19 अप्रैल 2011

आचार्य शंकर और मण्डन मिश्र के बीच शास्त्रार्थ 9

विश्वरूप कहते हैं - इस उक्त ब्राह्मण ग्रन्थ वाक्य में भी सत्व
शब्द का अर्थ जीवात्मा है । और क्षेत्रज्ञ शब्द का अर्थ परमात्मा । इस ब्राह्मण मन्त्र में भी जीवात्मा और परमात्मा का ग्रहण है । बुद्धि और
जीवात्मा का नहीं ।
आचार्य शंकर भगवत्पाद कहते हैं - हे विद्वन ! इस ब्राह्मण में तो स्पष्ट लिखा है कि - तदेतत्सत्त्वं येन स्वप्नं पश्यत्यथ योऽयं शारीर
उपद्रष्टा स क्षेत्रज्ञः तावेतौसत्त्वक्षेत्रज्ञौ, अर्थात सत्व वह है । जिसके द्वारा स्वप्न देखा जाता है । और क्षेत्रज्ञ वह है । जो शरीर में रहता हुआ साक्षी है । दोनों सत्व और क्षेत्रज्ञ हैं । इस प्रकार इस मन्त्र में सत्व शब्द बुद्धि और क्षेत्रज्ञ द्रष्टा जीवात्मा को स्पष्ट कहा गया है । किन्तु जीव और ईश्वर नहीं । अतः आपका कथन अयुक्त है ।
मण्डन मिश्र कहते हैं - हे योगी ! उक्त वाक्य तदेतत्सत्त्वं येन स्वप्नं
पश्यति में सत्व शब्द का अर्थ स्वप्न और दर्शन क्रिया का करने वाला कहा गया है । वह जीव है । उसी प्रकार क्षेत्रज्ञ शब्द से स्वप्न द्रष्टा सर्ववित ईश्वर कहा गया है । अतः मेरा अर्थ उपयुक्त है ।
आचार्य भगवत्पाद कहते हैं - हे मनीषी ! येन स्वप्नं पश्यति इस वाक्य की क्रिया है पश्यति । इसमें तिङन्तप्रत्यय कतृर्वाचक है । और येन पद में तृतिया करण अर्थ को सूचित करती है । इससे स्पष्ट प्रतीत
होता है कि सत्व दर्शन का कर्ता नहीं । बल्कि करण द्वार है । अर्थात इसका अर्थ बुद्धि है । जीव नहीं । उक्त वाक्य में द्रष्टा का विशेषण है शारीरः । शारीरः - शरीर में रहने वाला । इसलिए क्षेत्रज्ञ कदापि ईश्वर नहीं हो सकता । किन्तु शरीर में रहने वाला जीव हो सकता है ।
विश्वरूप मण्डन कहते हैं - हे योगिन ! शारीरः पद का अर्थ सर्व व्यापक महेश्वर क्यों नहीं हो सकता ? शारीरः पद का तो यही अर्थ है कि शरीर में रहने वाला तो ईश्वर शरीर में रहता ही है । अतः शारीरः पद ईश्वर का बोधक है ।
आचार्य शंकर देशिक कहते है - सर्व व्यापक होने से जब ईश्वर शरीर से बाहर भी है । तो वह केवल शारीर कैसे हो सकता है । जिस प्रकार
आकाश सर्व व्यापक होने से शरीर में भी रहता है । तो इससे आकाश को शारीर पद से कोई नहीं कहता ?
विश्वरूप मण्डन कहते है - मान लीजिये कि द्वा सुपर्णा यह मन्त्र जीव
और ईश्वर को न कहकर बुद्धि और जीवात्मा का प्रतिपादक है । परन्तु अचेतन बुद्धि कर्म फल को भोगती है । यह कथन अयुक्त है । क्योँकि भोक्ता तो चेतन होता है । जड़ नहीं । यदि यह द्वा सुपर्णा मन्त्र जड़ भोक्ता को कहे । तो वह प्रमाण कैसे हो सकता है ?
आचार्यपाद कहते हैं - यद्यपि लोहा स्वयं दाहक नहीं । फिर भी अग्नि के सम्बन्ध से उसमें दाहक शक्ति आ जाती है । अर्थात उसमें दाहकत्व प्रयोग होता है । उसी प्रकार उसमें चेतन के प्रवेश करने से अर्थात चेतन के आध्यासिक तादात्म्य सम्बन्ध से अथवा चेतन प्रतिबिम्बित होने से बुद्धि में भी चेतन के समान भोक्तृत्व शक्ति उत्पन्न हो जाती है ।
नोट - द्वा सुपर्णा इस मन्त्र पर मण्डन मिश्र का शास्त्रार्थ समाप्त हो गया । अब वह कठ श्रुति के आधार पर पुनः शास्त्रार्थ आरम्भ करते हैं -
ऋतं पिवन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः । कठश्रुति 1/3/1 
ब्रह्मवेत्ता लोग कहते है - शरीर में बुद्धि रूप गुहा के भीतर प्रकृष्ट ब्रह्म स्थान में प्रविष्ट हुए ऋतं कर्म फल को भोगने वाले छाया और घाम के
समान परस्पर विलक्षण 2 तत्त्व हैं । जिन्होंने 3 वार नाचिकेता अग्नि का चयन किया है । वे पञ्चाग्नि के उपासक लोग भी यही वात कहते हैं ।
मण्डन कहते हैं - यह कठ श्रुति कहती है कि जिस प्रकार घाम और छाया परस्पर भिन्न हैं । उसी प्रकार जीव और ईश्वर भी सर्वथा भिन्न भिन्न है । इस प्रकार ऋतं पिबन्तौ यह कठ श्रुति की बाधिका है ।

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