तत्सुकृतदुष्कृते विधुनुत एवं ह वाव न तपति किमहं साधु नाकरवं किमहं पापमकरवम { उपरोक्त श्लोक काण्व श्रुति के अनुसार है } ।
इसलिये हे सोम्य ! इस शरीर से कामशास्त्र का परिशीलन करने पर भी वह मेरे लिए दोष कृत नहीं होगा । तो भी शिष्ण पुरुषों के मार्ग का परिपालन करने के लिए मैं दूसरे के शरीर को प्राप्त कर यत्न करूँगा ।
यतिराज शंकर ऐसा कहकर दुर्गम पर्वत शिखर पर चढ़कर फिर बोले - हे शिष्यो ! यह देखो ! यह सुन्दर गुफा दिखाई दे रही है । जिसके आगे एक समतल शिला पड़ी है । उसके निकट ही स्वच्छ जल वाली, फल वाले वृक्षों से शोभित यह तलाई शोभा दे रही है । आप लोग यहीं पर रहकर मेरे इस शरीर की सावधानी से रक्षा करें । जब तक इस अमरुक राजा के शरीर में प्रविष्ट होकर कामकला का अनुभव करूँ ।
इस प्रकार शिष्य वर्ग को समझा कर आचार्यपाद ने उस गुफा में अपने शरीर को छोड़कर केवल लिङ्ग शरीर से युक्त हो प्रबल योग सामर्थ्य से
राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश किया ।
{ आतिवाहिक लिङ्ग शरीर, जो एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है - 5 ज्ञानेन्द्रिय, 5 कर्मेन्द्रिय, 5 प्राण, मन तथा बुद्धि इस प्रकार 17 तत्त्वों का होता है । }
उन एकाग्र बुद्धि योगिराज शंकर ने अपने शरीर के अंगुष्ठ से आरम्भ कर दशम द्वार तक अपने प्राण वायु को ले जाकर ब्रह्मरन्ध्र से बाहर आकर
अमरुक राजा के मृत शरीर में अंगुष्ठ पर्यन्त ब्रह्मरन्ध्र से धीरे धीरे प्रवेश किया ।
इस आशय का स्पष्टीकरण योग सूत्र में इस प्रकार है -
बन्धकारणशैथिल्यात्प्रचारसंवेनाच्च चित्तस्य परशरीरावेशः । योगसूत्र 3/38
शरीर बन्धन रूप है । इसका कारण धर्माधर्म है ।
इनकी शिथिलता समाधि बल से होती है । और चित्त के गमनागमन की नाड़ी के ज्ञान से योगी लोग चित्त को अपनी इच्छा से दूसरे शरीर में प्रवृष्ट कर सकते हैं ।
नारायण ! मृत राजा अमरुक का हृदय प्रवेश हिलने लगा । उसने धीरे धीरे आँख खोल दी । और पूर्व की तरह उठ खड़ा हुआ । परन्तु इस बीच के मर्म को कोई भी नहीं जान सका । इस प्रकार राजा को जीवित देख राज रानियाँ, मन्त्री आदि अति प्रसन्न हुए ।
तदन्तर राजा अमरुक मन्त्री और पुरोहितों के साथ शास्त्र विहित मांगलिक कृत्य समाप्त कर भद्रगज पर बैठ राजधानी को गया । नगर में जाकर राजा अमरुक ने अपने प्रियजनों को सान्त्वना दी । अन्य राजा लोग भी उसका शासन आदर से मानने लगे । उसने अपने अनुकूल मन्त्रियों के साथ पृथ्वी का इस प्रकार पालन किया । जिस प्रकार देवराज इन्द्र स्वर्ग का पालन करते हैं । राजा ने मन्त्रियों तथा राजकीय कर्मचारियों के साथ राज्य का भलीभाँति निरीक्षण कर प्रजा को संतुष्ट किया ।
सीमावर्ती राजा लोग भी सहर्ष अनुकूल व्यवहार करने लगे । इस प्रकार
राजा की कार्य कुशलता देख मन्त्रीगण को यह संदेह उत्पन्न हुआ कि राजा मृत्यु को प्राप्त हो प्रजा के भाग्य से फिर जीवित हुआ । लेकिन यह राजा पहले की तरह प्रतीत नहीं होता । प्रत्युत अनेक दिव्य गुण सम्पन्न होने से अपूर्व प्रतीत हो रहा है । ययाति के समान याचकों को यह धन देता है । अर्थ को जानने वाला यह राजा देव गुरु बृहस्पति के समान बोलता है । अर्जुन के समान शत्रु राजाओं को जीतता है । और शंकर के समान सभी को जानता है ।
सवनों के { यज्ञ में सोम रस को निकालना } अनन्तर राजा चारों ओर फैलने वाले दान पौरष शौर्य धैर्य आदि अन्यत्र दुर्लभ आदर्श गुणों के द्वारा यह राजा साक्षात परम पुरुष परमात्मा के समान प्रतीत होता है । उनके प्रभाव से वृक्ष अपनी अनुकूल ऋतु के बिना ही फूलों के भार से लद गये है । गायें अधिक दूध देती है । पृथ्वी पर अभीष्ट वृष्टि होने से अन्न
की वृद्धि होती है । सारी प्रजा अपने विहित कार्य में रत है । और कहाँ तक वर्णन किया जाये ? आज इस राज्य के प्रभाव से सब दोषों से युक्त यह कलिकाल भी त्रेता युग को अतिक्रमण कर वर्तमान है । अर्थात इस कलि में त्रेता से भी अधिक धर्म का आचरण हो रहा । इससे ज्ञात होता है कि कोई ऐश्वर्यवान पुरुष राजा के शरीर में प्रवेश कर पृथ्वी का पालन कर रहा है । यह पुरुष गुणों का समुद्र है । हमें ऐसा उपाय करना चाहिए । जिससे यह अपने पूर्व त्यक्त शरीर को फिर प्राप्त न करें । ऐसा निश्चय कर उन्होंने अपने सेवकों को यह आज्ञा दी कि जहाँ भी मृतक शरीर प्राप्त हो । उसे अति शीघ्र जला दिया जाय ।
राजा ने अपने बुद्धि कौशल से आन्तरिक तथा बाह्य परिस्थितियों पर पूर्ण रूपसे नियन्त्रण कर राज्य पूर्ण शान्ति स्थापित की । राजा के लिए यह उचित है कि प्रजा की प्रसन्नता के लिए उचित व्यवस्था करे । अब राजा ने अपने विश्वस्त मन्त्रियों को राज्य भार सौंपकर चिन्ता रहित हो स्शं
अन्तःपुर में प्रवेश किया । विलासिनी सुन्दर रमणियों से वात्सायन कामशास्त्र का भलीभाँति अनुभव किया । इस प्रकार करते हुए
बहुत दिवस बीत गये । दूसरी ओर आचार्यपाद के शिष्यगण देह की रक्षा करते चिन्ता करने लगे कि कृपालु गुरुदेव अभी तक नहीं लौटे । जबकि एक मास से पाँच छः दिन अधिक हो चले हैं । हम लोग क्या करें ? कहाँ ढूँढें ? कहाँ जायें ? वे कहाँ रहते हैं ? ऐसा जानकर हमें कौन बताएगा । हम समुद्र से लेकर चारों ओर भूतल में खोजकर उन्हें जानने में कैसे समर्थ हो सकते हैं । कारण वे अन्य शरीर में छिपे हुए हैं । अन्य मित्रों को इस प्रकार चिन्ता करते देख पद्मपाद बोले - हे मित्रों !
अनिर्विण्णचेताः समास्थाय यत्नं । दुष्प्रापमप्यवापुर्ह्यनिर्विण्णचिताः ।
क्या आप लोग नहीं जानते कि उत्साही व्यक्ति यत्न करने से दुष्प्राप्य अर्थ को अवश्य प्राप्त कर लेता है । विघ्नों से बारम्बार ताड़ित किये जाने पर
भी उत्साह भरे देवताओं ने दुर्लभ सुधा को प्राप्त कर लिया ।
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