कबीर साहब बोले - हे धर्मदास सुनो । सतयुग में जिन जीवों को मैंने नाम ग्यान का उपदेश किया था । सतयुग में मेरा नाम सत सुकृत था । मैं उस समय राजा धोंधल के पास गया । और उसे सार शब्द का उपदेश सुनाया । उसने मेरे ग्यान को स्वीकार किया । और उसे मैंने नाम दिया । इसके बाद में मथुरा नगरी आया । यहाँ मुझे खेमसरी नाम की स्त्री मिली । उसके साथ अन्य स्त्री वृद्ध और बच्चे भी थे ।
खेमसरी बोली - हे पुरुष पुरातन ! आप कहाँ से आये हो ?
तब मैंने उससे सत्यपुरुष । सत्यलोक । तथा काल निरंजन आदि का वर्णन किया । खेमसरी ने ये सब सुना । और उसके मन में सत्यपुरुष के लिये प्रेम भी उत्पन्न हुआ । उसके मन में ग्यान भाव आया । और उसने काल निरंजन की चाल को भी समझा ।
पर खेमसरी के मन में एक संदेह था कि अपनी आँखों से सत्यलोक देखूँ । तब ही मेरे मन में विश्वास हो । तब मैंने ( सत सुकृत ) उसके शरीर को वहीं रहता हुआ । उसकी आत्मा को एक पल में सतलोक पहुँचा दिया ।
फ़िर अपनी देह में आते ही खेमसरी सत्यलोक को याद करके पछताने लगी । और बोली - हे साहिब ! आपने जो देश दिखाया है । मुझे उसी देश अमरलोक ले चलो । यहाँ तो बहुत काल कलेश दुख पीङा है । यहाँ सिर्फ़ झूठी मोह माया का पसारा है ।
तब मैनें कहा - हे खेमसरी सुनो । जब तक आयु पूरी नहीं हो जाती । तब तक तुम्हें मैं सत्यलोक नहीं ले जा सकता । इसलिये अपनी आयु रहने तक मेरे दिये हुये सत्यनाम का सुमरन करो । अब क्योंकि तुमने तो सत्यलोक देखा है । इसलिये आयु रहने तक तुम दूसरे जीवों को सार शब्द का उपदेश करो ।
जब किसी ग्यानवान मनुष्य के द्वारा एक भी जीव सत्यपुरुष की शरण में आता है । तब ऐसा ग्यानवान मनुष्य सत्यपुरुष को बहुत प्रिय होता है ।
जैसे यदि कोई गाय शेर के मुख में जाती हो । यानी शेर उसे खाने वाला हो । और तब कोई बलबान मनुष्य आकर उसे छुङा ले । तो सभी उसकी बङाई करते हैं । जैसे बाघ अपने चंगुल में फ़ँसी गाय को सताता डराता भयभीत करता हुआ मार डालता है । ऐसे ही काल निरंजन जीवों को दुख देता हुआ मारकर खा जाता है । इसलिये जो भी मनुष्य एक भी जीव को सत्यपुरुष की भक्ति में लगाकर काल निरंजन से बचा लेता है । तो वह मनुष्य करोंङो गाय को बचाने के समान पुण्य पाता है ।
( अब समझ गये । आप लोग । मेरे मेहनत करने का कारण - राजीव )
तब खेमसरी मेरे चरणों में गिर पङी । और बोली - हे साहिब ! मुझ पर दया कीजिये । और मुझे इस क्रूर रक्षक के वेश में भक्षक काल निरंजन से बचा लीजिये ।
तब मैंने कहा - हे खेमसरी सुन । यह काल निरंजन का देश है । उसके जाल में फ़ँसने का जो अंदेशा है । वह सत्यपुरुष के नाम से दूर हो जाता है ।
तब खेमसरी बोली - हे साहिब ! आप मुझे वह नामदान ( दीक्षा ) दीजिये । और काल के पंजो से छुङाकर अपनी आत्मा ( गुरु की ) बना लीजिये । हे साहिब ! हमारे घर में भी जो अन्य जीव हैं उन्हें भी ये नाम दीजिये ।
हे धरमदास ! तब मैं खेमसरी के घर गया । और सभी जीवों को सत्यनाम उपदेश किया । सब नर नरी मेरे चरणों में गिर गये ।
तब खेमसरी अपने घरवालों से बोली - हे भाई ! यदि अपने जीवन की मुक्ति चाहते हो । तो आकर सदगुरु से शब्द उपदेश गृहण करो । ये यम के फ़ंदे से छुङाने वालें हैं । तुम यह बात सत्य जानों ।
खेमसरी के इन वचनों से सबको विश्वास हो गया । और सब ने आकर विनती की ।
हे साहिब ! हे बन्दीछोङ गुरु हमारा उद्धार करो । जिससे यम का फ़ंदा नष्ट हो जाये । और जन्म जन्म का कष्ट ( जीवन मरण ) मिट जाये ।
( इसके बाद दीक्षा की विधि सामान आदि वर्णन मैंने छोङ दिया है । वह किसी अलग लेख में - राजीव )
तब मैंने उन सबको नामदान करते हुये ध्यान साधना ( नाम जप ) के बारे में, समझाया । और सार नाम से हँस जीव को बचाया ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! इस तरह सतयुग में मैं 12 जीवों को नाम उपदेश कर सत्यलोक चला गया । हे धर्मदास ! सत्यलोक में रहने वाले जीवों की शोभा मुख से कही नहीं जाती । वहाँ एक हँस ( आत्मा ) का दिव्य प्रकाश 16 सूर्यों के बराबर होता है ।
फ़िर मैंने कुछ समय तक सत्यलोक में निवास किया । और दोबारा भवसागर में आकर अपने दीक्षित हँस जीवों धोंधल खेमसरी आदि को देखा । मैं रात दिन संसार में गुप्त रूप से रहता हूँ । पर मुझको कोई पहचान नहीं पाता ।
फ़िर सतयुग बीत गया । त्रेता आया । तब त्रेता में मैं मुनीन्द्र स्वामी के नाम से संसार में आया । मुझे देखकर काल निरंजन को बङा अफ़सोस हुआ । उसने सोचा । इन्होंने तो मेरे भवसागर को ही उजाङ दिया । ये जीव को सत्यनाम का उपदेश कर सत्यपुरुष के दरबार में ले जाते हैं । मैंने कितने छल बल के उपाय किये । पर उससे ग्यानी जी को कोई डर नहीं हुआ । वे मुझसे नहीं डरते हैं । ग्यानी जी के पास सत्यपुरुष का बल है । उससे मेरा बस इन पर नहीं चलता है । और न ही ये मेरे काल माया के जाल में फ़ँसते हैं ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जैसे सिंह को देखकर हाथी का ह्रदय भय से कांपने लगता है । और वह प्रथ्वी पर गिर पङता है । वैसे ही सत्यपुरुष के नाम से काल निरंजन भय से थरथर कांपता है ।
खेमसरी बोली - हे पुरुष पुरातन ! आप कहाँ से आये हो ?
तब मैंने उससे सत्यपुरुष । सत्यलोक । तथा काल निरंजन आदि का वर्णन किया । खेमसरी ने ये सब सुना । और उसके मन में सत्यपुरुष के लिये प्रेम भी उत्पन्न हुआ । उसके मन में ग्यान भाव आया । और उसने काल निरंजन की चाल को भी समझा ।
पर खेमसरी के मन में एक संदेह था कि अपनी आँखों से सत्यलोक देखूँ । तब ही मेरे मन में विश्वास हो । तब मैंने ( सत सुकृत ) उसके शरीर को वहीं रहता हुआ । उसकी आत्मा को एक पल में सतलोक पहुँचा दिया ।
फ़िर अपनी देह में आते ही खेमसरी सत्यलोक को याद करके पछताने लगी । और बोली - हे साहिब ! आपने जो देश दिखाया है । मुझे उसी देश अमरलोक ले चलो । यहाँ तो बहुत काल कलेश दुख पीङा है । यहाँ सिर्फ़ झूठी मोह माया का पसारा है ।
तब मैनें कहा - हे खेमसरी सुनो । जब तक आयु पूरी नहीं हो जाती । तब तक तुम्हें मैं सत्यलोक नहीं ले जा सकता । इसलिये अपनी आयु रहने तक मेरे दिये हुये सत्यनाम का सुमरन करो । अब क्योंकि तुमने तो सत्यलोक देखा है । इसलिये आयु रहने तक तुम दूसरे जीवों को सार शब्द का उपदेश करो ।
जब किसी ग्यानवान मनुष्य के द्वारा एक भी जीव सत्यपुरुष की शरण में आता है । तब ऐसा ग्यानवान मनुष्य सत्यपुरुष को बहुत प्रिय होता है ।
जैसे यदि कोई गाय शेर के मुख में जाती हो । यानी शेर उसे खाने वाला हो । और तब कोई बलबान मनुष्य आकर उसे छुङा ले । तो सभी उसकी बङाई करते हैं । जैसे बाघ अपने चंगुल में फ़ँसी गाय को सताता डराता भयभीत करता हुआ मार डालता है । ऐसे ही काल निरंजन जीवों को दुख देता हुआ मारकर खा जाता है । इसलिये जो भी मनुष्य एक भी जीव को सत्यपुरुष की भक्ति में लगाकर काल निरंजन से बचा लेता है । तो वह मनुष्य करोंङो गाय को बचाने के समान पुण्य पाता है ।
( अब समझ गये । आप लोग । मेरे मेहनत करने का कारण - राजीव )
तब खेमसरी मेरे चरणों में गिर पङी । और बोली - हे साहिब ! मुझ पर दया कीजिये । और मुझे इस क्रूर रक्षक के वेश में भक्षक काल निरंजन से बचा लीजिये ।
तब मैंने कहा - हे खेमसरी सुन । यह काल निरंजन का देश है । उसके जाल में फ़ँसने का जो अंदेशा है । वह सत्यपुरुष के नाम से दूर हो जाता है ।
तब खेमसरी बोली - हे साहिब ! आप मुझे वह नामदान ( दीक्षा ) दीजिये । और काल के पंजो से छुङाकर अपनी आत्मा ( गुरु की ) बना लीजिये । हे साहिब ! हमारे घर में भी जो अन्य जीव हैं उन्हें भी ये नाम दीजिये ।
हे धरमदास ! तब मैं खेमसरी के घर गया । और सभी जीवों को सत्यनाम उपदेश किया । सब नर नरी मेरे चरणों में गिर गये ।
तब खेमसरी अपने घरवालों से बोली - हे भाई ! यदि अपने जीवन की मुक्ति चाहते हो । तो आकर सदगुरु से शब्द उपदेश गृहण करो । ये यम के फ़ंदे से छुङाने वालें हैं । तुम यह बात सत्य जानों ।
खेमसरी के इन वचनों से सबको विश्वास हो गया । और सब ने आकर विनती की ।
हे साहिब ! हे बन्दीछोङ गुरु हमारा उद्धार करो । जिससे यम का फ़ंदा नष्ट हो जाये । और जन्म जन्म का कष्ट ( जीवन मरण ) मिट जाये ।
( इसके बाद दीक्षा की विधि सामान आदि वर्णन मैंने छोङ दिया है । वह किसी अलग लेख में - राजीव )
तब मैंने उन सबको नामदान करते हुये ध्यान साधना ( नाम जप ) के बारे में, समझाया । और सार नाम से हँस जीव को बचाया ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! इस तरह सतयुग में मैं 12 जीवों को नाम उपदेश कर सत्यलोक चला गया । हे धर्मदास ! सत्यलोक में रहने वाले जीवों की शोभा मुख से कही नहीं जाती । वहाँ एक हँस ( आत्मा ) का दिव्य प्रकाश 16 सूर्यों के बराबर होता है ।
फ़िर मैंने कुछ समय तक सत्यलोक में निवास किया । और दोबारा भवसागर में आकर अपने दीक्षित हँस जीवों धोंधल खेमसरी आदि को देखा । मैं रात दिन संसार में गुप्त रूप से रहता हूँ । पर मुझको कोई पहचान नहीं पाता ।
फ़िर सतयुग बीत गया । त्रेता आया । तब त्रेता में मैं मुनीन्द्र स्वामी के नाम से संसार में आया । मुझे देखकर काल निरंजन को बङा अफ़सोस हुआ । उसने सोचा । इन्होंने तो मेरे भवसागर को ही उजाङ दिया । ये जीव को सत्यनाम का उपदेश कर सत्यपुरुष के दरबार में ले जाते हैं । मैंने कितने छल बल के उपाय किये । पर उससे ग्यानी जी को कोई डर नहीं हुआ । वे मुझसे नहीं डरते हैं । ग्यानी जी के पास सत्यपुरुष का बल है । उससे मेरा बस इन पर नहीं चलता है । और न ही ये मेरे काल माया के जाल में फ़ँसते हैं ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जैसे सिंह को देखकर हाथी का ह्रदय भय से कांपने लगता है । और वह प्रथ्वी पर गिर पङता है । वैसे ही सत्यपुरुष के नाम से काल निरंजन भय से थरथर कांपता है ।
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