02 अप्रैल 2011

एक बची चिनगारी चाहे चिता जला या दीप

मुझे अपने समर्पण पर शक होता है । क्या पूरा समर्पण शिष्य को ही करना होगा ? या कि गुरु के सहयोग से वह शिष्य में घटित होता है ? कृपया इस दिशा में हमें उपदेश करें ।
- समर्पण पर शक सभी को होता है । क्योंकि समर्पण तुम सोच सोच कर करते हो । जो तुम सोच सोचकर करते हो । उसमें शक तो रहेगा । शक न होता । तो सोचते ही क्यों ? तब समर्पण 1 छलांग होता है -क्याटम छलांग । तब तुम सोचकर नहीं करते । तब समर्पण 1 पागलपन जैसा होता है । 1 उन्माद की अवस्था होती है । तुम ऐसे भावाविष्ट हो जाते हो । 1 श्रद्धा की क्रांति घटती है । लेकिन ऐसी क्रांति तो कभी 100 में 1 को घटती है । 99 तो सोचकर ही करते हैं । इसलिए जब तुम सोचकर करोगे । तो वह जो तुमने सोचा है बारबार । वह जो तुमने निर्णय लिया है । वह चाहे बहुमत का निर्णय हो । लेकिन है पार्लियामेंट्री । तुमने बहुत सोचा । तुमने पाया । 60% मन गवाही है समर्पण के लिए । 40% गवाही नहीं । तुमने कहा - अब ठीक है । अब निर्णय लिया जा सकता है । लेकिन यह पार्लियामेंट्री है । वह जो 40% राजी नहीं था । वह कभी भी कुछ सदस्यों को फोड़ ले सकता है । रिश्वत खिला दे । भविष्य का आश्वासन दिला दे - मिनिस्टर बना देंगे । यह कर देंगे । वह कर देंगे । वह मन के कुछ खंडों को तोड़ ले सकता है । वह किसी भी दिन बल में आ सकता है । और उसके आने की संभावना है । क्योंकि जिस 60%  मन से तुमने समर्पण किया है । समर्पण करने के बाद कसौटी आएगी कि समर्पण से कुछ घट रहा है । या नहीं । पुन अब 60% समर्पण से कुछ भी नहीं घटता । तो वह जो 40% मन है । वह कहेगा - सुनो, अब आयी अक्ल ? पहले ही कहा था कि करो मत । इससे कुछ होने वाला नहीं है । यह भीतर की स्थिति है । घटती तो है घटना 100% से । उसके पहले तो घटती नहीं । 100 डिग्री पर ही पानी भाप बनता है । 60 डिग्री पर बहुत से बहुत गर्म हो सकता है । भाप नहीं बन सकता । तो गरमा गए हो । पहले की शांति भी चली गई । और ज्वर आ गया । और उपद्रव ले लिया । ये गेरुए वस्त्रों का । वैसे ही परेशान थे । वैसे ही झंझटें काफी थी । और 1 नई झंझट जोड़ ली । वह जो 40% बैठा हुआ है । उसकी तो तुम आलोचना नहीं कर सकते । वह तो विरोधी पार्टी हो गया । विरोधी पार्टी को 1 फायदा है । उसकी तुम आलोचना नहीं कर सकते । उसने कुछ किया ही नहीं । आलोचना कैसे करोगे ? इसलिए विरोधी पार्टी के नेता बड़े क्रिटिकल और आलोचक हो जाते हैं । वे हर चीज की आलोचना करने लगते हैं - यह गलत, यह गलत । जो कर रहा है । निश्चित उस पर ही गलती का आरोपण लगाया जा सकता है । जो कुछ भी नहीं कर रहा । इसलिए बड़े मजे की घटना सारी दुनिया में घटती रहती है - भीतर भी । और बाहर भी । जो पार्टी हुकूमत में होगी । वह ज्यादा देर हुकूमत में नहीं रह सकती । वह लाख उपाय करे । सदा हुकूमत में नहीं रह सकती । क्योंकि जो भी वह करेगी । उसमें कुछ तो भूलें होने वाली हैं । कुछ तो चूके होने वाली हैं । जीवन की समस्याएं ही इतनी बड़ी हैं कि सब तो हल नहीं हो जाएंगी । जो नहीं हल होंगी । विरोधी पार्टी उन्हीं की तरफ इशारा करती रहेगी कि - इसका क्या गुर इस संबंध में क्या ? कुछ भी नहीं हुआ । बरबाद हो गया मुल्क । तो लोग धीरे धीरे विरोधी की बात सुनने लगेंगे कि - बात तो ठीक ही कह रहा है । विरोधी का बल बढ़ जाता है । जैसे ही विरोधी सत्ता में आया । बस उसका बल टूटना शुरू हो जाता है । सत्ताधिकारी सत्ता में आते से ही कमजोर होने लगता है । गैर सत्ताधिकारी सत्ता के बाहर रहकर शक्तिशाली होने लगता है । इसलिए दुनिया में राजनीतिज्ञों का 1 खेल चलता रहता है । सारे लोकतंत्रीय मुल्कों में 2 पार्टियां होती हैं । हिंदुस्तान अभी भी उतनी अक्ल नहीं जुटा पाया । इसलिए यहां व्यर्थ परेशानी होती है । 2 पार्टियां होती हैं । 1 खेल है । जनता मूर्ख बनती है । उन 2 पार्टियों में 1 सत्ता में होती है । उसे जो करना है । वह करती है । जो गैर सत्ता में होती है । इस बीच वह अपनी ताकत जुटाती है । अगले चुनाव में दूसरी पार्टी सत्ता में आ जाती है । पहली पार्टी जनता में उतर कर फिर अपनी ताकत जुटाने में लगती है । उन दोनों के बीच 1 षडयंत्र है । 1 सत्ता में होता है । दूसरा आलोचक हो जाता है । और जनता की स्मृति तो बड़ी कमजोर है । वह पूछती ही नहीं कि - तुम जब सत्ता में थे । तब तुमने यह आलोचना नहीं की । अब तुम आलोचना करने लगे । यही काम तुम कर रहे थे । लेकिन तब सब ठीक था । अब सब गलत हो गया । और ये जो कह रहे हैं । सब गलत हो गया है । जब सत्ता में पहुंच जाएंगे । तब फिर सब ठीक हो जाएगा । इनके सत्ता में होने से सब ठीक हो जाता है । इनके सत्ता में न होने से सब गलत हो जाता है । इनकी मौजूदगी जैसे शुभ और इनकी गैर मौजूदगी अशुभ है ।
यही घटना मन के भीतर घटती है । जो मन का हिस्सा कहता था - मत करो समर्पण । मत लो संन्यास । वह बैठकर देखता है - अच्छा ! ले लिया । ठीक । अब क्या हुआ ? अब वह बारबार पूछता है - बताओ क्या हुआ ? तो तुम्हारे जो 60% हिस्से थे मन के । वे धीरे धीरे खिसकने लगते हैं । कुछ हिस्से उसके पास चले जाते हैं । कई बार ऐसी नौबत आ जाती हैं फिफ्टी फिफ्टी 50 50 की । तब संदेह उठता है । तब तुम बडे डावाडोल हो उठते हो ।
कभी कभी ऐसा भी हो सकता है कि हालत उलटी हो जाए । समर्पण के पक्ष में 40 हिस्से हो जाएं । और विपरीत में 60 हिस्से हो जाएं । तो तुम संन्यास छोड़कर भागने की आकांक्षा करने लगते हो ।
मुझे अपने समर्पण पर शक होता  है - समर्पण किया है । तो शक होगा ही । क्योंकि समर्पण किया नहीं जा सकता । समर्पण होता है । यह तो प्रेम जैसी घटना है । किसी से प्रेम हो गया । तुम यह थोड़े ही कहते हो कि प्रेम किया हो गया । तो मेरे पास भी 2 तरह के संन्यासी हैं 1 जिन्होंने समर्पण किया है । उनको तो शक सदा रहेगा । 1 जिनका समर्पण हो गया है । शक की बात ही न रही । यह कोई पार्लियामेंट्री निर्णय न था । यह कोई बहुमत से किया न था । यह तो सर्व मत से हुआ था । यह तो पूरी की पूरी दीवानगी में हुआ था । उसको मैं क्याटम छलांग कहता हूं । वह प्रक्रिया नहीं है । सीढी सीढ़ी जाने की वह छलांग है । तो जिन मित्र ने पूछा है । उन्होंने सोचकर किया होगा । सोचकर करो । तो पूरा हो नहीं पाता । पूरा हो न । तो कुछ हाथ में नहीं आता । हाथ में न आए । तो संदेह उठते हैं ।
फिर पूछा है कि - क्या पूरा  समर्पण शिष्य को ही करना होता है ?
समर्पण करना ही नहीं होता । समर्पण तो समझ की अभिव्यक्ति है - होता है । तुम सुनते रहो मुझे । पीते रहो मुझे । बने रहो मेरे पास । बने रहो मेरी छाया में । धीरे धीरे धीरे धीरे । 1 दिन तुम अचानक पाओगे । समर्पण हो गया । तुम सोचो मत इसके लिए कि करना है । कि कैसे करें । कब करें । तुम हिसाब ही मत रखो यह । तुम तो सिर्फ बने रहो । सत्संग का स्वाभाविक परिणाम समर्पण है । न तो शिष्य को करना होता है । न गुरु को करना होता है । गुरु तो कुछ करता ही नहीं । उसकी मौजूदगी काफी है । शिष्य भी कुछ न करे । बस सिर्फ मौजूद रहे । गुरु की मौजूदगी में । इन 2 मौजूदगियो का मेल हो जाए । ये दोनों उपस्थितिया एक दूसरे में समाविष्ट होने लगें । ये सीमाएं थोड़ी छूट जाएं । एक दूसरे में प्रवेश कर जाएं । अतिक्रमण हो जाए । मेरे और तुम्हारे बीच फासला कम होता जाए । सुनते सुनते, बैठते बैठते, निकट आते आते । कोई धुन तुम्हारे भीतर बजने लगे ।
न तो मैं बजाता हूं । न तुम बजाते हो । निकटता में बजती है । मेरा सितार तो बज ही रहा है । तुम अगर सुनने को राजी हो । तो तुम्हारा सितार भी उसके साथ साथ डोलने लगेगा । तुम्हारे सितार में भी स्वर उठने लगेंगे । तो न तो शिष्य करता समर्पण । न गुरु करवाता । जो गुरू समर्पण करवाए । वह असदगुरु है । और जो शिष्य समर्पण करे । उसे शिष्यत्व का कोई पता नहीं । समर्पण दोनों के बीच घटता है । जब दोनों परम एकात्ममय हो जाते हैं । गुरु तो मिटा ही है । जब शिष्य भी उसके पास बैठते बैठते, बैठते बैठते मिटने लगता है । पिघलने लगता है । समर्पण घटता है । या कि गुरु के सहयोग से वह शिष्य में घटित होता है - न कोई सहयोग है । गुरु कुछ भी नहीं करता । अगर गुरु कुछ भी करता हो । तो वह तुम्हारा दुश्मन है । क्योंकि उसका हर करना तुम्हें गुलाम बना लेगा । उसके करने पर तुम निर्भर हो जाओगे । किसी के करने से मोक्ष नहीं आने वाला है । गुरु कुछ करता ही नहीं । गुरु तो 1 खाली स्थान तुम्हें देता है । गुरु तो अपनी मौजूदगी तुम्हारे सामने खोल देता है । अपने को खोल देता है । गुरु तो 1 द्वार है । द्वार में कुछ भी तो नहीं होता । दीवाल भी नहीं होती । द्वार का मतलब ही है - खाली । तुम उसमें से भीतर जा सकते हो । तुम अगर डरो न । तुम अगर सोचो विचारो न । तो धीरे से द्वार तुम्हें बुला रहा है । तुमने देखा । खुला द्वार 1 निमंत्रण है । खुले द्वार को देखकर तुम अगर उसके पास से निकलो । तो भीतर जाने का मन होता है । अगर तुम हिम्मत जुटा लो । और खुले द्वार का निमंत्रण मान लो । तो गुरु गुरुद्वारा हो गया । उसी से तुम प्रविष्ट हो जाते हो । गुरु कुछ करता नहीं । गुरु केटेलिटिक एजेंट है । उसकी मौजूदगी कुछ करती है । गुरु कुछ भी नहीं करता । और मौजूदगी तभी कर सकती है । जब तुम करने दो । तुम मौका दो । तुम अवसर दो । तुम अपनी अकड़ छोड़ो । तुम थोड़े अपने को शिथिल करो । विश्राम में छोड़ो । जो है । वह तो तुम्हारे भीतर है । गुरु की मौजूदगी में तुम्हें पता चलने लगता है ।
फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा ।
वन वन उत्स का अज्ञान । बन गया व्याध का संधान ।
फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा ।
कस्तूरी कुंडल बसै । वह कस्तूरा फिरता है पागल । अंधा बना । अपनी ही गंध से ।
फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा ।
दौड़ता फिरता, भागता कि कहां से गंध आती, गंध पुकारती ।
यह गंध जो तुम मुझमें देख रहे हो । यह तुम्हारी गंध है । यह स्वर जो तुमने मुझमें सुना है । यह तुम्हारे ही सोए प्राणों का स्वर है ।
फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा ।
वन वन उत्स का अज्ञान । बन गया व्याध का संधान ।
जो मारने वाला छिपा है व्याध कहीं । उसके हाथ में अचानक कस्तूरा आ जाता है । कस्तुरा अपनी ही गंध खोजने निकला था । तुम भी न मालूम कितने व्याधों के संधान बन गए हो । कभी धन के । कभी पद के । कभी प्रतिष्ठा के । न मालूम कितने तीर तुम में चुभ गए हैं । और तुम भटक रहे हो खोजते अपने को ।
फिरा कस्तूरा अपनी ही गंध से अंध ।
अपनी ही गंध का पता नहीं । भागते फिरते हो । अकारण संसार के हजार हजार तीर छिदते हैं । और तुम्हारे हृदय को छलनी कर जाते हैं ।
सदगुरु का इतना ही अर्थ है । जिसकी मौजूदगी में तुम्हें पता चले कि - कस्तूरी कुंडल बसै । वह तुम्हारे भीतर बसी है । अब समर्पण कर दिया । पहले भी सोचते रहे । अब भी सोच रहे हो । सोच सोचकर कब तक गंवाते रहोगे ? 1 तो समर्पण ही सोचकर नहीं करना था । अब 1 तो भूल कर दी । अब कर ही चुके । अब तो सोचना छोड़ो । अब तो पूंछ कट ही गई । अब तो उसे जोड़ लेने के सपने छोड़ो । वह जो थोड़ी सी जीवन रेखा बची है । वह जो थोड़ी सी जीवन ऊर्जा बची है । उसका कुछ सदुपयोग हो जाने दो । उसे सोचने सोचने में गंवाओ मत ।
एक बची चिनगारी, चाहे चिता जला या दीप ।
जीर्ण थकित लुब्धक सूरज की लगने को है आंख ।
फिर प्रतीची से उड़ा तिमिर खग खोल सांझ की पांख ।
हुई आरती की तैयारी शंख खोज या सीप ।
मिल सकता मनवंतर क्षण का चुका सको यदि मोल ।
रह जाएंगे काल कंठ में माटी के कुछ बोल ।
आगत से आबद्ध गतागत फिर क्या दूर समीप ?
एक बची चिनगारी, चाहे चिता जला या दीप ।
थोड़ी सी जो जीवन ऊर्जा बची है । इसे तुम चिता के जलाने के ही काम में लाओगे । या दीया भी जलाना है ? हो गया सोच विचार बहुत । अब इस सारी ऊर्जा को बहने दो समर्पण में । आओ निकट । आओ समीप । ताकि जो मेरे भीतर हुआ है । वह तुम्हारे भीतर भी संक्रामक हो उठे ।
एक बची चिनगारी । चाहे चिता जला या दीप ।
हुई आरती की तैयारी । शंख खोज या सीप ।
समर्पण किया । संन्यास मैंने तुम्हारे हाथ में दे दिया । अब इसे हाथ में रखे बैठे रहोगे ? इस बांसुरी को बजाओ ।
भले ही फूंकते रहो बांसुरी । बिना धरे छिद्रों पर अंगुलियां । \नहीं निकलेगी प्रणय की रागिनी ।
दे दी बांसुरी तुम्हें । अब तुम ऐसे ही खाली फूंक फूंक करते रहोगे ? सोच विचार फूंकना ही है । कुछ जीवन ऊर्जा की अंगुलियां रखो बांसुरी के छिद्रों पर । यह जो संन्यास तुम्हें दिया है । यह परमात्मा के प्रणय के राग को पैदा करने का 1 अवसर बने । सोच विचार बहुत हो चुका । सुना नहीं अष्टावक्र को ? कहा जनक को - कितने कितने जन्मों में तुमने अच्छे किए कर्म । बुरे किए कर्म । क्या काफी नहीं हो चुका ? पर्याप्त नहीं हो चुका ? बहुत हो चुका । अब जाग । अब उपशांति को । विराम को । उपराम को उपलब्ध हो । अब तो लौट आ घर । अब तो वापिस आ जा मूल स्रोत पर । उस मूल स्रोत का नाम साक्षी है । संन्यास तो बांसुरी है । अगर अंगुलियां रख कर बजाई । तो जो स्वर निकलेंगे । उनसे साक्षी भाव जन्मेगा । संन्यास तो केवल यात्रा है - साक्षी की तरफ । और जब तक साक्षी पैदा न हो जाए । समझना । संन्यास पूरा नहीं हुआ है ।

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सत्यसाहिब जी सहजसमाधि, राजयोग की प्रतिष्ठित संस्था सहज समाधि आश्रम बसेरा कालोनी, छटीकरा, वृन्दावन (उ. प्र) वाटस एप्प 82185 31326