी पहचान ) भूल गया ।
हे ग्यानी जी ! तुम जाकर उसे अचेत निद्रा से जगाओ । जिससे मुक्ति पँथ चले । वंश 42 हमारा अंश है । जो सुकृत के घर अवतार लेगा । ग्यानी जी तुम शीघ्र सुकृत के पास जाओ । और उसकी काल फ़ाँस मिटा दो ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! तब सत्यपुरुष की आग्या से मैं तुम्हारे पास आया हूँ । हे धर्मदास ! तुम सोचो विचारो कि तुम जैसे नीरू से होकर जन्मे हो । और तुम्हारी स्त्री आमिन नीमा से होकर जन्मी है । वैसे ही मैं तुम्हारे घर आया हूँ । तुम तो मेरे सबसे अधिक प्रिय अंश हो । इसलिये मैंने तुम्हें दर्शन दिया । अबकी बार तुम मुझे पहचानो । तब मैं तुम्हें सत्यपुरुष का उपदेश कहूँगा । यह वचन सुनते ही धर्मदास दौङकर कबीर साहब के चरणों में गिर गये । और रोने लगे ।
आगे शीघ्र प्रकाशित होगा ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! राजस्थल देश के राजा का नाम बंकेज था । मैंने उसे नाम उपदेश दिया । और जीवों के उद्धार के लिये कर्णधार केवट बनाया । राजस्थल देश से मैं शाल्मलि दीप आया । और वहाँ मैंने एक संत सहते जी को चेताया । और उसे जीवों का उद्धार करने के लिये समस्त गुरु ग्यान दीक्षा प्रदान की ।
फ़िर मैं वहाँ से दरभंगा आया । जहाँ राजा चतुर्भुज स्वामी का निवास था । उसको भी पात्र जानकर मैंने जीवों को चेताने हेतु गुरुवाई ( जीवों को चेताने और नाम उपदेश देने वाला ) बनाया । उसने जरा भी माया मोह नहीं किया । तब मैंने उसे सत्यनाम देकर गुरुवाई दी ।
हे धर्मदास ! मैंने हँस का निर्मल ग्यान रहनी गहनी सुमरन आदि इन कङिहार गुरुओं को अच्छी तरह बताया । वे सब कुल मर्यादा काम मोह आदि विषयों का त्याग कर सार गुणों को जानने वाले हुये । चतुर्भुज । बंकेज । सहते जी और चौथे धर्मदास तुम । ये चारों जीव के कङिहार हैं । अर्थात जीव को सत्यग्यान बताकर भवसागर से पार लगाने वाले हैं । यह मैंने तुमसे अटल सत्य कहा है ।
हे धर्मदास ! अब तुम्हारे हाथ से मुझको जम्बू दीप ( भारत ) के जीव मिलेंगे । जो मेरे उपदेश को गृहण करेगा । काल निरंजन उससे दूर ही रहेगा ।
तब धर्मदास बोले - हे साहिब ! मैं पाप कर्म करने वाला । दुष्ट और निर्दयी था । और मेरा जीवात्मा सदा भृम से अचेत रहा । तब मेरे किस पुण्य से आपने मुझे अग्यान निद्रा से जगाया । और कौन से तप से मैंने आपका दर्शन पाया । वह मुझे आप बतायें ।
कबीर साहब बोले - तुम्हें समझाने और दर्शन देने के पीछे क्या कारण था ? अब वह तुम मुझसे सुनो । तुम अपने पिछले जन्मों की बात सुनो । जिस कारण मैं तुम्हारे पास आया ।
संत सुदर्शन जो द्वापर में हुये । वह कथा मैंने तुम्हें सुनाई । जब मैं उसके हँस जीव को सत्यलोक ले गया । तब उसने मुझसे विनती की । और बोला - हे सदगुरु ! मेरी विनती सुने । और मेरे माता पिता को मुक्ति दिलायें । हे बन्दीछोङ ! उनका आवागमन मेटकर छुङाने की कृपा करें । यम के देश में उन्होंने बहुत दुख पाया है ।
मैंने बहुत तरीके से उनको समझाया । परन्तु तब उन्होंने मेरी बात नहीं मानी । और विश्वास ही नहीं किया । लेकिन उन्होंने भक्ति करने से मुझे कभी नहीं रोका । जब मैं आपकी भक्ति करता । तो कभी उनके मन में वैरभाव नहीं होता । बल्कि प्रसन्नता ही होती । इसी से हे प्रभु ! मेरी विनती है कि आप बन्दीछोङ उनके जीव को मुक्त करायें ।
जब सुदर्शन श्वपच ने बारबार ऐसी विनती की । तो मैंने उसको मान लिया । और संसार में कबीर नाम से आया । मैं निरंजन के एक वचन से बँधा था । फ़िर भी सुदर्शन श्वपच की विनती पर मैं भारत आया । मैं वहाँ गया । जहाँ संत श्वपच के माता पिता लक्ष्मी और नरहर नाम से रहते थे । हे भाई ! उन्होंने श्वपच के साथ वाली देह छोङ दी थी । और सुदर्शन के पुण्य से उसके माता पिता 84 में न जाकर पुनः मनुष्य देह में ब्राह्मण होकर उत्पन्न हुये थे । जब दोनों का जन्म हो गया । तब फ़िर विधाता ने समय अनुसार उन्हें पति पत्नी के रूप में मिला दिया ।
तब उस ब्राह्मण का नाम कुलपति और उसकी पत्नी का नाम महेश्वरी था । बहुत समय बीत जाने पर भी महेश्वरी के संतान नहीं हुयी थी । तब पुत्र प्राप्ति हेतु उसने स्नान कर सूर्यदेव का वृत रखा । वह आंचल फ़ैलाकर दोनों हाथ जोङकर सूर्य से प्रार्थना करती । उसका मन बहुत रोता था ।
तब उसी समय मैं ( कबीर साहब ) उसके आंचल में बालक रूप धरकर प्रकट हो गया । मुझे देखकर महेश्वरी बहुत प्रसन्न हुयी । और मुझे घर ले गयी । और अपने पति से बोली - प्रभु ने मुझ पर कृपा की । और मेरे सूर्य वृत करने का फ़ल यह बालक मुझको दिया ।
मैं बहुत दिनों तक वहाँ रहा । वे दोनों स्त्री पुरुष मिलकर मेरी बहुत सेवा करते । पर वे निर्धन होने से बहुत दुखी थे । तब मैंने ऐसा विचार किया । पहले मैं इनकी गरीबी दूर करूँ । फ़िर इनको भक्ति मुक्ति का उपदेश करूँ । इसके लिये मैंने एक लीला की । जब ब्राह्मण स्त्री ने मेरा पालना हिलाया । तो उसे उसमें एक तौला सोना मिला ।
फ़िर मेरे बिछौने से उन्हें रोज एक तौला सोना मिलता था । उससे वे बहुत सुखी हो गये । तब मैंने उनको सत्य शब्द का उपदेश किया । और उन दोनों को बहुत तरह से समझाया । परन्तु उनके ह्रदय में मेरा उपदेश नहीं समाया । बालक जानकर उन्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं आया । उस देह में उन्होंने मुझे नहीं पहचाना । तब मैं वह शरीर त्याग कर गुप्त हो गया ।
तब कुछ समय बाद उस ब्राह्मण कुलपति और उसकी स्त्री महेश्वरी दोनों ने शरीर छोङा । और मेरे दर्शन के प्रभाव से उन्हें फ़िर से मनुष्य शरीर मिला । फ़िर दोनों समय अनुसार पति पत्नी हुये । और वह चंदनवारे नगर में जाकर रहने लगे । इस जन्म में उस औरत का नाम ऊदा और पुरुष का नाम चंदन था । तब मैं सत्यलोक से आकर पुनः चंदवारे नगर में प्रगट हुआ ।
उस स्थान पर मैंने बालक रूप बनाया । और वहाँ तालाब में विश्राम किया । तालाब में मैंने कमल पत्र पर आसन लगाया । और आठ पहर वहाँ रहा ।
तब उस तालाब में ऊदा स्नान करने आयी । और सुन्दर बालक देखकर मोहित हो गयी । और मुझे अपने घर ले गयी । उसने अपने पति चंदन साहू को बताया कि ये बालक किस प्रकार मुझे मिला ।
तब चंदन साहू बोला - अरे ऊदा ! तू मूर्ख स्त्री है । शीघ्र जाओ । और इस बालक को वहीं डाल आओ । वरना हमारी जाति कुटुम्ब के लोग हम पर हँसेगे । और उनके हँसने से हमें दुख ही होगा । जब चंदन साहू क्रोधित हुआ । तो ऊदा बहुत डर गयी ।
तब चंदन साहू अपनी दासी से बोला - इस बालक को ले जा । और तालाब के जल में डाल दे ।
कबीर साहब बोले - दासी उस बालक को लेकर चल दी । और तालाब में डालने का मन बनाया । उसी समय मैं अंतर्ध्यान हो गया । यह देखकर वह बिलख बिलखकर रोने लगी । वह मन से बहुत परेशान थी । और ये चमत्कार देखकर मुग्ध होती हुयी बालक को खोजती थी । पर मुँह से कुछ न बोलती थी ।
इस प्रकार आयु पूरी होने पर चंदन साहू और ऊदा ने भी शरीर छोङ दिया । और फ़िर दोनों ने मनुष्य जन्म पाया । अबकी बार उन दोनों को जुलाहा कुल में मनुष्य शरीर मिला । फ़िर से विधाता का संयोग हुआ । और फ़िर से समय आने पर वे पति पत्नी बन गये ।
इस जन्म में उन दोनों का नाम नीरू नीमा हुआ । नीरू नाम का वह जुलाहा काशी में रहता था । तब एक दिन जेठ का महीना । और शुक्ल पक्ष । तथा बरसाइत पूर्णिमा की तिथि थी । जब नीरू अपनी पत्नी नीमा के साथ लहरतारा तालाब मार्ग से जा रहा था । तब गर्मी से व्याकुल उसकी पत्नी को जल पीने की इच्छा हुयी । और तभी मैं उस तालाब के कमलपत्र पर शिशु रूप में प्रकट हो गया । और बाल क्रीङा करने लगा ।
जल पीने आयी नीमा मुझे देखकर हैरान रह गयी । और उसने दौङकर मुझे उठा लिया । और अपने पति के पास ले आयी ।
तब नीमा ने मुझे देखकर बहुत क्रोध किया । और कहा - इस बालक को वहीं डाल दो ।
इस पर नीमा सोच में पङ गयी । तब मैंने उससे कहा - हे नीमा सुनो । मैं तुम्हें समझाकर कहता हूँ । पिछले ( जन्म के ) प्रेम के कारण मैंने तुम्हें दर्शन दिया । क्योंकि पिछले जन्म में तुम दोनों सुदर्शन के माता पिता थे । और मैंने उसे वचन दिया था कि तुम्हारे माता पिता का अवश्य उद्धार करूँगा । इसलिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ । अब तुम मुझे घर ले चलो । और मुझे पहचान कर अपना गुरु बनाओ । तब मैं तुम्हें सत्यनाम उपदेश दूँगा । जिससे तुम काल निरंजन के फ़ँदे से छूट जाओगे ।
तब नीमा ने नीरू की बात का भय नहीं माना । और मुझे अपने घर ले गयी । इस प्रकार मैं काशी नगर में आ गया । और बहुत दिनों तक उनके साथ रहा । पर उन्हें मुझ पर विश्वास नहीं आया । वे मुझे अपना बालक ही समझते रहे । और मेरे शब्द उपदेश पर ध्यान नहीं दिया ।
हे धर्मदास ! बिना विश्वास और समर्पण के जीवन मुक्ति का कार्य नहीं होता । अतः ऐसा निर्णय करके गुरु के वचनों पर दृणतापूर्वक विश्वास करना चाहिये । अतः उस शरीर में नीरू नीमा ने मुझे नहीं पहचाना । और मुझे अपना बालक जानकर सतसंग नहीं किया ।
हे धर्मदास ! जब जुलाहा कुल में भी नीरू नीमा की आयु पूरी हुयी । और उन्होंने फ़िर से शरीर त्याग कर दुबारा मनुष्य रूप में मथुरा में जन्म लिया ।
तब मैंने वहाँ मथुरा में जाकर उनको दर्शन दिया । अबकी बार उन्होंने मेरा शब्द उपदेश मान लिया । और उस औरत का रतना नाम हुआ । वह मन लगाकर भक्ति करती थी । मैंने उन दोनों स्त्री पुरुषों को शब्द नाम उपदेश दिया । इस तरह वे मुक्त हो गये । और सत्यलोक में जाकर हँस शरीर प्राप्त किया । उन हँसो को देखकर स्त्यपुरुष बहुत प्रसन्न हुये । और उन्हें सुकृत नाम दिया ।
जब सत्यलोक में रहते हुये मुझे बहुत दिन बीत गये । तब तक काल निरंजन ने बहुत जीवों को सताया । हे भाई ! जब काल निरंजन जीवों को बहुत दुख देने लगा । तब सत्यपुरुष ने सुकृत को पुकारा ।
और कहा - हे सुकृत ! तुम संसार में जाओ । वहाँ अपार बलबान काल निरंजन जीवों को बहुत दुख दे रहा है । तुम जीवों को सत्यनाम संदेश सुनाओ । और हँसदीक्षा देकर काल के जाल से मुक्त कराओ ।
ये सुनकर सुकृत बहुत प्रसन्न हुये । और वे सत्यलोक से भवसागर में आ गये ।
इस बार सुकृत को संसार में आया देखकर काल निरंजन बहुत प्रसन्न हुआ कि इसको तो मैं अपने फ़ँदे मैं फ़ँसा ही लूँगा । तब काल निरंजन ने बहुत से उपाय अपनाकर सुकृत को फ़ँसाकर अपने जाल में डाल लिया । जब बहुत दिन बीत गये । और काल ने एक भी जीव को जब सुरक्षित नहीं छोङा । और सबको सताता मारता खाता रहा । तब जीवों ने फ़िर दुखी होकर सत्यपुरुष को पुकारा । और तब सत्यपुरुष ने मुझे पुकारा ।
सत्यपुरुष ने कहा - हे ग्यानी जी ! शीघ्र ही संसार में जाओ । मैंने जीवों के उद्धार के लिये सुकृत अंश भेजा था । वह संसार में प्रकट हो गया । हमने उसे सार शब्द का रहस्य समझाकर भेजा था । परन्तु वह वापस सत्यलोक लौटकर नहीं आया । और काल निरंजन के जाल में फ़ँसकर सुधि बुधि ( स्मृति - अपनी पहचान ) भूल गया ।
हे ग्यानी जी ! तुम जाकर उसे अचेत निद्रा से जगाओ । जिससे मुक्ति पँथ चले । वंश 42 हमारा अंश है । जो सुकृत के घर अवतार लेगा । ग्यानी जी तुम शीघ्र सुकृत के पास जाओ । और उसकी काल फ़ाँस मिटा दो ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! तब सत्यपुरुष की आग्या से मैं तुम्हारे पास आया हूँ । हे धर्मदास ! तुम सोचो विचारो कि तुम जैसे नीरू से होकर जन्मे हो । और तुम्हारी स्त्री आमिन नीमा से होकर जन्मी है । वैसे ही मैं तुम्हारे घर आया हूँ । तुम तो मेरे सबसे अधिक प्रिय अंश हो । इसलिये मैंने तुम्हें दर्शन दिया । अबकी बार तुम मुझे पहचानो । तब मैं तुम्हें सत्यपुरुष का उपदेश कहूँगा । यह वचन सुनते ही धर्मदास दौङकर कबीर साहब के चरणों में गिर गये । और रोने लगे ।
आगे शीघ्र प्रकाशित होगा ।
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