27 अप्रैल 2011

यह मानव मस्तिष्क की विकृति है

ब्रह्माण्ड और ब्रह्म का स्वरूप - ब्रह्माण्ड का जो भी स्वरूप है । वही ब्रह्म का रूप या शरीर है । वह अनादि है । अनन्त है । जैसे प्राण का शरीर में निवास है । वैसे ही ब्रह्म का अपने शरीर या ब्रह्माण्ड में निवास है । वह कण कण में व्याप्त है । अक्षर है । अविनाशी है । अगम है । अगोचर है । शाश्वत है । ब्रह्म के प्रकट होने के 4 स्तर हैं - ब्रह्म, ईश्वर, हिरण्यगर्भ एवं विराट । भौतिक संसार विराट है । बुद्धि का संसार हिरण्यगर्भ है । मन का संसार ईश्वर है । तथा सर्वव्यापी चेतना का संसार ब्रह्म है ।
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म, अर्थात ब्रह्म सत्य और अनन्त ज्ञान स्वरूप है । इस विश्वातीत रूप में वह उपाधियों से रहित होकर निर्गुण ब्रह्म या परब्रह्म कहलाता है । जब हम जगत को सत्य मानकर ब्रह्म को सृष्टिकर्ता, पालक, संहारक, सर्वज्ञ आदि औपाधिक गुणों से संबोधित करते हैं । तो वह सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहलाता है । इसी विश्वगत रूप में वह उपास्य है ।
ब्रह्म के व्यक्त स्वरूप ( माया या सृष्टि ) में बीजावस्था को हिरण्यगर्भ ( सूत्रात्मा ) कहते हैं । आधार ब्रह्म के इस रूप का अर्थ है । सकल
सूक्ष्म विषयों की समष्टि जब माया स्थूल रूप में अर्थात दृश्यमान विषयों में अभिव्यक्त होती है । तब आधार ब्रह्म वैश्वानर या विराट कहलाता है ।
प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है । बाह्य एवं अंत:प्रकृति को वशीभूत करके अपने इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है ।
कर्म, उपासना, मन:संयम अथवा ज्ञान । इनमें से 1, 1 से अधिक
या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो । और मुक्त हो जाओ । बस यही धर्म का सर्वस्व है । मत, अनुष्ठान पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रियाकलाप तो उसके गौण ब्यौरे मात्र हैं ।
आत्मन या आत्मा पद भारतीय दर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों  concepts  में से 1 है । उपनिषदों के मूलभूत विषय वस्तु के रूप में यह आता है ।
जहाँ इससे अभिप्राय व्यक्ति में अन्तर्निहित उस मूलभूत सत से किया गया है । जो कि शाश्वत तत्त्व है । तथा मृत्यु के पश्चात भी जिसका विनाश नहीं होता । आत्मा या ब्रह्म के प्रत्यय का उद्भव का उपनिषदों में विचार किया गया है कि - जगत का मूल तत्त्व क्या है/कौन है ? इस प्रश्न का उत्तर में उपनिषदों में ब्रह्म से दिया गया है । अर्थात ब्रह्म ही वह मूलभूत तत्व है । जिससे यह समस्त जगत का उदभव हुआ है - बृहति बृहंतिबृह्म । अर्थात बढ़ा हुआ है । बढ़ता है । इसलिये ब्रह्म कहलाता है ।
यदि समस्त भूत जगत ब्रह्म की ही सृष्टि है । तब तार्किक रूप से हममें भी जो मूल तत्व है । वह भी ब्रह्म ही होगा । इसीलिये उपनिषदों में ब्रह्म
एवं आत्मा को एक बतलाया गया है । इसी की अनुभूति को आत्मानुभूति या ब्रह्मानुभूति भी कहा गया है । आत्मा शब्द के अभिप्राय - आत्मा शब्द से सर्वप्रथम अभिप्राय स्वांस-प्रश्वास breathing  तथा मूलभूत जीवन  तत्व किया गया प्रतीत होता है । इसका ही आगे बहुआयामी विस्तार हुआ । जैसे - यदाप्नोति यदादत्ति यदत्ति यच्चास्य सन्ततो भवम,
तस्माद इति आत्मा कीर्त्यते ( सन्धि विच्छेद कृत ) शंकरभाष्य अर्थात जो प्राप्त करता है ( देह ) जो भोजन करता है । जो कि सतत ( शाश्वत तत्त्व के रूप में ) रहता है । इससे वह आत्मा कहलाता है । उपनिषदों में आत्मा विषयक चर्चा - तैत्तरीय उपनिषद में आत्मा या चैतन्य के 5 कोशों की चर्चा की गयी । प्रथम अन्नमय कोश, मनोमयकोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा आनन्दमय कोश । आनन्दमय कोश
से ही आत्मा के स्वरूप की अभिव्यक्ति की गयी है ।
माण्डूक्य उपनिषद में चेतना के 4 स्तरों का वर्णन प्राप्त होता है - 1 जाग्रत 2 स्वप्न 3 सुषुप्ति 4 तुरीय । यह तुरीय अवस्था को ही आत्मा के स्वरूप की अवस्था कहा गया है - शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थ स आत्मा स विज्ञेयः । माण्डूक्योपनिषद । छान्दोग्य उपनिषद इसी सन्दर्भ में इन्द्र एवं विरोचन दोनों प्रजापति के पास जाकर आत्मा ( ब्रह्म ) के स्वरूप के विषय में प्रश्न करते हैं । यहाँ पर प्रणव या ॐ को इसका प्रतीक या वाचक कहा गया है । बृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य एवं मैत्रेयी के संवाद में भी आत्मा के सम्यक ज्ञान मनन चिन्तन एवं निद्धियासन की बात की गयी है । तथा इससे ही परम तत्व के ज्ञान को भी संभव बतलाया गया है - आत्मा वा अरे श्रोतव्या मन्तव्या निदिध्यासतव्या ।
इन सृष्टि में अनुस्यूत है ब्रह्म । संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म नाम से
श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है । जो था । जो है । और जो सदैव रहेगा । वही तो ब्रह्म है । सत्यनाम से ऋषियों मनीषियों द्वारा वही कहा जाता है ।
यहां मिथ्या शब्द असत से भिन्न है । मिथ्या शब्द यहां प्रतीति होने वाली वस्तु सत्य सी लगती है । जबकि वह प्रतीति क्षण में नहीं ।
यही मिथ्यात्व है । इसमें संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है । संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही जीव का अस्तित्व समाप्त हो जाता है । यह ऐसे ही है । जैसे जागने पर स्वप्नकाल के द्रष्टा और दृश्य का को लोप हो जाता है । वस्तुत: यह एकत्व और अद्वैत ही परमार्थ है । सत्य का अर्थ है - जिसका तीनों कालों में बोध नहीं होता । अर्थात - जो था । जो है । और जो रहेगा ।
इस दृष्टि से जगत ब्रह्म-सापेक्ष है । ब्रह्म को जगत के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता । जिस प्रकार आभूषण के न रहने पर भी स्वर्ण की सत्ता निरपेक्ष भाव से रहती है । उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व भी सत्य था । दूसरे शब्दों में, ब्रह्म का अस्तित्व सदैव रहता है ।
श्रुति का वचन है - सदेव सोम्येदग्रमासीत । अर्थात हे सौम्य ! सृष्टि से पूर्व सत्य ही था । वेदांत ग्रंथों में व्यावहारिक दृष्टि से ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए ईश्वर को कारण-ब्रह्म और जगत को कार्य-ब्रह्म कहा गया है । ब्रह्म का चिंतन इस सृष्टि में मानव देह की उपलब्धता सर्वोत्कृष्ट मानी गई है । मनुष्य जीवन की प्राप्ति परमेश्वर के अनुग्रह का ही फल
है । जिसने सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन किया है । इस संसार में मनुष्य जन्म से ही 2 तरह की अनुभूतियों से परिचय होता है - सुख और
दुख । सुख दुख के विषय में विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे निश्चित रूप से जीवन में आई परिस्थितियों से जुड़े रहते हैं । परिस्थिति अनुकूल होती या प्रतिकूल । अनुकूल परिस्थितियों से सुख मिलता है । जबकि प्रतिकूल परिस्थितियों से दुख की प्राप्ति होती है । मनुष्य के कल्याण एवं भगवत्प्राप्ति के साधन हेतु अनुकूल परस्थितियों की अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थितियाँ अधिक उत्तम सिद्ध होती हैं । अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर मनुष्य भौतिकता में फंस जाता है । लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति आने पर ऐसी संभावना लगभग नहीं रहती । तथा मन परम पिता परमात्मा के चरणों में लगने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है । प्रतिकूल परिस्थितियाँ आने पर मानव को प्रभु का अनुग्रह मानना चाहिए । क्योंकि यह कृपा केवल उन्हीं पर बरसती है । जिन पर उनका विशेष स्नेह होता है । प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने पर व्यक्ति को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है । प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने पर व्यक्ति को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है । क्योंकि ऐसे समय में सबसे पहले धैर्य, फिर मित्रादि सभी साथ छोड़ने लगते हैं । यदि ऐसी स्थिति में मनुष्य विचलित होने लगे । तो उसका मनोबल टूटने लगेगा । परन्तु यदि प्रभु पर विश्वास रखते हुए इनका सामना किया जाए । तो मनुष्य का आत्मिक विकास होगा । ब्रह्म के चिंतन में वृद्धि होगी । दुष्प्रवृत्तियों से गुजरने वाला व्यक्ति वैसे ही सफल होकर निकलता है । जैसे तपने के पश्चात सोना अधिक चमकदार हो जाता है । लेकिन जिज्ञासा तो अब भी सहज बनी रहती है कि - ब्रह्म क्या है ? सभी का मानना है कि बिना किसी संतुलित संचालन व्यवस्था के यह संपूर्ण ब्रह्मांड इतने सुव्यवस्थित रूप से नहीं चल सकता । यह सर्वोच्च नियामक सत्ता वैदिक दर्शनों में ब्रह्म है । आद्य शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद के अनुसार इस संपूर्ण जगत में जो कुछ भी इंद्रियों द्वारा गृहीत है । अर्थात जो कुछ भी दिखाई, सुनाई, सुंघाई या स्पर्श आदि में आता है । वह सब मात्र ब्रह्म ही है ।
इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं । जिस प्रकार मिट्टी से निर्मित पात्रों का अलग अलग नाम रूप होने के पश्चात भी मूल रूप मिट्टी ही होती है । इसी प्रकार जो भी जड़ अथवा चेतन तत्व विभिन्न नाम रूप से ज्ञात होते हैं । वे मूल रूप से ब्रह्म ही हैं । भौतिक विज्ञानी आइंस्टीन के नियम के अनुसार इस पूरे ब्रह्मांड में द्रव्य या ऊर्जा है । यह दोनों भी आपस में परिवर्तनशील हैं । अर्थात जो द्रव्य या ठोस पदार्थ हमें दिखते हैं । वे
भी ऊर्जा से निर्मित हैं । और सभी ठोस पदार्थ अंतत: ऊर्जा में ही परिवर्तित हो जाते हैं । अत: इस पूरे ब्रह्मांड में ऊर्जा के अतिरिक्त कुछ
भी नहीं है । अध्यात्म विज्ञान में यही ऊर्जा ब्रह्म है । हम ‘ब्रह्मांड’ शब्द का प्रयोग इसलिए करते हैं कि यह सर्वव्याप्त ब्रह्म से परिपूर्ण एवं अंडाकार है । खगोल विज्ञानियों के अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति पूर्ण ऊर्जा एवं धूल के कणों में महाविस्फोट से हुई है । कालांतर में इसी से आकाशगंगाएं, नक्षत्र, तारे एवं ग्रह आदि बने । सूर्य के विखंडन से संपूर्ण सौरमंडल अस्तित्व में आया । अध्यात्म विज्ञानी इस सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानते हैं । जबकि खगोल विज्ञानी विस्फोटक से मानते हैं । अर्थात सभी ग्रहों या पृथ्वी पर जो कुछ भी जड़-चेतन तत्व हैं । वह सूर्य या ब्रह्मांड के मूल तत्त्व से ही बना है । परन्तु नाम-रूप में भिन्नता होने पर भी मूल तत्त्व एक ही है । और वह ब्रह्म है । दर्शन शास्त्रों में ब्रह्म के संदर्भ में एको ब्रह्म
द्वितीयो नास्ति कहा गया है । मृत्योपरांत चेतन तत्व द्वारा शरीर को छोड़ने के पश्चात जड़ तत्त्व प्रकृति में विलीन हो जाता है । ब्रह्म को निर्लिप्त, निराकार, निर्विशेष तथा निर्विकार आदि कहा गया है । अध्यात्म शास्त्रियों ने इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा के 3 गुण बताए हैं । इसमें सत सत्य है । चित चेतन है । तथा आनन्द ब्रह्म स्वरूप है । इसी को सच्चिदानन्द परमात्मा के रूप में जाना जाता है । इन्सान के मन मस्तिष्क, दिलोदिमाग पर अपनी सत्ता कायम करने वाले अनदेखे अनजाने उस ब्रह्म कि मै बात कर रहा हूँ । जो है भी । और नहीं भी है ? ब्रह्म नहीं है । क्योंकि मैंने उसे देखा नहीं है । उसका आकार क्या है ? प्रकार क्या है ? दिखता कैसा है ? रंग क्या है ? आज के पढ़े लिखे इन्सान यकीन तब
ही करता है । जब उसे देखता है । छूकर उसे महसूस करता है । बिना जाने समझे वह किसी भी मनगढ़ंत बातों पर यकीन नहीं करता । वह प्रयोगवादी है । और प्रयोग कर सत्य जानने कि कोशिश करता है । इसी सत्यकीखोज़ में आज का मानव आकाश, पाताल और धरती पर अपनी खोज़ जारी रखी है । इस सत्यकीखोज़ का अंत कहाँ है ? यह भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है । और इंसान भविष्य नहीं जान सकता ? जबसे इस पृथ्वी पर इंसान की उत्पत्ति हुई है । उसी समय से वह सत्यकीखोज में लगा हुआ है । वह सत्य कि जब 1 तार को छेड़ता है । तो अनगिनत तरंगे प्रतिध्वनित होती हैं । अब इंसान उन अनगिनत तरंगो की खोज़ शुरू करता है । जब उसको सुलझाने के करीब पहुंचता है । तो फिर कोई और तरंगे प्रतिध्वनित होती हैं । और खोज़ दर खोज़ यह सिलसिला चलता ही रहता है । चलता ही रहता है । यानी वृत के छोर को खोजना । यह कब
तक चलेगा । इसका अंत कहाँ है ? इसका जवाब किसी के पास नहीं है ? यह 1 अंतहीन सिलसिला है । ब्रह्म है । मैंने उसे नहीं देखा है । लेकिन हर पल उसकी उपस्थिति का अहसास होता है । शायद वह निराकार है । स्याह अँधेरी काली रात की तरह । जिसमें अपनी आँखों के प्रतिविम्ब नज़र आते हैं । जिसमें कुछ भी दिखाई नहीं देता है । सिर्फ अनुभव
किया जा सकता है । उसकी विशाल सत्ता में नील गगन, नछत्र, तारे, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल है । मानव शरीर का निर्माण भी 5  तत्वों से हुआ है - अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश । उसकी सत्ता में जीवन है । मृत्यु नहीं है । क्योंकि आत्मा अजर अमर है । इसे कोई भी शक्ति मिटा नहीं सकती है । विनाश होता है । तो केवल शरीर का । और यह शरीर फिर उन्हीं 5 तत्वों में विलीन हो जाता है ।
यह अंतहीन सिलसिला चलता ही रहता है । उसके साम्राज्य में जीवन कहाँ कहाँ है ? आज का विज्ञान या मानव उसे नहीं ढूढ़ पाया है ।
हमारे भारतीय पूर्वजों या ऋषि मुनियों ने पौराणिक पुस्तकों में बहुत से लोक का जिक्र किया है । जैसे - शिवलोक, ब्रह्म लोक, विष्णुलोक, इन्द्रलोक, मृत्युलोक और न जाने कौन कौन से लोक हैं इस ब्रह्मांड में ।
जहाँ जीवन है । विज्ञानं इस खोज में लगा है । हो सकता है । कल दूसरी दुनियां खोज ली जाय । जैसे कि रामसेतु का होना । या द्वारिकापुरी का होना । पौराणिक पुस्तकों में ही था । जब नासा के वैज्ञनिको ने रामसेतु का फोटो और द्वारिकापुरी की खोज पूरी दुनियां के सामने लाया । तब लोगों ने यकीन किया । वैसे ही जब कोई दूसरी दुनियां ख़ोज ली जाएगी । तब लोग यकीन करेंगे । जबकि हमारे भारतीय ऋषि मुनियों ने हजारो साल पहले ही दूसरी दुनियां खोज ली थी । पौराणिक पुस्तक में ही 7 सूर्य का जिक्र किया गया है । जबकि 1 ही सूर्य को विज्ञान आज तक जान पाया है । हम सभी मानव, जीव जंतु, पेड़ पौधा मृत्युलोक के वासी हैं । और मृत्यु ही सत्य है । अगर हम अपने पूरे जीवन की गणना करें । तो पाते है कि 23000 से 25000 दिन भी नहीं जी पाते हैं । इस मृत्युलोक में । और इसी 23000 दिनों में बचपन, जवानी और बुढ़ापा सब देख लेते हैं । फिर इस शरीर का अंत हो जाता है । उस ब्रह्म के रचे लीलाओं में से फिर कोई नया पात्र बनकर फिर से कोई नया जीवन जीते हैं । यह सिलसिला चलता ही रहता है । जब तक यह सृष्टि है । उसकी सत्ता में न कोई धर्म है । न कोई जाति है । और न ही उंच नीच का भेदभाव । यह मानव मस्तिष्क की विकृति है । जो इस मृत्युलोक में धर्म, जाति और उंच नीच बांट दिया है । उस अनजाने ब्रह्म के अनेको नाम हैं । जिसे धर्म के हिसाब से नाम दिए गए हैं । जैसे - ईश्वर, अल्लाह, जीसस । उसकी उपस्थिति हर जगह है । आप यकीन करें । या न करे ? यकीन करना । या न करना । यह आपके ऊपर निर्भर करता है । अगर इस पृथ्वी पर जीवन है । तो ब्रह्म भी है । साभार - स्वामी सुरेंद्रानंद सरस्वती ।

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