आचार्य भाष्यकार कहते हैं - हे विश्वरूप ! हे प्राज्ञ ! यदि यह आप मानते हैं कि जीव में परमात्मा के सदृश गुण हैं । परन्तु वे अविद्या से आवृत्त हैं । अविद्या के निवृत्त हुए । वे प्रतीत होने लगते हैं । तो फिर जीव वस्तुतः ब्रह्म है । इसके मानने से आपको आग्रह क्यों है ? आपने यह स्वयं स्वीकार किया है कि जीव अविद्या से आवृत्त होने के कारण अपने को ब्रह्म नहीं समझता । जब अविद्या की निवृत्ति हो जाती है । तब वह अपने को सचमुच ब्रह्म समझने लगता है ।
विश्वरूप मण्डन कहते हैं - अच्छा तो इसका यह अभिप्राय हुआ कि चेतन होने से जीव ब्रह्म के तुल्य है । इस कथन से यह सिद्ध होगा कि यह संसार चैतन्य से उत्पन्न हुआ है । ऐसा मानने से अचेतन परमाणु अथवा प्रकृति से जगत की उत्पत्ति मानने वाले वैशेषिक तथा सांख्यों का खण्डन स्वतः सिद्ध हो जाता है ।
आचार्य भगवत्पाद कहते हैं - वाह ! वाह ! आपने खूब कही । ऐसी दशा में तो तत्वमसि के स्थान पर तत्वमस्ति वाक्य होना चाहिये । तत { जगत का कारण - ईश्वर } त्वम { जीव } अस्ति { है } वह तू है । ऐसा प्रयोग होगा । तब तो तत्वमसि में असि का प्रयोग आपके मत से ठीक नहीं है । आप इस तत पद से इस जगत के मूल कारण जड़ न होने की सिद्ध करते हैं । वह तो तदैक्षत { उसने ईक्षण किया } इत्यादि उपनिषद वाक्यों से प्रथम ही सिद्ध है । और जड़त्व की शंका निवृत्त हो जाती है । तो पुनः प्रधान निरास विषयक शंका नहीं करना चाहिये ।
{ नोट - तदैक्षत यह विचारणीय प्रश्न है कि जगत का मूल तत्व जड़ है । अथवा चेतन ? नैयायिक और वैशेषिक जड़ परमाणुओं से जगत की उत्पत्ति मानते हैं । सांख्य मत में जड़ प्रधान सृष्टि का कृर्त्त कारण है । परन्तु वेदान्त चेतन ब्रह्म को जगत का मूल कारण मानता है । यथा -
{ तदैक्षत बहुस्या प्रजायते { छान्दोग्य 6/2/3 } उसने ईक्षण अर्थात संकल्प किया कि - मैं बहुत होऊँ }
प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से अभेद का विरोध -
मण्डन मिश्र कहते हैं - जीव ब्रह्म की एकता कथमपि सिद्ध नहीं हो सकती । क्योँकि यह एकता प्रत्यक्ष अनुमान तथा श्रुति इन 3 प्रमाणों से वाधित है । इनमें से प्रथम पक्ष प्रत्येक व्यक्ति का यह प्रसिद्ध अनुभव है कि मैं ईश्वर नहीं हूँ । किन्तु मैं अल्पज्ञ जीव उसका दास हूँ । यह प्रत्यक्ष प्रमाण जीव ब्रह्म की एकता का विरोधी है । इसलिये स्वाध्यायऽध्येतव्यः इस विधि वाक्य से आश्रित तत्वमसि आदि वचन केवल जपोपयोगी है । ऐसा स्वीकार करना चाहिए ।
वेदान्त भाष्कर आचार्य शंकर कहते है - यदि इन्द्रियों द्वारा जीव और ब्रह्म का भेद ज्ञात होता । तो अभेद प्रतिपादक तत्वमसि आदि वेद वाक्यों का विरोध निश्चित होता । परन्तु प्रत्यक्ष में जीव ब्रह्म का भेद ही अगृहीत है । भेद का स्वरूप है । जैसे सूर्य चन्द्रमा नहीं है । मनुष्य पशु नहीं है इत्यादि । भेद तो अभाव रूप है । उसके साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध अयुक्त है । क्योँकि इन्द्रियाँ अपने अपने गुण तथा गुण युक्त भाव वस्तु को ग्रहण करती है । इसलिए भेद रूप अभाव इन्द्रियों द्वारा गृहित न होने से ईश्वर तथा जीव का भेद प्रत्यक्ष प्रमाण से गृहीत है । यह कथन अयुक्त है । और भेद के प्रत्यक्ष में अनुपयोगी तथा प्रतियोगी दोनों का ज्ञान अपेक्षित है । अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम रूप आदि रहित होने से ईश्वर के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध ही नहीं है । इससे ईश्वर का प्रत्यक्ष भी नहीं होता । इससे अभेद प्रतिपादक श्रुतियों के साथ कोई भी विरोध नहीं है ।
मण्डन कहते हैं - हे यतिवर ! विशेषण विशेष्य भाव सम्बन्ध को लेकर जीव ब्रह्म के भेद का प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है । यथा - अहमीश्वराद्भिन्नः { मैं ईश्वर से भिन्न हूँ } यह पूर्वोक्त जीव भेद का विशेषण है । और ईश्वर विशेष्य । यहाँ यद्यपि इन्द्रियों का संयोग सम्बन्ध नहीं है । फिर भी संयुक्त विशेषण विशेष्य भाव का सम्बन्ध है ही । इस प्रकार हे विद्वन ! भेद गृहीत होने से अभेद का बाध हो सकता है । इन्द्रिय और विषय के सम्बन्ध को सन्निकर्ष कहते हैं । विना सन्निकर्ष के विषय का ज्ञान नहीं होता । न्याम मत में सन्निकर्ष
6 प्रकार के माने गये है - 1 संयोग 2 संयुक्त समवाय 3 संयुक्त समवेत समवाय 4 समवाय 5 समवेत समवाय 6 विशेषणविशेष्य भाव
आचार्य शंकर कहते हैं - केवल विशेषणता सन्निकर्ष से किसी भी अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता । क्योँकि अति प्रसंग हो जायेगा । विशेषण विशेष्य भाव सन्निकर्ष तब लागू हो जन भेदाश्रय आत्मा का इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष हो । आत्मा तो इन्द्रियों से अप्रत्यक्ष है । न चक्षुषा गृह्यते { जो चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा गृहित नहीं है } इसलिए भेद अनुगृहीत है ।
मण्डन मिश्र कहते है - हे यतिन्द्र ! यह युक्ति ठीक नहीं है । क्योँकि भेद का आश्रय भूत आत्मा का तो इन्द्रिय से प्रत्यक्ष होता है । न्याय मत में आत्मा और मन द्रव्य पदार्थ है । अतः द्रव्यों का संयोग सम्बन्ध निश्चित ही है ।
आचार्य भाष्यकार भगवत्पाद शंकर कहते हैं - हे योगी ! आत्मा को आप क्या मानते हैं - विभु अथवा अणु ! किसी भी रूप से आत्मा के साथ मन का संयोग नहीं हो सकता । क्योँकि सावयव द्रव्योँ का ही संयोग देखा जाता है । आत्मा तो अवयवी नहीँ है । क्योँकि विभु या अणु दोनों अवयवों से रहित होते हैं । न्याय मत में मन भी अणु होने से अवयव रहित है । अतः इनका संयोग कैसे हो सकता है ? मन इन्द्रिय है । इस सिद्धान्त को स्वीकार कर आपने मन का भेद के साथ संयोग कहा है । परन्तु वेदान्त सिद्धान्त में मन इन्द्रिय नहीं है । किन्तु ज्ञान कराने में इन्द्रियों का सहायक मात्र है । जैसे दीपक नेत्रेन्द्रिय द्वारा रूप ज्ञान में सहायक मात्र है ।
इन्दियेभ्यः परा ह्यार्थाः इन्द्रियेभ्यश्च परं मनः { कठ श्रुति 3/10 }
{ इन्द्रियों की अपेक्षा सूक्ष्म होने से उनके विषय श्रेष्ठ हैं । विषयों से मन उत्कृष्ट है } मनः षष्ठानीन्द्रिमाणी { भगवद्गीता 15/7 } { मन के साथ 6 इन्द्रियाँ हैं } इत्यादि श्रुतिः स्मृति प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि मन इन्द्रिय नहीं है । किन्तु उनके साथ वर्णन मात्र है । यथा यजमान पञ्चमा इडा भक्षयन्ति यजमान ऋत्विक न होने पर भी इढा भक्षण में पाँचवां कहा गया है ।
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