सर्वज्ञ शंकर देशिकेन्द्र कहते हैं - श्रुति का तात्पर्य तो अद्वैत ब्रह्म के प्रतिपादन में ही है । परन्तु परम्परा से आत्मज्ञान उत्पन्न करने वाले कर्मों में भी श्रुति का ध्यान है । इस प्रकार यह सूत्र कर्म के प्रकरण में है । अतः उसका अर्थ कर्म परक मानना चाहिए । परन्तु ब्रह्म विद्या का प्रकरण तथा विषय इससे भिन्न है । इसलिए इस सूत्र के अभिप्राय वेदान्त वाक्य निरर्थक नहीं हो सकते ।
मण्डन कहते हैं -
ननु सच्चिदात्मपरताऽभिमता यदि कृत्स्नवेदनिचयस्य मुनेः ।
फलदातृतामपुरुषस्य वदन्त कथं निराह परमेश्वरमपि ।
- जब समस्त वेद का सच्चिदानन्द ब्रह्म के प्रतिपादन में तात्पर्य है । तब परमेश्वर से भिन्न कर्म ही फलदाता है । इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मुनि ने ईश्वर का निराकरण कर कैसे किया ?
आचार्य शंकर भगवत्पाद कहते हैं - हे विश्वरूप ! प्रत्येक कर्म किसी कर्ता द्वारा होता है । जगत्कार्यं ईश्वरकृतृ कं कार्यत्वात, यथा मकान किसी कारीगर से बनाया जाता है । तथा जगद रूप कार्य भी किसी विशेष कर्ता द्वारा होना चाहिये । वह कर्ता सर्वज्ञ ईश्वर है । यह अनुमान आगम वचनोँ के विना ईश्वर को सिद्ध करता है । श्रुतियाँ केवल अनुमान का अनुवाद मात्र करती है । यह वैशेषिकों का मत है । परन्तु यह शुष्क अनुमान ईश्वर सिद्धि में पर्याप्त नहीं है । { वेद को न जानने वाला उस बृहद औपनिषद ब्रह्म को नहीं जान सकता } यह श्रुति वचन ईश्वर को वेद के न जानने वालों के लिए अगोचर सूचित करता है । ऐसी दशा में अनुमान ईश्वर को कैसे सिद्ध कर सकता है ? इसी भाव को अपने मन में रखकर मुनि जैमिनि ने ईश्वर परक अनुमान का तथा ईश्वर से जगत के उदय उस्त आदि होते हैं । इन सब वैशेषिक सिद्धान्तों का सैकड़ों अकाटय युक्तियों से खण्डन किया है । आशय यह है कि जैमिनि मुनि श्रुति सिद्ध ईश्ष का अलाप खण्डन नहीं करते । किन्तु तार्किक सम्मत श्रुति हीन अनुमान का ही खण्डन करते हैं । इसी तरह मेरी समझ में उपनिषद रहस्य से जैमिनि का सिद्धान्त लेशमात्र भी विरुद्ध नहीं है । जैमिनि के इस गूढाभिप्राय को न जानकर विद्वान लोग उन्हें अनीश्वरवादी बतलाते हैं ।
विश्वरूपाचार्य मण्डन कहते हैं - क्या इतने से ही तत्त्व वेत्ताओं में श्रेष्ठ
मुनि निरीश्वरवादी सिद्ध हो सकते हैं ? क्या कहीं पर भी उल्लू से कल्पित अन्धकार दिन में सूर्य के प्रकाश को मलिन कर सकता है ? कभी नहीं ।
इसी प्रकार अविद्वानों से कल्पित मिथ्या दोष जैमिनि मुनि को अनीश्वरवादी नहीं बना सकता । इस प्रकार जैमिनि मुनि के अभिप्राय को यतिवर शंकर स्वामी द्वारा स्पष्ट प्रतिपादित किये जाने पर शारदा मण्डन मिश्र तथा सब सभासद अति प्रसन्न हुए । परन्तु शंकर के कथन से मीमांसा के आशय को समझ लेने पर भी मण्डन के मन में फिर भी कुछ संदेह बना रहा । क्योँकि उनकी लगभग सम्पूर्ण आयु इसी कार्य में व्यतीत हुई थी । सहसा वे संस्कार कैसे दूर होते ? निरुत्तर होने पर भी पूर्ण विश्वास नहीं हो रहा था । इसलिये मानसिक शंका को निवृत्त करने के लिए मुनि के वचन ही उनके अभिप्राय को जानने के लिए मण्डन मिश्र ने मुनि जैमिनि का स्मरण किया । जिससे मुनि शीघ्र मण्डन मिश्र के समीप प्रकट हुए ।
मुनि जैमिनि कहते हैं - सुनो हे सुमते ! भाष्यकार शंकर के वचनों में संदेह
मत कर । मेरे सूत्रों का जो अभिप्राय उन्होंने कहा है । वह इससे भिन्न नहीं है । ये यतिराज केवल मेरे ही अभिप्राय को नहीं जानते । बल्कि श्रुति और समस्त शास्त्रों का अभिप्राय भी जानते हैं । भूत भविष्यत तथा वर्तमान को जितना ये जानते हैं । उतना अन्य कोई भी नहीं जानता । मेरे गुरु वेद व्यास ने उपनिषद का तात्पर्य - चिद्रूप एक रस ब्रह्म में है । ऐसा निर्णय किया है । मैंने उन्हीं से ज्ञान प्राप्त किया है । भला एक भी सूत्र उनके इस सिद्धान्त के विपरीत मैं कैसे कह सकता हूँ ।
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