01 जून 2011

प्रेम एक मौलिक घटना है

साधु और नर्तकी । क्या चाहिए - स्वर्ग या नरक ? किसी गाँव मेँ एक साधु रहता था । जो दिन भर लोगोँ को उपदेश दिया करता था । उसी गाँव मेँ एक नर्तकी थी । जो लोगोँ के सामनेँ नाचकर उनका मन बहलाया करती थी । एक दिन गाँव मेँ बाढ़ आ गयी । और दोनोँ एक साथ ही मर गये । मरनेँ के बाद जब ये दोनोँ यमलोक पहुँचे । तो इनके कर्मोँ और उनके पीछे छिपी भावनाओँ के आधार पर इन्हेँ स्वर्ग या नरक दिये जानेँ की बात कही गई । साधु खुद को स्वर्ग मिलनेँ को लेकर पूरा आश्वस्त था । वहीँ नर्तकी अपनेँ मन मेँ ऐसा कुछ भी विचार नहीँ कर रही थी । नर्तकी को सिर्फ फैसले का इंतजार था । तभी घोषणा हुई कि साधु को नरक और नर्तकी को स्वर्ग दिया जाता है । इस फैसले को सुनकर साधु गुस्से से यमराज पर चिल्लाया । और क्रोधित होकर पूछा - यह कैसा न्याय है महाराज ? मैँ जीवन भर लोगोँ को उपदेश देता रहा । और मुझे नरक नसीब हुआ । जबकि यह स्त्री जीवन भर लोगोँ को रिझानेँ के लिये नाचती रही । और इसे स्वर्ग दिया जा रहा है । ऐसा क्योँ ? यमराज नेँ शांत भाव से उत्तर दिया - यह नर्तकी अपना पेट भरनेँ के लिये नाचती थी । लेकिन इसके मन मेँ यही भावना थी कि मैँ अपनी कला को ईश्वर के चरणोँ मेँ समर्पित कर रही हूँ । जबकि तुम उपदेश देते हुये भी यह सोँचते थे कि कि काश तुम्हे भी नर्तकी का नाच देखने को मिल जाता । हे साधु ! लगता है । तुम इस ईश्वर के इस महत्त्वपूर्ण सन्देश को भूल गए कि इंसान के कर्म से अधिक कर्म करने के पीछे की भावनाएं मायने रखती है । अतः तुम्हे नरक और नर्तकी को स्वर्ग दिया जाता है । मित्रों, हम कोई भी काम करें । उसे करने के पीछे की नियत साफ़ होनी चाहिए । अन्यथा दिखने में भले लगने वाले काम भी हमे पुण्य की जगह पाप का ही भागी बना देंगे ।
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मैं यहां अपने संन्यासियों को एक करने की चेष्टा में रत हूं । मैं चाहता हूं । उनके सारे आदर्श छीन लूं । क्योंकि उन आदर्शों के कारण वे पाखंडी हो गए हैं । तुम सोचते हो आदर्शों के बिना आदमी का पतन हो जाएगा । मैं सोचता हूं । आदर्शों के कारण ही आदमी पाखंडी हुआ है । मनुष्य को उसकी वास्तविकता के दर्शन होने चाहिए । आदर्श की आवश्यकता नहीं है । अपनी भाषा में बोलो । और हुए होंगे बड़े बड़े पंडित । और उन्होंने बड़े सुंदर प्रार्थना के पद रचे होंगे । मगर वे उधार हैं । तुम तुतलाओ सही । मगर अपनी ही भाषा में । तुम अपनी ही बात कहो । कम से कम परमात्मा के सामने तो तुम अपनी ही बात कहो । देखते हो । मां के सामने उसका बेटा तुतलाता भी है । तो खुश हो जाती है । कम से कम तुतलाहट उसकी अपनी तो है । अपने हृदय से आती है ।
शिकायत न उठे । धन्यवाद बना रहे । दुख में भी धन्यवाद बना रहे । क्योंकि दिया है उसने । तो सकारण होगा । हम न समझ पाते होंगे । हम न पहचान पाते होंगे । लेकिन जरूर दुख में से भी कुछ निष्पन्न होता होगा । कोई प्रौढ़ता आती होगी । कोई परिपक्वता आती होगी । कुछ ज्ञान का जन्म होता होगा । हर पीड़ा प्रसव पीड़ा है । ऐसी भाव दशा बन जाए तो - प्रार्थना ।
मैं तुम्हें कहता हूं कि जीवन एक उत्सव है । नास्तिक हो, चलेगा । कोई अड़चन नहीं है । जीवन के उत्सव को मानने में तो कोई अड़चन नहीं है । उत्सव तो हो ही रहा है । पक्षी तो गा रहे हैं । यही प्रार्थना है । वृक्ष तो मौन में खड़े ही हैं । यही ध्यान है । सत्संग के बिना कोई पूजा नहीं है । सदगुरु के बिना कोई मंदिर का द्वार खुलेगा नहीं ।
पूजा तुमने की होगी बहुत । वह क्रियाकांड ही रही । पंडितों से सीखी होगी पूजा । और पंडित वे हैं । जिन्हें स्वयं भी पूजा का कोई पता नहीं । शास्त्रों से सीखी होगी पूजा । शास्त्रों में शब्द हैं निश्चित । लेकिन सत्य नहीं । तुम लाश को ढोते रहे । तुम्हारा जीवंत व्यक्तित्व से संस्पर्श नहीं हुआ ।
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कोई स्त्री किसी बच्चे को गोद ले ले । तो बस धोखा ही धोखा है । वह मां कभी नहीं बन पाएगी । क्योंकि मां बनने की अनिवार्य प्रक्रिया से तो वंचित रह गई । किसी के प्रेम में पड़ना था । प्रेम की किसी गहन घड़ी में गर्भाधान होता । फिर नौ महीने की पीड़ा थी । गर्भ का बोझ था । फिर बच्चे के जन्म का सारा कष्ट झेलना था । वह तपश्चर्या थी । प्रेम, पीड़ा, बच्चे के जन्म की प्रसव पीड़ा । इन सबके भीतर ही मातृत्व का जन्म होता है । तुमने सस्ता रास्ता खोजा । तुमने बच्चा उधार ले लिया । तो बच्चा ‘मां’ कहेगा । पर भ्रांति में मत पड़ जाना । तुम्हारे भीतर मातृत्व का जन्म नहीं होगा । यह औपचारिकता रहेगी । ऐसी ही तुम्हारी पूजा है । तुम्हारे गर्भ से नहीं निकली । उधार - उधार है । बासी बासी है । गोद ली हुई है । इसलिए चूक होती चली जाती है ।
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विवाह - विवाह को अनैतिक कहा मैंने । विवाह करने को नहीं । जो लोग प्रेम करेंगे । वे भी साथ रहना चाहेंगे । इसलिए प्रेम से जो विवाह निकलेगा । वह अनैतिक नहीं रह जाएगा । लेकिन हम उल्टा काम कर रहे हैं । हम विवाह से प्रेम निकालने की कोशिश कर रहे हैं । जो कि नहीं हो सकता । विवाह तो एक बंधन है । और प्रेम एक मुक्ति है । लेकिन जिनके जीवन में प्रेम आया है । वे भी साथ जीना चाहें । स्वाभाविक है । लेकिन साथ जीना उनके प्रेम की छाया ही हो । जिस दिन विवाह की संस्था नहीं होगी । उस दिन स्त्री और पुरुष साथ नहीं रहेंगे । ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं । सच तो मैं ऐसा कह रहा हूं कि उस दिन ही वे ठीक से साथ रह सकेंगे । अभी साथ दिखाई पड़ते हैं । साथ रहते नहीं । साथ होना ही संग होना नहीं है । पास पास होना ही निकट होना नहीं है । जुड़े होना ही एक होना नहीं है । विवाह की संस्था को मैं अनैतिक कह रहा हूं । और विवाह की संस्था चाहेगी कि प्रेम दुनिया में न बचे । कोई भी संस्था सहज उदभावनाओं के विपरीत होती है । क्योंकि तब संस्थाएं नहीं टिक सकतीं । दो व्यक्ति जब प्रेम करते हैं । तब वह प्रेम अनूठा ही होता है । वैसा प्रेम किन्हीं दो व्यक्तियों ने कहीं किया होता है । लेकिन दो व्यक्ति जब विवाह करते हैं । तब वह अनूठा नहीं होता । तब वैसा विवाह करोड़ों लोगों ने किया है । विवाह एक पुनरुक्ति है । प्रेम एक मौलिक घटना है - ओशो ।
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One thing - you have to walk, and create the way by your walking; you will not find a ready-made path. It is not so cheap, to reach to the ultimate realization of truth. You will have to create the path by walking yourself; the path is not ready-made, lying there and waiting for you. It is just like the sky: the birds fly, but they don't leave any footprints. You cannot follow them; there are no footprints left behind -  Osho

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326