आत्मा वा अरे द्रष्टव्य { बृहदारण्यक 2/4/5 } { याज्ञवल्क्य - हे मैत्रेयी !
आत्मा द्रष्टव्य है } य आत्माऽपहतपाम्पा सोऽन्वेष्टव्यः स विजिज्ञासितव्यः { यह आत्मा पाप रहित है । यह अन्वेष्टव्य और विशेष जिज्ञासितव्य है } आत्मेत्येवोपासीत आत्मानमेव लोकमुपासीत { आत्म रूप लोक की उपासना करे } ब्रह्मविदबृह्मैव भगवती इत्यादि विधियों के होने पर वह
आत्मा कैसी है ? ब्रह्म क्या है ? इस प्रकार आकांक्षा होने पर नित्यः सर्वज्ञः सर्वगतो नित्यतृप्तो नित्यशुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभावो विज्ञानमानन्दं ब्रह्म इत्यादि सब वेदान्त वाक्य उसके स्वरूप को बतलाते हुए उपयुक्त होते हैं । और ब्रह्म की उपासना से शास्त्र से ज्ञात और लोक दृष्टि से अज्ञात मोक्ष रूप फल होगा । यदि कर्तव्य विधि में अनुप्रवेश किये विना वस्तु मात्र का कथन हो । और हानोपदान रहित हो । तो इससे सप्तद्वीपा वसुमति राजऽसौ गच्छित { पृथ्वी 7 द्वीप वाली है । यह राजा जाता है } इत्यादि वाक्यों के समान वेदान्त वाक्य भी अनर्थक ही होँगे । किञ्च वेदान्त वाक्य प्रवृत्ति निवृत्ति के बोधक न होने के कारण शास्त्र भी नहीं हो सकते । क्योँकि प्रवृत्ति निवृत्ति परक ही शास्त्र कहा गया है । इसके सम्बन्ध में भी कहा गया है - प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्वा नित्येन कृतकेन वा ।
पुंसां येनोपदिश्येत तच्छास्त्रमभिधीयते । अर्थात नित्य और कृतक इनके
द्वारा पुरुषों को जो प्रवृत्ति का उपदेश करता है । वह शास्त्र कहा जाता है ।
अर्थात वेद और स्मृति आदि ही शास्त्र होते हैं । दूसरी बात - यह रज्जु है । सर्प नहीं है । इत्यादि श्रवण से जैसे भ्रान्त श्रोता के भय कम्पनादि निवृत्त होते हैं । वैसे ब्रह्म स्वरूप के श्रवण से संसारित्व भ्रान्ति निवृत्त नहीं होती । क्योंकि श्रुत ब्रह्म स्वरूप पुरुष में यथा पूर्व सुख दुःखादि संसार धर्म देखे जाते हैं । और मन्तव्यो निधिध्यासितव्यः { आत्मा का मनन और निद्धिध्यासन करने चाहिए } इस प्रकार श्रवण के अनन्तर मनन और निद्धिध्यासन का श्रुति में विधान है । अर्थात यदि श्रवण मात्र से चरितार्थ होता । तो मनन और निद्धिध्यासन का विधान क्यों होता ? इससे सिद्ध होता है कि केवल श्रवण से फल सिद्धि नहीं होती ।
आचार्य शंकर देशिकेन्द्र कहते हैं - हे विश्वरूप ! यदि मुक्ति उपासना का फल है । तब तो उपासना रूप क्रिया जन्य होने से स्वर्ग आदि फल के समान अनित्य हो जायेगी । क्योँकि यज्जन्यं तदनित्यं { जो भाव पदार्थ उत्पन्न होता है । वह अवश्य नष्ट होता है } यह नियम है । उपासना भी मानसिक क्रिया है । इसका करना । न करना । व अन्यथा करना । व्यक्ति के अधीन है । समस्त कर्मोँ की यही दशा है । परन्तु ज्ञानं वस्तुतन्त्रं न पुरुष तन्त्रम ज्ञान व्यक्ति के अधीन नहीं है । प्रत्युत वस्तु के अधीन है । उसमें जानना । न जानना । अन्यथा जानना । मनुष्य के अधीन नहीं है । जैसी वस्तु होगी । वैसा ही ज्ञान होगा । अन्यथा नहीं । यथा अग्नि उष्ण है । उसको शीतल नहीं कहा जाता । इत्यादि उदाहण हैं । इसलिए ज्ञान कर्म के अन्तर्गत नहीं है ।
आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः इत्यादि श्रूयमाण लिङ्ग आदि अनियोज्य विषयक होने से कुण्ठित हो जाते हैं । और ये विधियाँ नहीं हैं । किन्तु विधि के सदृश हैं । अतः स्वाभाविक विषयों की और प्रवृत्ति से विमुखीकरण के लिए हैं । अर्थात विषय की ओर प्रवृत्त पुरुष को विषयों से विमुख करना ही इन विधियों का प्रयोजन है । अन्यथा क्षीयन्ते चात्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे { मुण्डक 2/2/8 } उस परम तत्त्व के दर्शन करने वाले विद्वान के सब कर्म क्षीण हो जाते हैं । आनन्दं ब्रह्मणो निद्वान्न विभेति कुतश्चन { तैत्तिरीय 3/1/1 } अभयं बै जनक प्राप्तोऽसि, हे जनक ! तू अभय पद को प्राप्त हुआ है ।
तदान्तमानमेवावेदहं ब्रह्मासि, उस ज्ञानावस्था में अपने ऐसा जाने कि मैं
ब्रह्म हूँ । इत्यादि श्रुतियाँ ब्रह्म ज्ञान के अनन्तर मोक्ष को बतलाती है । यदि मोक्ष ज्ञान जन्य वा अपूर्व जन्य मानेँ । तो श्रुतियाँ बाधित होँगी । ब्रह्म साक्षात्कार होने पर तो सर्व कर्तव्यता की हानि और कृत कृत्यता हमारे मत में अलंकार रूप है । मननादि सहकृत श्रवण से ब्रह्म साक्षात्कार होने पर संसारित्व का निवृत्ति श्रुति स्मृति और अनुभव
सिद्ध है । हित शासन से अर्थात मोक्ष रूप हित का प्रतिपादक होने से
वेदान्त मुख्य शास्त्र है ।
मण्डन कहते हैं - हे सत्तम ! यह बात है कि तत्वमसि आदि वेदान्त वाक्य उपासना परक नहीं है । तो न सही । परन्तु हे विद्वन ! ये वाक्य
एकता परक नहीं है । अपितु जीव ब्रह्म की सादृशता परक है । अर्थात वह जीव ईश्वर के सदृश है ।
तदा विद्वान्पुण्यपापै विधूय निरञ्जनः परगं साम्यपुपैति { मुण्डक
3/1/3 } ज्ञानावस्था में वह विद्वान पुण्य पाप रहित हो निरञ्जन परम साम्य को प्राप्त होता है । ऐसी श्रुति भी है । जब भिन्न वस्तुओं का अभेद बताया जाता है । तो उसका यह अभिप्राय होता है कि यह उसके सदृश है । जैसे सिंहो माणवकः यह माणवक नाम वाला व्यक्ति सिंह है । अर्थात सिंह के सदृश है । क्योंकि यह पुरुष सिंह के समान पराक्रमी तथा निर्भय है । आदित्यो यूपः अर्थात आदित्य के सदृश यूप यज्ञ स्तम्भ है ।
आचार्य शंकर कहते हैं - यदि यह वाक्य जीव की ब्रह्म के साथ
समानता का प्रतिपादक है । एकता का नहीं । तो किस गुण को लेकर ?
क्या चैतन्य गुण को लेकर जीव परमेश्वर के सदृश है ? अथवा सर्वज्ञता तथा सर्वशक्तिमत्ता आदि गुणों को लेकर ? यदि कहो कि चैतन्य गुण को लेकर समानता है । तब तो शास्त्र आदि का उपदेश व्यर्थ होगा । क्योंकि यह समानता तो लोक प्रसिद्ध है । उसका कथन केवल अनुवाद मात्र है । उपदेश नही । यदि कहो कि सर्वज्ञता और सर्व शक्तिमत्ता आदि गुणों को लेकर जीव ब्रह्म के सदृश है । तो यह भी ठीक नहीं है । क्योँकि प्रथम तो आपके भत का बाध होगा । कारण कि मीमांसक जीवात्मा को सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान नहीं मानते । दूसरा यदि सर्वज्ञता आदि को लेकर जीव परमेश्वर के सदृश हो जाता है । तो दोनों में समानता होने से भेद ही न रहा । तथा परमेश्वर स्वरूप ही हुआ । यदि भेद मानें । तो अनन्त ईश्वरों की कल्पना करनी पड़ेगी । यह तो महान अनिष्ट है । अतः एकता मानना युक्त है ।
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