किं ते न कृतं पापं चौरेणाऽत्मापहारिणा ।
अर्थात - सत चिद आनन्द स्वरूप आत्मा को जो असत जड़ दुःख रूप समझता है । उस आत्म अपहरण करने वाले चोर ने कौन सा पाप नहीं किया ।
मण्डन ने आचार्य पर क्रोध करते हुए कहा - हमारे घर के द्वारपालों को वंचित कर चोर की तरह तुम कैसे घुस आये ?
मण्डन को आचार्य ने कहा - अरे ! भिक्षुओं को बिना दिये चोर की तरह तुम अन्न कैसे खा रहे हो ?
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्कते स्तेन एव सः । भगवदगीता 3/11
यतिश्च ब्रह्मचारी च पक्वान्धस्वामिदुभौ ।
तयोरन्नमदत्त्वा तु भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत ।
जो यति, ब्रह्मचारी, देव को न देकर स्वयं अन्न खाता है । वह चोर है । चान्द्रायण व्रत करे ।
क्व ब्रह्म क्व च दुर्मेधाः क्व संन्यासः क्व वा कलिः ।
स्वाद्वन्नभक्षकामेण वेदोऽयं योगिनां धृतः ।
मण्डन कहता है - कहाँ वह ब्रह्म । कहाँ वह दुर्बुद्धि । कहाँ वह संन्यास । कहाँ यह कलियुग । स्वाद अन्न भोजन की इच्छा से तुमने यह योगियों का वेष धारण किया है ।
शंकर कहते हैं - क्व स्वर्गः क्व दुराचारः क्वाग्निहोत्रं क्व वा कलिः । मन्ये मैथुनकामेन वेषोऽयं कर्मिणां घृतः ।
- कहाँ स्वर्ग । और कहाँ दुराचार । कहाँ अग्निहोत्र । और कहाँ कलियुग । मैथुन की इच्छा से ही तुमने यह कर्मियों का वेष धारण किया है ।
मण्डन कहते हैं - अश्वालम्बं गवालम्बं संन्यासं पलतैतृकम ।
देवरात्सुतोत्पत्तिं पञ्च कलौ विर्जयेत ।
अर्थात - अश्वालम्ब, गवालम्ब, संन्यास, श्राद्ध में पितरों को मांस पिण्ड, देवर से पुत्र की उत्पत्ति । ये 5 कलियुग में वर्जित हैं ।
आचार्य शंकर ने पराशर स्मृति का प्रमाण देते हुए कहा - जब तक वर्ण विभाग है । जब तक वेदो का प्रचार है । तब तक कलियुग में संन्यास और अग्निहोत्र का विधान है ।
यावद्वर्णविभागोऽस्ति यावद्वेदः प्रवर्तते ।
संन्यासमग्निक्षेत्रं च तावदस्ति कलौ युगे । पराशर स्मृति
शंकर द्वारा शास्त्र प्रमाण देने पर मण्डन ने बहुत सारे दुर्वाक्य प्रयोग किया - किं जडो जडता देदे भोतिके न चिदात्भनि ।
किमभाग्योऽसि यत्यर्चारसितोऽभाग्यउच्यते ।
किं दूषकोऽसि पापेन दुषितो जायते नरः ।
चोरैरुपाश्रितः किं त्वं स तु षड्रवर्गपीडितः ।
अप्रार्थितः किमर्थँ त्वं समायतो गृहे मम ।
तव भाग्यवशाद्विष्णुरहमत्र समागतः ।
मण्डन द्वारा क्रोध से अहंकार सहित वचन कहे जाने पर आचार्य शंकर उस उस वाक्य का उत्तर बड़ी सुन्दर रीति से कौतूहल से दे रहे थे ।
मण्डन मिश्र को क्रोध पूर्ण वचन बोलते हुए जैमिनि मुनि मुस्कुराते हुए देख रहे थे । तब भगवान व्यास ने कहा - हे वत्स ! तीनों प्रकार की ऐषणाओं का परित्याग करने वाले, तथा आत्म तत्व को जानने वाले, ऐसे संन्यासी के प्रति तुम दुर्वचन बोल रहे हो । यह अनिन्दित आत्माओं का आचारण नहीं है । अर्थात क्या यह आचरण तुम्हारे अनुरूप है ?
व्यास देव कहते है - अभ्यागतोऽसौ स्वयमेव विष्णुरित्येव मत्वाऽशुनि मन्त्रय त्वम । इत्याश्रवं ज्ञाविधिं प्रतीतं सुध्यग्रणीः साध्वशिषन्मुनिस्तम ।
यह अतिथि स्वयं विष्णु भगवान हैं । ऐसा जानकर तुम इन्हें शीघ्र निमन्त्रण दो । इस प्रकार श्रेष्ठ बुद्धिमानों में अग्रणीय आचार्य व्यास ने
विधि को जानने वाले उन प्रसिद्ध पण्डित मण्डन मिश्र को शिक्षा दी ।
व्यास मुनि की शिक्षा के अनन्तर पण्डित मण्डन भी शान्त मना होकर जल का आचमन आदि करके व्यास मुनि की आज्ञा अनुसार शास्त्र वित मण्डन ने महर्षि शंकर की पूजा कर भिक्षा के लिये निमन्त्रण दिया ।
आचार्य शंकर बोले – हे सौम्य ! मुझे साधारण अन्न की भिक्षा में कोई आदर नहीं है । मैं विवाद रूप भिक्षा लेने की इच्छा से आपके पास आया हूँ । परन्तु शर्त यह है कि परस्पर शिष्य रूप से भिक्षा देनी स्वीकार करनी चाहिए । अर्थात जो पराजित होगा । वह दूसरे का शिष्य बन जायेगा ।
शंकर भगवत्पाद कहते है - मम न किंचिदपि ध्रुवमीप्सितं श्रुतिशिरः पथविस्तूतिमन्तरा । अवहितेन मखेष्ववधीरितः स भवता भवतापहिमद्युतिः ।
वेदान्त मार्ग के विस्तार के बिना मुझे कोई भी निश्चित इष्ट नहीं है । संसार रूपी ताप को शान्त करने के लिये चन्द्रमा के समान है । वेदान्त
की महिमा अलौकिक है । परन्तु मुझे इस बात का खेद है कि यज्ञ आदि में निरत होकर आपने इसकी अवहेलना की है । अब मैं सभी वादियों को जीतकर इस वेदान्त मार्ग का विस्तार करूँगा । अतः तुम भी मेरे इस उत्तम मत को स्वीकार कर लो । अथवा मुझसे विवाद करो । या कहो कि मैं तुमसे पराजित हुआ हूँ ।
यतिराज शंकर का यह सारगर्भित वचन सुनकर इस नवीन पराभव से विस्मित हो महा यशस्वी मण्डन मिश्र अपने गौरव में स्थित होकर बोले - अपि सहस्रमुखे फणिनामके न विजितस्त्विति जातु फणत्ययम ।
न च विहाय मतं श्रुतिसंमतं मुनिमते निपतेत्परिकल्पिते ।
यदि सहस्र मुख वाला शेषनाग भी शास्त्रार्थ के लिये आ जाय । तो भी मैं यह नहीं कह सकता कि मैं हार गया । भला मैं श्रुति सम्मत कर्म काण्ड को छोड़कर कल्पित व्यास मत ? अथवा तुम्हारा मत कभी मान सकता हूँ ? मेरे हृदय में बहुत दिनों से शास्त्रार्थ करने की प्रवल इच्छा थी । किन्तु प्रतिद्वन्द्वी न मिलने के कारण ऐसे ही रहा । आज तो स्वयं विजय महोत्सव हमारे लिए उपस्थित हुआ है । शास्त्र जो पर्याप्त परिश्रम किया गया है । वह आज सफल हो । यदि भूतल पर सुधा स्वयं उपस्थित
हो । तो क्या उसका त्याग किया जा सकता है ? मैं साधारण व्यक्ति नहीं हूँ । मैं मृत्योर्यस्योपसेचनम मृत्यु भी जिसके लिये उपसेचन है । इस श्रुति सिद्ध यम के विनाशक ईश्वर का भी खण्डन करने वाला हूँ । वेदान्ती लोग कर्म फल दाता ईश्वर मानते हैं । परन्तु मैंने यह सिद्ध कर दिया है - फल दाता स्वयं कर्म है । इसमें ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं । हे यतिवर ! राजहंस की ध्वनि के समान मधुर अपनी वाणी से मेरे साथ शास्त्रार्थ करो । दुर्हृदयों के गर्व रूपी वन को नष्ट करने में
कठोर कुठार के तुल्य समस्त शास्त्रों के मर्म को जानने वाली मेरी पटुता क्या आपके कानों तक नहीं पहुँची ? जिससे आप शास्त्रार्थ की भिक्षा चाहते हैं । हे मुनि ! यदि आप शास्त्रार्थ विषयक वाद देने की इच्छा करें । तो मैं भिक्षा करूँगा । आपका यह कथन अल्प है । शास्त्रार्थ करने के लिये तो मैं सतत उद्यत हूँ । मुझे तो यह चिरकाल से इच्छा रही है । परन्तु मैं क्या करता । जब कि कोई शास्त्रार्थ करने वाला ही नहीं मिला । ये यतिवर ! मैं शास्त्रार्थ के लिए बिलकुल तैयार हूँ । लेकिन जय
पराजय का निर्णय करेगा कौन ? शास्त्रार्थ का यह नियम है कि वादी और प्रतिवादी एक दूसरे के विरुद्ध पक्ष का ग्रहण करते हैं । और एक दूसरे पर विजय प्राप्त करने का यत्न करते हैं । अतः आप बतलाइये कि हम दोनों की प्रतिज्ञायें क्या होंगी ? कौन सा प्रमाण आपको स्वीकृत है । इस विषय में आपका क्या अभिप्राय है ? हम दोनों का मध्यस्थ भी निर्णित होना चाहिये । और यह विवाद कल से आरम्भ हो । क्योंकि आज मध्याह्न कृत्य पूर्ण करने हैं । इस पर शंकर स्वामी ने मुस्कुराते हुए विवाद की स्वीकृति दे दी । और व्यास और जैमिनि को मध्यस्थ होने की प्रार्थना की ।
विधाय भार्याँ विदुषीं सदस्यां विधियतां वादकथा सुधिन्द्र ।
इत्थं सरस्वत्यवतारताज्ञौ तद्धर्मपत्न्यास्तमभाषिषाताम ।
तब दोनों मुनियों व्यास और जैमिनि ने कहा - हे विद्वत शिरोमणि ! मण्डन की विदुषी भार्या उभय भारती को मध्यस्थ स्वीकार कर आप लोग शास्त्रार्थ करें । वह साक्षात सरस्वती का अवतार है । वह शास्त्रार्थ का निर्णय उचित रीति से करेगी । मण्डन मिश्र ने इस बात का अनुमोदन किया । और प्रकृत कार्य में लग गये । मिश्र ने भाग्य से प्राप्त श्रौत अग्नि तुल्य तीनों मुनि का विधिवत पूजन किया । भोजन कर लेने के पश्चात तीनोँ मुनियों का प्रसन्न मन से उपनिषद पर कुछ विचार हुए । तदन्तर तीनों मुनि घर से बाहर निकले । व्यास और जैमिनि तो अन्तर्धान हो गये । और शंकर स्वामी ने शिष्यों सहित नर्मदा तट पर 1 शिव मन्दिर में वास किया । शंकर स्वामी ने दैवयोग से गुरु लोगों का दुर्लभ दर्शन पाया । उनकी अमृत तुल्य कथा अपने सब शिष्यों को सुनाते रात बिताई । प्रातःकालीन कृत्य से निवृत्त होकर शंकर स्वामी शिष्यों के साथ मण्डन मिश्र के घर सभा मण्डप में पधारे । शंकर और मण्डन दोनों ही महा पण्डित थे । समग्र देश में दोनों की ख्याति प्राप्त थी । दोनों के शास्त्र विषयक चर्चा सुनकर बहुत पण्डित तथा विद्वगण अधिक संख्या में आकर उपस्थित हुए । कृमशः
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