आचार्य शंकर का दर्शन कर दासियाँ भी विभोर हो गईं । और सविनय उत्तर दिया - स्वतः प्रमाण परतः प्रमाण कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति । द्वारस्थनीडान्तरसन्निरीद्धा जानीहि तन्मण्डनपण्डितौकः ।
फलप्रदं कर्म फलप्रदोऽजः कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरीद्धा जानीहि तन्मण्डनपण्डितौकः ।
जगद्ध्रुवं स्याज्जगदध्रुवं स्यात् कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्धा जानीहि तन्मण्डनपण्डितौकः ।
अर्थात - जिस द्वार पर टंगे पिजरों के भीतर बैठी मैनाएँ वेद अर्थात श्रुति स्वतः प्रमाण है । अथवा परतः प्रमाण । कर्म का शुभाशुभ फल कर्म
देता है । अथवा ईश्वर । जगत ध्रुव है । अथवा अध्रुव ? इस बात पर विचार कर रही हो । उसे आप मण्डन मिश्र पण्डित का घर जानिये ।
दासियों से इस प्रकार वचन सुन आचार्य शंकर मण्डन के घर गये । परन्तु उस समय घर का द्वार बन्द था । मार्ग में दर्शक लोग उस अल्प वयस्क यतिवर का दर्शन कर मुग्ध होने लगे । तथा उनके मुख मण्डल से किसी विशेष अवतारी पुरुष की अलौकिकता का अनुभव करने लगे ।
तपोमहिम्नैवतपोनिधानं स जैमिनि सत्यवतीतनूजम ।
यथाविधि श्राद्धविधौ निमन्त्र्य तत्पादपद्मान्यवनेजयन्तम ।
उस समय मण्डन मिश्र श्राद्ध कर रहे थे । तथा अपने तपोवल से महर्षि व्यास, जैमिनि दोनों मुनियों को इस श्राद्ध विधि में आमन्त्रित कर उनके पाद पद्मों का अर्चन आदि कर रहे थे ।
तत्रान्तरिक्षादवतीर्य योगिवर्यः समागम्य यथार्हमेषः ।
द्वैपायनं जैमिनिमप्युभाभ्यां ताभ्यां सहर्षं प्रतिनन्दितोऽभूत ।
योगिराज आचार्य शंकर ने आकाश मार्ग से आँगन में उतर कर दोनों मुनियों का अभिनन्दन किया । उन दोनों मुनि श्रेष्ठों ने भी उनका सहर्ष अभिनन्दन किया । मण्डन मिश्र स्वयं कर्मकाण्ड के बड़े रसिक थे । उस समय आकाश मार्ग से उतरे हुए तथा दोनों मुनियों के साथ शिखा सूत्र रहित जब 1 सन्यासी को देखा । तो उनके क्रोध का ठिकाना न रहा । क्योंकि कुछ विद्वान लोग श्राद्ध के अवसर पर संन्यासी का आना निषिद्ध मानते हैं । जबकि यह शास्त्र विरुद्ध है । आचार्य सर्वज्ञ शंकर उनकी यह अवस्था देख विस्मित हो गये । मण्डन मिश्र ने क्रोध भरी दृष्टि से यतिन्द्र शंकर की ओर देखते हुए कहा - कुतोमुण्डश्चागलान्मुण्डी पन्थास्ते पृच्छ्यते मया । किमाह पन्थास्त्वन्माता मुण्डेत्याह तथैव हि ।
- कुतो मुण्डी ? ( हे मुण्डी ! कहाँ से आये ? ) यहाँ मुण्डी शब्द संन्यासी के प्रति अनादर सूचक सम्बोधन है । इस वाक्य दूसरा अर्थ यह
भी हो सकता है कि कहाँ से मुण्डित हो ? आचार्य शंकर ने दूसरे अर्थ को मन में रखकर कहा - आगलात मुण्डी अर्थात गले तक मुण्डन है ।
अरे ! मैं मुण्डन के विषय में नहीं पूछता । किन्तु - पन्थास्ते पृच्छ्रयते मया, मण्डन मिश्र आचार्य से कहते हैं - मैं आपके मार्ग के विषय में पूछता हूँ कि आप आये कहाँ से ? तब आचार्य शंकर ने मुस्कुराते हुए कहा - किमाह पन्थाः ? मार्ग से पूछे जाने पर उसने क्या उत्तर दिया ? मण्डन मिश्र ने चिढ़कर त्वन्माता मुण्डा मार्ग ने मुझे उत्तर दिया कि तुम्हारी माता मुण्डा है ।
आचार्य शंकर स्वामी कहते हैं - बहुत ठीक, इत्याह तथैव हि तुमने ही मार्ग से पूछा है । इसलिए वह उत्तर भी तुम्हारे लिए ही होगा । अर्थात तुम्हारी माता मुण्डा संन्यासनी है । हमारी माता नहीं ।
आचार्य के वचन को सुनकर मण्डन मिश्र ने कहा - अहो पीता किमु सुरा नैव श्वेता यतः स्मर । किं त्वं जानासि तद्वर्णमहंवर्ण भवान रसम ।
क्या तुमने सुरा अर्थात मदिरा पी है ? मदिरा पीने वाला ही इस प्रकार की बातें करते हैं । पीता शब्द का दूसरा अर्थ पीला रंग भी होता है । उसको मन में रखकर आचार्य शंकर ने कहा कि सुरा तो श्वेत होती है । पीली नहीं ।
मण्डन मिश्र कहते है - बाह ! तुम तो उसके रंग को भी जानते हो !
शंकर स्वामी कहते हैं - मैं तो केवल उसका रंग ही जानता हूँ । लेकिन आप तो उसके रस को भी जानते हैं । अतः सुरां न पिवेत ( सुरा -
मदिरा मत पियो ) इस निषिद्ध वाक्य से आप पाप के भागी हैं । मैं नहीं । क्योंकि मैं केवल रंग को जानता हूँ ।
आचार्य पर चिढ़ते हुए क्रोध में आकर मण्डन मिश्र कहते हैं - कन्थां वहसि दुर्बुद्धे गर्दभेनापि दुर्वहाम । शिखायज्ञोपवीताभ्यां कस्ते भारो भविष्यति ।
हे दुर्बुद्धे ! जब तुम गदहे द्वारा भी न ढोने योग्य कन्था ढो रहे हो । तो शिखा और यज्ञोपवीत जनेऊ में कितना भार है । जो तुमने उनको त्याग दिया है ।
आचार्य शंकर कहते हैं - कन्थां वहामि दुर्बुद्धे तव पित्रापि दुर्भराम ।
शिखायज्ञोपवीताभ्यामं श्रुतेर्भारो भविष्यति । शिखां यज्ञोपवीतं चेत्येतत्सर्वं भूःस्वाहेत्यप्सु परित्यज्यात्मानमन्विच्छत । प्राणसंघारणाथ यथोक्तकाले विमुक्तो भैक्षमाचरन्मुदरपात्रेण । जाबाल 6
हे दुर्बुद्धे ! तुम्हारे पिता तो गृहस्थ थे । अतः उनके द्वारा भी ढोने के अयोग्य कन्था को तो मैं अवश्य ढो रहा हूँ । परन्तु शिखा और यज्ञोपवीत तो श्रुति के लिए महान भार होगा । क्योंकि यह श्रुति संन्यासी होने पर शिखा और सूत्र के त्याग का विधान करती है । किञ्च - परीक्ष्य लोकान्कर्मचित्तान्ब्राह्मणो निर्वेदमायात ( कर्मोँ से सम्पादित लोकों - फलों का परीक्षण कर अर्थात अनित्य अनुभव कर ब्राह्मण वैराग्य को प्राप्त हो ) यदहरेव विरजेतदहरेव प्रव्रजेत । जाबाल खण्ड 4 ( जिस दिन वैराग्य हो । उस दिन संन्यास ग्रहण करे ) ( ब्रह्मचार्याद्वा गृहाद्वा वनाद्वा ( ब्रह्मचर्याश्रम से गृहस्थाश्रम से अथवा वानप्रस्थाश्रम से संन्यास ग्रहण करे ) न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागैनैके अमृतत्वमानशुः । महा नारायण उपनिषद 10/5 ( 1 शाखा वाले ऐसा कहते हैं - न कर्म से । न प्रजा से । न धन से अमृतत्व प्राप्त होता है । किन्तु केस 1 त्याग से ही प्राप्त होता है ) अथ परिव्राड विवर्णवासा मुण्डोऽपरिग्रहः । जाबाल 5 आदि श्रुति वाक्यों में ब्रह्म ज्ञान के लिए संन्यास ग्रहण करने का स्पष्ट निर्देश है । यदि शिखा सूत्र का विधिवत परित्याग कर संन्यास ग्रहण न किया जायगा । तो उक्त श्रुति का निर्वाह नहीं हो सकेगा । अतः शिखा सूत्र श्रुति के लिए भारभूत है । श्रुति को भार से मुक्त करने के लिए संन्यास ग्रहण करना बुद्धिमता है । दुर्बुद्धि तो तुम हो । जो ऐसा नहीं किया है ।
शंकर के वचन को सुन मण्डन मिश्र कहते हैं - तुमने यत्न से गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि इन तीनों श्रौत अग्नियों को अपने घर से हटा दिया है । संन्यास ग्रहण के कारण । अतः तुमको इन्द्र हत्या पाप लगेगा । वीरहा वा एष देवानां योऽग्नीनुद्वासयति, अग्नियों को दूर हटा देने वाला व्यक्ति इन्द्र आदि देवों की हत्या करने वाला होता है ।
आचार्य शंकर मण्डन को ललकारते हुए कहते हैं - ब्रह्म तत्त्व को न जानने वाला आत्महत्या को प्राप्त होता है । असन्नेव स भवत्यसद्ब्रह्मेति चेद्वेद, ब्रह्म असत है । नहीं है । यदि ऐसा जानता है । तो वह असत ही हो जाता है । असूया नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽवृताः ।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चाऽत्महनो जनाः ।
। ईशावास्योपनिषद 3
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