14 अप्रैल 2011

और प्रेम ही उनकी साधना थी

ध्यान है भीतर झाँकना - बीज को स्वयं की संभावनाओं का कोई भी पता नहीं होता है । ऐसा ही मनुष्य भी है । उसे भी पता नहीं है कि वह क्या है ? क्या हो सकता है ? लेकिन बीज शायद स्वयं के भीतर झाँक भी नहीं सकता । पर मनुष्य तो झाँक सकता है । यह झाँकना ही ध्यान है । स्वयं के पूर्ण सत्य को अभी और यहीं ( हियर एंड नाउ ) जानना ही ध्यान है । ध्यान में उतरें - गहरे और गहरे ।
गहराई के दर्पण में संभावनाओं का पूर्ण प्रतिफलन उपलब्ध हो जाता है । और जो हो सकता है । वह होना शुरू हो जाता है। जो संभव है । उसकी प्रतीति ही उसे वास्तविक बनाने लगती है । बीज जैसे ही संभावनाओं के स्वप्नों से आंदोलित होता है । वैसे ही अंकुरित होने लगता है । शक्ति, समय और संकल्प सभी ध्यान को समर्पित कर दें । क्योंकि ध्यान ही वह द्वारहीन द्वार है । जो स्वयं को ही स्वयं से परिचित कराता है ।
ध्यान हमारी जिंदगी में उस डायमेंशन, उस आयाम की खोज है । जहाँ हम बिना प्रयोजन के । सिर्फ होने मात्र में - जस्ट टू बी । होने मात्र से आनंदित होते हैं । और जब भी हमारे जीवन में कहीं से भी सुख की कोई किरण उतरती है । तो वे वे ही क्षण होते हैं । जब हम खाली, बिना काम के । समुद्र के तट पर या किसी पर्वत की ओट में । या रात आकाश के तारों के नीचे । या सुबह उगते सूरज के साथ । या आकाश में उड़ते हुए पक्षियों के पीछे । या खिले हुए फूलों के पास । कभी जब हम बिना काम । बिलकुल बेकाम । बिलकुल व्यर्थ । बाजार में जिसकी कोई कीमत न होगी । ऐसे किसी क्षण में होते हैं । तभी हमारे जीवन में सुख की थोड़ी सी ध्वनि उतरती है । लेकिन यह आकस्मिक, एक्सिडेंटल होती है । ध्यान, व्यवस्थित रूप से इस किरण की खोज है ।
कभी होती है यह टयूनिंग । कभी विश्व के और हमारे बीच संगीत का सुर बँध जाता है । कभी, ठीक वैसे ही, जैसे कोई बच्चा सितार को छेड़ दे । और कोई राग पैदा हो जाए - आकस्मिक । ध्यान व्यवस्थित रूप से जीवन में उस द्वार को बड़ा करने का नाम है । जहाँ से आनंद की किरण उतरनी शुरू होती है । जहाँ से हम पदार्थ से छूटते हैं । और परमात्मा से जुड़ते हैं ।
मेरे देखे ध्यान से ज्यादा बिना कीमत की कोई चीज नहीं है । और ध्यान से ज्यादा बहुमूल्य भी कोई चीज नहीं है । और आश्चर्य की बात यह है कि यह जो ध्यान, प्रार्थना या हम और कोई नाम दें । यह इतनी कठिन बात नहीं है । जितना लोग सोचते हैं । जैसे हमारे घर के किनारे पर ही कोई फूल खिला हो । और हमने खिड़की न खोली हो । जैसे बाहर सूरज खड़ा हो । और हमारे द्वार बंद हों । जैसे खजाना सामने पड़ा हो । और हम आँख बंद किए बैठे हों । ऐसी कठिनाई है । अपने ही हाथ से अपरिचय के कारण कुछ हम खोए हुए बैठे हैं । जो हमारा किसी भी क्षण हो सकता है ।
ध्यान प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता है । क्षमता ही नहीं । प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार भी । परमात्मा जिस दिन व्यक्ति को पैदा करता है । ध्यान के साथ ही पैदा करता है । ध्यान हमारा स्वभाव है । उसे हम जन्म के साथ लेकर पैदा होते हैं । इसलिए ध्यान से परिचित होना कठिन नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति ध्यान में प्रविष्ट हो सकता है ।
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एक आदमी नदी में डूब रहा था । वह बोला - हे गणेश जी ! मुझे बचाओ । गणेश जी ने सुना । और नाचने लगे । आदमी बोला - आप नाच क्यों रहे हैं ? गणेश जी - मेरे विसर्जन के समय तू भी तो बहुत नाचा था ।
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पके लोग कहां से लाओगे ? पके ही लोग होते । तो दीक्षा की जरूरत क्या थी ? यह तो तुमने ऐसा प्रश्न पूछा कि जैसे किसी डाक्टर से पूछो कि बीमारों का इलाज क्यों करते हो ? तो क्या स्वस्थ लोगों का इलाज किया जाए । बीमार का ही इलाज होगा । और कच्चे को ही दीक्षा देनी होगी । दीक्षा का अर्थ ही है कि - पकाने का प्रयास । तो कच्चे को ही तो देनी होगी । पागल को ही तो स्वस्थ करना है । बीमार को ही तो रोग से मुक्त करना है । उपाधियों के लिए ही तो औषधि खोजनी है ।
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एक दिन मुल्ला का अपनी बीवी के साथ तू तू  मैं मैं हो गई । तो मुल्ला टिफिन लेकर गाडी की पटरी पर बैठ गये । तो लोगों ने पूछा कि मरना ही है । तो टिफिन क्यों लाए हो ? मुल्ला ने कहा भूखे मरना है कया ? और फिर गाङी का भी कोइ भरोसा नहीं । कभी कभी तो आती ही नहीं ।
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साक्षी होने का इतना ही अर्थ है कि - तुम गौर से देख लो । जो भी तुम्हारी दशा है । उस गौर से देखने में तुम्हें पता चल जाएगा । क्या है ? और क्या नहीं है ? जो है । वही है - आत्मा । जो नहीं है । वही है - अहंकार ।
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आदमी की बीमारी तो एक है - कहो अज्ञान । कहो अहंकार । कहो माया । कहो भ्रांति । कहो बेहोशी । मूर्च्छा । प्रमाद । पाप । विस्मरण । जो तुम कहना चाहो । बीमारी एक है । नाम हजार हैं ।
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यहां तो वसंत है । पतझड़ है । फूल का खिलना है । फूल का झड़ना है । यहां हर चीज दो में है । जन्म है । और मौत है । जवानी है । और बुढ़ापा है । आज सब ठीक है । और कल सब खराब हो गया । आज सब खराब है । और कल सब ठीक हो गया । यहां तो चाक के आरे जैसे नीचे से ऊपर होते रहते हैं । ऐसा ही जीवन होता रहता है । यहां इस द्वंद्व में कुछ भी थिर नहीं है ।
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बुद्धत्व को जो उपलब्ध हो गया है । वह तो अंतिम को भी दीक्षा देने को तैयार हो जाएगा । हो ही जाना चाहिए । जो आखिरी शिखर पर पहुंच गया है । उसकी करुणा इतनी होगी कि जो नीचे खड्ड में पडा है । आखिरी खड्ड में पड़ा है । वह उसको भी पुकारेगा । जानते हुए कि तुम्हारे कपड़े कीचड से सने हैं । और तुम्हारे हृदय में बहुत घाव हैं । लेकिन यह तुम्हारा स्वभाव नहीं है । ये तुम्हारी भूल चूकें हैं । जो कि काटी जा सकती हैं । जो कि हटायी जा सकती हैं । ये घाव भर जाएंगे । यह कीचड़ धुल जाएगी । तुम्हारे कपड़ों को थोडे ही दीक्षा दी जा रही है । तुम्हें दीक्षा दी जा रही है । तुम्हारे कर्म तो तुम्हारे वस्त्र हैं । तुमने बुरे कर्म किए हैं । तो कपड़े गंदे हो गए हैं । तुम्हारे नग्न स्वभाव को दीक्षा दी जा रही है ।
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जल्दी न करें । जन्मों जन्मों के संस्कार हैं । अनंत यात्राओं की धूल चित्त के दर्पण पर है । पर ध्यान ने काम शुरू कर दिया है । संकल्प से, धैर्य से, निष्ठा से, श्रम में लगे रहें । धीरे धीरे सफाई होगी । और दर्पण निखरेगा । जहाँ से भी धूल हटेगी । वहीँ स्वयं का प्रतिबिंब बनने लगेगा । और जैसा कि स्वाभाविक ही है । सफाई की अवधि में कभी कभी तो धूल और भी ज्यादा मालूम होने लगेगी । पर उससे चिंतित न होना । निश्चिन्त होकर चलें । ऐसा मैं अपने अनुभव से आश्वासन दिलाता हूँ । 
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यह जगत प्रतिध्वनि करता है । हजार हजार रूपों में । अगर तुम गीत गुनगुनाते हो । तो गीत लौट आता है । अगर तुम गाली बकते हो । तो गाली लौट आती है । जो लौटे । समझ लेना कि वही तुमने दिया था । जो बोओगे । वही काटोगे भी ।
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सत्य के लिए एक ही पात्रता चाहिए । वह है - प्रेम की पात्रता । अगर तुम्हारे हृदय में प्रेम आ जाए । और आ जाए कहना । ठीक नहीं । भरा है वहाँ । सिर्फ तुम बहाने की कला सीख जाओ । तुम उसे रोके बैठे हो । तुम बड़े कंजूस हो । कृपण हो । जब भी प्रेम देने का मौका आता है । तुम एकदम रोक लेते हो । उसे बहने नहीं देते । बड़े सोच सोचकर, फूंक फूंककर कदम रखते हो - प्रेम के मामले में ।
बांटो । दोनों हाथ उलीचिए । जो मिले । उसे बांट दो । और यह तो फिकर ही मत करो कि वह लौटाएगा कि नहीं लौटाएगा । प्रेम लौटता ही है । हजार गुना होकर लौटता है । इसकी भी फिकर मत करो कि इस आदमी को दिया । तो यही लौटाए । कहीं से लौट आएगा । हजार गुना होकर लौट आएगा । तुम फिकर मत करो । प्रेम लौटता ही है ।
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भक्त भगवान के साथ अपने प्रेम को जोड़कर एक हो जाता । ध्यानी संसार के साथ अपने को तोड़कर एक रह जाता । मगर दोनों प्रक्रियाएं एक होने की प्रक्रियाएं हैं । बुद्ध का मार्ग ध्यान का मार्ग है । साक्षी का मार्ग है । वैसा ही जैसा अष्टावक्र का । सहजो, दया, मीरा, उनका मार्ग भक्ति का मार्ग है । परमात्मा को अपने से जोड़ लेना है । ऐसा जोड़ लेना है कि जरा भी बीच में कुछ फासला न रह जाए । यह पता ही न चले । कौन भक्त, कौन भगवान ? उस घड़ी में दो खो गए । या, साक्षी का भाव निर्मित ही जाए । उस घड़ी में भी दो खो गए ।
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बुद्ध का धर्म न तो राग का धर्म है । न विराग का । वीतराग का धर्म है । परम संन्यासी वीतरागी है । वीतरागी का अर्थ हुआ - विराग से भी राग न रहा । वह आखिरी ऊंचाई है - चैतन्य की । राग से राग न रहे । तो विराग । फिर विराग से भी राग न रहे । तो - वीतराग । संसारी संसार से छूटने लगे । तो संन्यासी । फिर संन्यास के भी ऊपर उठने लगे । तो - वीतराग ।
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सच और झूठ - इस दुनिया में सच कहना दुश्मन बनाना है । इस दुनिया में किसी से भी सच कहना दुश्मन बनाना है । झूठ बड़ी मित्रताएं स्थापित करता है । कभी एक दफा देखें । चौबीस घण्टे तय कर लें कि सच ही बोलेंगे । आप पाएंगे । सब मित्र विदा हो गए ।  चौबीस घंटा । इससे ज्यादा नहीं । पत्नी अपना सामान बांध रही हैं । लड़के बच्चे कह रहे हैं - नमस्कार । मित्र कह रहे हैं कि - तुम ऐसे आदमी थे ? सारा जगत शत्रु हो जायेगा ।
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काम ऊर्जा से मुक्ति - जब काम ऊर्जा वैसी नहीं बह रही । जैसी बहनी चाहिए । तो यह बहुत सी समस्याएं पैदा करती है । यदि काम ऊर्जा बिलकुल सही बह रही है । तब हर चीज सही गूंजेगी । हर चीज लयबद्ध रहती है । तब तुम सरलता से सुर में हो । और एक किस्म का तारतम्य होगा । एक बार काम ऊर्जा कहीं अटक जाती है । तो सारे शरीर पर प्रभाव होते हैं । और पहले वे दिमाग में आएंगे हैं । क्योंकि सेक्स और दिमाग विपरीत धुरी हैं । यही कारण है कि जो लोग बहुत ज्यादा दिमागदार होते हैं । वे कामानंद, आर्गाज्म की गुणवत्ता खोने लगते हैं । उन्होंने उनकी काम ऊर्जाओं को या तो दबा दिया है । या उनकी उपेक्षा कर दी है । वह उनके दिमाग में रहती है । उनका सारा आनंद वहां है । उनका सारा शरीर दुखी होता है । और सिर तानाशाह बन जाता है ।
सिर्फ दो चीजें करना शुरु करो - हर सुबह । अपनी नींद के बाद । कमरे के बीच में खड़े हो जाओ । और सारा शरीर हिलाना शुरु कर दो । हिलाने वाली मशीन बन जाओ । अंगूठे से सिर तक सारे शरीर को हिला दो । और महसूस करो कि यह बिल्कुल संभोग के आनंद जैसा है । जैसे कि यह तुम्हें संभोग का आनंद दे रहा है । इसका आनंद लो । इसका पोषण करो । और यदि तुम ऐसा महसूस कर रहे हो कि तुम कुछ आवाजें निकालना चाहते हो । उन्हें निकालो । और सिर्फ इसका आनंद लो । दस मिनट के लिए । तब सारे शरीर को सूखे तौलिए से सहलाओ । और नहा लो । यह हर सुबह करो । और दो से तीन सप्ताह में संतुलन आ जाएगा ।
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लाओत्सु कहते हैं - जो तुम हो । वह बस हो क्यों नहीं जाते ? जो कुछ भी तुम हो । उसमें गलत क्या है ? प्रयास क्यों करना ? और कौन प्रयास करेगा ? तुम प्रयास करोगे । तुम्हारा प्रयास तुम्हारे पार नहीं जा सकता । और जो कुछ भी तुम करोगे । तुम करोगे । यह कैसे पार जा सकता है ? तुम्हारा प्रयास कैसे तुम्हारा अतिक्रमण कर सकता है ? यह संभव नहीं है । तुम हजारों जन्मों तक कूदते रह सकते हो । और कुछ भी नहीं उपलब्ध होगा । स्वयं को स्वीकारो । यही एकमात्र वास्तविकता है । यही एकमात्र संभावना है । जैसे तुम हो । वैसे अपने को स्वीकारो । और अचानक हर चीज रूपांतरित हो जाती है । 
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कभी एक अनोखा मंदिर था । जहाँ सुबह शाम प्रेम का शंखनाद होता था । वहां के प्रेममय धूप की सुगंध से दूर दूर से लोग खिंचे चले आते थे । उस प्रेम मंदिर से जुड़े जितने भी प्रेमी दुनिया के कोने कोने में घूमते थे । मात्र उनके सतसंग से अनेकों दिलों में प्रेम की लौ लगने लगी थी । उन दीवानों की एक ही भाषा थी - प्रेम । वे प्रेम से जीते थे । प्रेम से उपार्जन करते थे । और प्रेम ही उनकी साधना थी । फिर ज़माना बदला । धीरे धीरे प्रेम का स्थान व्यापार ने ले लिया । प्रेम के लेन देन का, नापतौल कर हिसाब रखा जाने लगा । प्रेमी प्रेम के सौदेबाजी करने लगे । सीखने सिखाने के लिए पैसों का चलन चल पड़ा । और प्रेम मात्र दिखावा बनकर रह गया । छलावा बनता चला गया । और अचानक मेरी नींद खुल गयी - हे ईश्वर ! यह दुस्वप्न कभी सच ना हो । कभी सच ना हो । कभी सच ना हो । कापी पेस्ट ।

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