आचार्य पाद कहते हैं - हम जीव तथा ईश्वर भेद के समान पृथ्वी तथा ईश्वर में भेद भी अविद्या रूप उपाधि से ही मानते हैं । क्योँकि जब तक अविद्या है । तब तक ही भेद है । अविद्या के निवृत्त हुए कोई भेद नहीं रहता । इसलिये आपका घटरूप दृष्टान्त सर्वथा असंगत है ।
तृतीय पक्ष अभेद श्रुति का भेद श्रुति से विरोध
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समाने वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।
विश्वरूप मण्डन कहते हैं - हे यतिन्द्र ! 2 सखा { समान नाम वाले } सुन्दर गति वाले पक्षी शरीर रूपी 1 ही वृक्ष को आश्रित किये रहते हैं । सदा इकट्ठा रहने वाले उनमें 1 तो उसके स्वादिष्ट फलों { कर्म फलों को } भोगता है । और दूसरा उन फलोँ को न भोगता हुआ देखता रहता है । इस मन्त्र में जीव को कर्मफल भोक्ता और परमेश्वर को प्रत्येक कर्म का द्रष्टा अर्थात कर्मफल के साथ तनिक भी सम्बन्ध न रखने वाला बताया गया है । यह भेद बोधक श्रुति अभेद प्रतिपादक तत्वमसि आदि श्रुतियों की बाधिका है । अर्थात इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जीव और परमेश्वर 1 नहीं । किन्तु अलग अलग हैं ।
आचार्यपाद कहते हैं - हे विश्वरूप मण्डन ! यह मन्त्र जीवात्मा और
परमात्मा में प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध भेद का केवल अनुवाद मात्र है । किन्तु अन्य श्रुति से इस भेद ज्ञान की निन्दा कही गई है - यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुतेऽथ तस्य भयं भवति { तैत्त 3/7 } मृत्योः स
मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति { कठ 2/10 } { जब यह इस प्रत्यग भिन्न ब्रह्म में थोड़ा सा भेद करता है । उसे जन्म मरण रूप भय प्राप्त होती है । वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है । जो इस ब्रह्म में भेद सा देखता है } इसलिये द्वा सुपर्णा इस श्रुति वाक्य का मुख्य तात्पर्य
भेद कथन में नहीं है । हे विद्वन ! यदि ऐसा न हो । तो स्वार्थ में तात्पर्य न रखने वाले सब अर्थवाद वाक्य प्रमाण माने जायेंगे ।
विश्वरूप कहते हैं - क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत
{ श्रीमद भगवद गीता 13/2 } { हे भारत ! शरीर आदि सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मुझे जान } इत्यादि स्मृति प्रसिद्ध अर्थ के अवबोधक वाक्य तत्वमसि आदि श्रुति मूलक होने से जैसे प्रमाण मानना इष्ट है । वैसे ही प्रत्यक्ष सिद्ध अर्थ के बोधक द्वा सुपर्णा वाक्य प्रत्यक्ष मूलक होने से प्रमाण मानना होगा ।
आचार्य शंकर देशिकेन्द्र कहते हैं - यदि वेदज्ञों के द्वारा श्रुति मूलक स्मृति अर्थ में श्रुति प्रमाण नहीं होती । तो वेदार्थ { जीव ब्रह्म को न जानने वाले पामर लोगों द्वारा नाहमीश्वरः { मैं ईश्वर नहीं हूँ } इस जीव ईश्वर का भेद ज्ञात होने पर भी प्रत्यक्ष मूलक द्वा सुपर्णा यह श्रुति जीव और ईश्वर के भेद में प्रमाण भूत कैसे हो सकती है ? यह मन्त्र जीव और ईश्वर को कहता है । यह स्वीकार कर मैंने पहले ऐसा कहा है । वस्तुतः द्वा सुपर्णा इस मन्त्र का यह अर्थ नहीं है । किन्तु अन्तःकरण { बुद्धि } है । और जीवात्मा है । अर्थात कर्मफल भोक्ता अन्तःकरण { बुद्धि } है । और पुरुष उससे नितान्त भिन्न है । सम्पूर्ण संसार से रहित है ।
ऐसा श्रुति भगवती कहती है । वह केवल साक्षी है । इस प्रकार द्वा सुपर्णा यह मन्त्र बुद्धि और जीवात्मा के भेद का प्रतिपादक है । जीव तथा ईश्वर के भेद का प्रतिपादक नहीं है ।
विश्वरूप कहते हैं - हे पूज्य ! यदि श्रुति जीव और ईश्वर को छोड़कर
जीव और बुद्धि का प्रतिपादन करती है । तो इससे जड़ बुद्धि में भोक्तृत्व प्रतिपादक यह मन्त्र प्रमाण रूप कैसे हो सकता ?
आचार्यपाद कहते हैं - हे विद्वन ! आपका यह आक्षेप युक्ति युक्त नहीं है । क्योंकि पैङ्ग्यरहस्य ब्राह्मण में यह अर्थ लिखा है -
तयोरर्न्यपिप्पलं स्वद्वत्ति इति सत्त्वमनश्नन्नन्योअभिचा ।
कशीत्यनश्नन्नन्योऽभिपश्यति ज्ञस्तावेतौ सत्त्वक्षेत्रत्राविति ।
सत्व { बुद्धि } कर्म फल का भोक्ता है । और द्रष्टा क्षेत्रज्ञ { आत्मा } है । यह श्रुत्यर्थ वेदान्त पक्ष को ही पुष्ट करता है । अतः हमारा अर्थ श्रुति प्रतिपादित और समीचीन है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें