नारायण ! विश्वरूपाचार्य मण्डन कहते हैं - हे योगिन ! यदि जीव की ब्रह्म के साथ एकता हो । तो सबको प्रतीत होनी चाहिए - जीव ब्रह्म है । परन्तु एकत्व ज्ञान नहीं होता है । इसलिये दोनों में अभेद नहीं । किन्तु भेद ही है ।
शंकर स्वामी कहते हैं - अन्धेरे में घट घड़ा ज्ञात नहीं होता । तो इससे यह नहीं समझा जाता कि अन्धेरे में घड़ा नहीं है ? क्योँकि प्रकाश से अन्धकार के निवृत्त होने पर वह स्पष्ट प्रतीत होता है । इसी प्रकार अविद्या के कारण यद्यपि अभेद ज्ञान नहीं होता । फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अभेद नहीं है । क्योँकि विद्या से अविद्या के निवृत्त हो जाने पर अभेद स्पष्ट ज्ञात होता है ।
{ इस प्रकार बहुत दिनों तक यह शास्त्रार्थ होता रहा । दोनों वादियों ने अपने अपने पक्ष की सिद्धि में बहुत से तर्क दिये । प्रमाण उपस्थित किये । परन्तु अन्त में यतिवर भगवत्पाद ने मण्डन मिश्र को सब प्रकार से निरुत्तर कर शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया । आचार्य की इन अकाटय व दृढ़ युक्तियों का सरस्वती ने अनुमोदन किया । उसने मण्डन मिश्र के हर्ष को खेद मे परिवर्तित कर दिया । पति के भावी संन्यास ग्रहण करने के कारण खिन्न होकर सरस्वती ने अपने साक्षी होने का प्रमाण भी दे दिया । जिससे प्रसन्न होकर देवताओं ने आकाश से सुगन्धित पुष्पों की वृष्टि की । }
इत्थं यतिक्षितिपतेरनुमोद्य युक्तिं मालां च मण्डनगले मलिनामवेक्ष्य ।
भिक्षार्थमुच्चलतमद्य युवामितिमावाचष्ट तं पुनरुवाच यतिन्दमम्बा ।
यतिराज की युक्तियों का अनुमोदन कर और मण्डन के गले की माला को मलीन देख उभय भारती ने कहा - आप दोनों भिक्षा के लिए चलिये । और शंकर से वह विशेष रूप से फिर बोली - प्राचीन काल में अति क्रोध वश दुर्वासा ने मुझे शाप दिया था । उस शाप की अवधि आपका यह विजय है । अब मेरा यह शाप समाप्त हो गया । इसलिये हे यतिन्द्र ! मैं अपने धाम को जा रही हूँ । इतना कहकर जब उभय भारती शीघ्रता पूर्वक जाने लगी । तब आचार्य शंकर ने नवदुर्गा मन्त्र द्वारा उन्हें बाँध रखा । क्योंकि वे उनको भी परास्त करना चाहते थे । शंकर स्वामी का सरस्वती के ऊपर विजय पाना अपनी सर्वज्ञता दिखला कर प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिये नहीं था । किन्तु अपने अद्वैत सिद्धान्त की सिद्धि के लिये था ।
आचार्य शंकर सरस्वती से बोले - मैं आपको भली भाँति जानता हूँ । आप शिव की सहोदर बहन है । तथा ब्रह्मा की धर्म पत्नी हैं । इस संसार के कल्याणार्थ आपने अवतार धारण किया है । इसलिये जब तक आपके जाने में हमारी इच्छा न हो । तब तक आप यहाँ विराजमान हों । आचार्य के सारगर्भित वचनों को सुनकर सरस्वती ने शंकर स्वामी के अनुकूल होने की अनुमति दे दी । तब मुनि आनन्द से गदगद हो गये । और मण्डन मिश्र के हृदयगत भावों को जानने के लिए उत्सुक हुए ।
यतिश्रेष्ठ आचार्य शंकर भगवत्पाद के वेदार्थ निर्णय करने वाले, न्याय से युक्त वचनों से मण्डन मिश्र ने जब अपने को शास्त्रार्थ में परास्त होने का अनुभव किया । तब उनका द्वैताग्रह यद्यपि शान्त हो गया । तो भी उन्होंने सन्देह कर सभा में यह कहा - हे यतिन्द्र ! मुझे इस समय अपने अभिनव पराजय से तनिक भी दुःख नहीं है । किन्तु इस बात का खेद अवश्य है कि त्रिकालज्ञ जैमिनि मुनि के वचनों का आपने खण्डन किया है । वे तपोनिधि वेदों के प्रचार और जगत के हित में रत थे । भला इन्होंने गलत सूत्रों की रचना क्यों की ?
सर्वज्ञ शंकर देशिक कहते हैं - जैमिनि के सिद्धांत में कहीं पर भी अन्यास संशय तथा विपर्य नहीं है । यह केवल हमारी अनभिज्ञता है कि जिससे उनके अभिप्राय को नहीं समझ सकते । जैमिनि का अभिप्राय परमानन्द स्वरूप परब्रह्म के प्रतिपादन में ही है । परन्तु विषय प्रवाह में बहने वाले जन साधारण को उसकी ओर ले जाने के लिए पुण्य कर्मोँ को करने की व्यवस्था की । क्योँकि निष्काम पुण्य कर्मोँ से अतःकरण की शुद्धि होती है । जो ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति में सहायक है । इससे शुद्ध अतःकरण वाले व्यक्ति को ब्रह्म जिज्ञासा हो सकती है । इस अभिप्राय को श्रुति भी स्पष्ट करती है -
तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति । यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन । ब्रह्म जिज्ञासु वेदों के अध्ययन, यज्ञ, दान तथा अनाशक तप से उन ब्रह्म को जानने की इच्छा करें ।
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बहुप्रसिद्ध मंडन मिश्र और शंकराचार्य जी का शास्त्रार्थ सिर्फ़ सनातन धर्म के प्रसार भावना से यहाँ साझा किया है । जिसके मूल लेखक का पता नहीं था । यदि वो आप हैं । तो अपना लिंक दे दें । उसे यहाँ लेख में जोङ दिया जायेगा । सतसाहित्य को अधिकाधिक उपलब्ध कराना ब्लागरीय परम्परा के अंतर्गत है ।
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