{ वेदान्त में अभाव अधिकरण रूप है } फिर भी साक्षी स्वरूप होने से विरोध होने के कारण जीवात्मा और परमात्मा अभेद ज्ञान कराने में
तत्त्वमसि आदि वाक्य प्रमाण कैसे हो सकते हैं ?
अचार्य सर्वज्ञ शंकर देशिक कहते हैं - प्रत्यक्ष तथा श्रुति में कोई भेद नहीं है । क्योँकि दोनों का विषय { आश्रय } भिन्न भिन्न है । यथा प्रत्यक्ष प्रमाण अविद्या आदि उपाधि युक्त जीव तथा मायोपाधि विशिष्ट ईश्वर में भेद दिखलाता है । और श्रुति अविद्या एवं माया रूप उपाधि रहित शुद्ध चैतन्य स्वरूप जीव ब्रह्म का अभेद वर्णन करती है । इस प्रकार प्रत्यक्ष का विषय औपाधिक जीव और ईश्वर है । और अभेद बोधक श्रुति का विषय उपाधि रहित शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रत्यग भिन्न है । 1 आश्रय होने से विरोध होता है । परन्तु भिन्नाश्रय होने से दोनों में विरोध मानें । तो भी कोई विरोध नहीं । क्योँकि पूर्व प्रवृत्त प्रमाण दुर्बल है । और उत्तर प्रवृत्त श्रुति प्रमाण प्रवल है । अतः प्रवल से दुर्बल बाधित होता है । यथा प्रत्यक्ष से तो सूर्य आदि अल्प परिमाण वाले प्रतीत होते हैं । किन्तु उत्तर शास्त्र प्रमाण से उसका बाध होता है । अथवा जैसे सीपी में पूर्व रजत ज्ञान उत्तर शूक्ति ज्ञान से बाधित है । वैसे ही भेद साधक प्रत्यक्ष प्रमाण अभेद साधक श्रुति से बाधित है । अपच्छेदन्याय { यह मीमांसा शास्त्र से सम्बन्धित है } से भी श्रुति प्रत्यक्षक का बाधक ही है । अतएव अभेद सिद्धान्त सत्य है । सत्य है ।
द्वितीय पक्ष अभेद का अनुमान से विरोध
नन्वेवमप्यस्त्यनुमानबाधोऽभेदश्रुतेः संयमिचक्रवर्तिन ।
घटादिवद ब्रह्मनिरूपितेन भेदेन युक्तोऽयमसर्ववित्तवात ।
मण्डन मिश्र कहते हैं - हे यतिराज ! श्रुति के साथ प्रत्यक्ष प्रमाण के
विरोध का तो आपने खण्डन कर दिया । परन्तु अनुमान से अभेद बोधक श्रुति बाधित है । यथा जीवो ब्रह्मनिरूपित भेदवान असर्वज्ञत्वात घटवत
। सर्वज्ञ न होने के कारण जीव उसी प्रकार ब्रह्म से भिन्न है । जिस प्रकार साधारण घट । यह अनुमान अभेद श्रुति का बाधक है । अर्थात इन अनन्त जीवों का नियन्ता । तथा इस अलौकिक सृष्टि का कर्ता अल्पज्ञ जीवों से भिन्न अवश्य कोई सर्वज्ञ ईश्वर होना चाहिए । अन्यथा यह व्यवस्था न हो सकेगी । अतः यह अनुमान जीव तथा ईश्वर भेद सिद्ध करता है ।
आचार्य शंकर कहते हैं - हे विद्वन ! इस अनुमान से जीव और ईश्वर में जिस भेद को सिद्ध किया जाता है । क्या वह पारमार्थिक { सत्य } है । या काल्पनिक { कल्पित } ? यदि पारमार्थिक है । तो आपका दृष्टान्त ठीक नहीं है । क्योँकि आपके मत में पृथ्वी आदि पदार्थ ईश्वर से भिन्न नहीं हैं । तो दृष्टान्त कैसे हो सकता है । जबकि दृष्टान्त, पक्ष और साध्य से भिन्न होता है । यदि काल्पनिक है । तो हम वेदान्ती लोग जगत की काल्पनिक सत्ता मानते ही हैं । तो उसके सिद्ध करने में प्रमाणों की क्या आवश्यकता है ? इस काल्पनिक भेद को लेकर स्व स्वामिभाव नियम्य नियामकभाव आदि जगत की सब व्यवस्था सुचारु रूप से चल सकती है ।
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